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Thursday, January 25, 2018

छात्र मशाल, जनवरी-मार्च 2018

" छात्र मशाल " क्रांतिकारी छात्र-नौजवानों की आवाज़..... का 11 वां अंक



 





" छात्र मशाल " क्रांतिकारी छात्र-नौजवानों की आवाज़..... का चौथा अंक










छात्र मशाल का तीसरा अंक.........








 



  



Tuesday, January 9, 2018

क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी है? -प्रेमचंद


मध्ययुगीन भक्ति - आंदोलन का एक पहलू : मुक्तिबोध


बुद्धिजीवियों का निर्माण - अंतोनियो ग्राम्सी


गवाही: दक्षिण छत्तीसगढ़ में यौन हिंसा। -WSS


भाषण: साहित्य का उद्देश्य -प्रेमचंद


कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र : कार्ल मार्क्स,फ़्रेडरिक एंगेल्स


नौजवानों से दो बातें - प्रिंस पीटर क्रोपोटकिन


Saturday, January 6, 2018

उपन्यास: मैला आँचल -फणीश्वरनाथ रेणू

कार्यक्रम सूचना:


यात्रावृतांत: विद्रोह के अन्तःस्थल में दिन और रात -गौतम नवलखा


लघु उपन्यास: पहला अध्यापक


किताब: भूमकाल: कामरेडो के साथ -अरुंधती रॉय


किताब: पूंजीवाद एक प्रेतकथा -अरुंधति रॉय


कहानी: कामरेड का कोट -सृंजय


-पांखी पत्रिका से साभार।

Tuesday, January 2, 2018

भीमा कोरे गाँव युद्ध को शौर्य दिवस के रूप मनाने गए दलितों के ऊपर हिन्दू आतंकी-भगवा गिरोहों द्वारा हुए जानलेवा हमले का भगत सिंह छात्र मोर्चा विरोध करता है।










1 जनवरी 1818 को अंग्रेज़ो की सेना में शामिल 500 महार व कुछ अन्य सैनिकों द्वारा 28 हज़ार पेशवाओं को धूल चटाकर भारत में पेशवाई राज का खात्मा कर दिया। भीमा कोरेगाँव के युद्ध का जश्न, हर साल एक जनवरी को दलित समुदाय और देश के विभिन्न हिस्से से लोग शौर्य दिवस के रूप में मनाने पहुचते हैं।
इस साल चूँकि शौर्य दिवस का 200 साल पूरा हुआ था। इस कारण देश भर से भारी संख्या में दलित समुदाय और विभिन्न आंदोलनों से जुड़े लोग पहुचे थे।
चूँकि 200 साल पहले घटित हुई यह घटना, उनके द्वारा कही जाने वाली तथाकथित अछूतों,शूद्रों द्वारा वर्ण-जाति व्यवस्था को चुनौती देने वाली घटना थी। जहां पर दलितों को इंसान नहीं बल्कि अछूत समझा जाता था। उनके गले मे हाड़ी बांधी जाती थी ताकि उसी में थूकें नहीं तो जमीन अशुद्ध हो जाती थी। कमर में झाड़ू बांधी जाती थी ताकि चलें तो अपने पैरों के निशान भी मिटाते चलें। इसके खिलाफ यह विजययुद्ध मनुवादी श्रेष्ठताबोध को एक जोरदार चोट थी । और इस बार इस घटना का प्रचार प्रसार भी बड़े स्तर पर हुआ था। जिससे  ब्राह्मणवादी और हिंदूवादी संगठन काफी घबराये हुए थे। इनका फर्जी श्रेष्ठताबोध जाग गया।
हालांकि ये हिंसक घटना बिना सरकार और स्थानीय पुलिस समर्थन के नहीं घट सकती थी। क्योंकि 30 दिसम्बर को ही अखिल भारतीय ब्राह्मण महासंघ ने पहले ही शनिवार वाडा में जश्न मनाये जाने को लेकर आपत्ति जताई थी। पर पुलिस ने इसके वाबजूद इस जगह पर सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम नहीं की।बल्कि मनुवादी मानसिकता की वजह से उनके साथ नजर आयी। पत्थर मारने वालों और गाड़ियों में आग लगाने वाले साथ में भगवा झंडा लिये हुए थे। ये सब पुलिस के सामने होता रहा वो देखती रही। इसलिए दलितों के संघर्ष के इतिहास में , इस सशस्त्र संघर्ष को याद करने के लिए आयोजक एल्गार परिषद को बधाई। यह संघर्ष क्रांतिकारी प्रेरणा देता है। आज के दलित आंदोलन की कुंद धार को तेज करने की। संसदीय अवसरवादी-अस्मितावादी राजनीति की आलोचना करने की। और नव पेशवाई जो साम्राज्यवाद से गठजोड़ कर लिया है उन दोनों को समसान में गाड़ने की। अतः सभी उत्पीड़ित तबके,बराबरी-जनवाद-न्याय पसंद लोग इस घटिया,कायराना,अलोकतांत्रिक घटना का विरोध करें। तथा फासीवादी नव पेशवाई के खिलाफ गोलबंद हो और इसे ध्वस्त करें । जिससे जनवादी समाज निर्माण का रास्ता साफ हो।
                             
#आज यह युद्ध संघर्षरत आदिवासियों,मजदूरों-किसानों,अल्पसंख्यकों,महिलाओं,छात्र-नौजवानों,नागरिक-बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर (नव पेशवाई गठजोड़) फासीवादी मनुवादी-सामंती ताकतों और पूँजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ना है।

                 -इंकलाब जिंदाबाद!
-अनुपम, सहसचिव, भगत सिंह छात्र मोर्चा(bcm)

Monday, January 1, 2018

‘भीमा कोरेगांव’ दलितों के आत्मसम्मान की लड़ाई को एक नयी दिशा दी।










इस साल जब लोग नये साल का जश्न आदतन मना रहे होंगे तो समाज का एक हिस्सा 1 जनवरी को एक ऐसी घटना की 200वीं बरसी मना रहा होगा जिसने दलितों के आत्मसम्मान की लड़ाई को एक नयी दिशा दी। 1 जनवरी 1818 को महाराष्ट्र में पूना के नजदीक ‘भीमा कोरेगांव’ में अंग्रेजों की फौज के साथ मिलकर लड़ते हुए महारों की 500 की सेना ने मराठा पेशवाओं की 20000 से भी ज्यादा की फौज को शिकस्त देते हुए उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया था। बाद में 1851 में इस युद्ध में मारे गये सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने यहां एक ‘स्तम्भ’ का निर्माण करवाया जिसके ऊपर ज्यादातर महार सैनिकों के ही नाम खुदे हैं। ‘मुख्यधारा’ का इतिहास आज भी इस महत्वपूर्ण घटना की ओर आंखे मूंदे हुए है।
1 जनवरी 1927 को डाॅ अम्बेडकर ने यहां अपने साथियों के साथ आकर उन महार सैनिकों को याद किया जिन्होंने भयंकर जातिवादी और प्रतिक्रियावादी पेशवाओं की सेना को शिकस्त देते हुए कई सारे जातिगत मिथकों को तोड़ डाला था और दलितों के आत्म सम्मान को ऊंचा उठाया था। (शायद यहीं से प्रेरणा लेते हुए डाॅ अम्बेडकर ने 1926 में ‘समता सैनिक दल’ की स्थापना की थी) तब से हर साल यहां लाखों की भीड़ उमड़ती है और दलित आन्दोलन व जनवाद की लड़ाई से जुड़े लोग यहां आकर अनेकों कार्यक्रम पेश करते हैं और जाति व्यवस्था के खात्मे की शपथ लेते हैं।
महारों की सेना द्वारा पेशवाओं की सेना पर इस विजय के महत्व को हम तभी अच्छी तरह समझ सकते है जब हम पेशवाओं के राज्य में महारों की क्या स्थिति थी यह जाने। पेशवाओं के राज्य में महारों को सार्वजनिक स्थलों पर निकलने से पहले अनिवार्य रुप से अपने गले में घड़ा और कमर में पीछे झाड़ू बांधनी पड़ती थी। जिससे उनके पैरों के निशान खुद ब खुद मिटते रहें और उनकी थूक सार्वजनिक स्थलों पर ना गिरे ताकि सार्वजनिक स्थल ‘अपवित्र’ ना हो। अपनी इसी स्थिति के कारण महारों के दिलो-दिमाग में ब्राहमणों और तथाकथित ऊची जातियों के प्रति सदियों से जो नफरत बैठी होगी, उसी नफरत ने उन्हें वह ताकत दी जिससे वे अपने से संख्या में कहीं ज्यादा पेशवाओं की सेना को वापस भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध ने वर्णव्यवस्था के उस मिथक को भी चूर चूर कर दिया कि एक ही जाति में लड़ने की काबिलियत है।
सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त ‘इतिहासकारों’ ने इस घटना को नजरअंदाज किया, यह बात तो समझ आती है, लेकिन ‘मार्क्सवादी’ कहे जाने वाले इतिहासकारों ने भी इसे क्यो नजरअंदाज किया,इसे समझने की जरुरत है।
‘मुख्यधारा’ के इतिहासकारों के अनुसार महारों ने भीमा कोरेगांव की यह लड़ाई अग्रेजों के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ मिलकर लड़ी थी तो इतिहास में इसे प्रगतिशील कदम कैसे कहा जा सकता है। अपने इसी रुख के कारण आजादी के आन्दोलन के दौरान डाॅ अम्बेडकर की भूमिका पर भी उन्होंने (विशेषकर ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों ने) प्रश्न चिन्ह खड़े किये। मुख्य धारा के वाम में अन्दरुनी हलकों में तो उन्हें अंग्रेजों का दलाल तक माना जाता रहा है।
इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर लौटने से पहले चलिए विश्व इतिहास की कुछ अन्य इससे मिलती जुलती घटना पर एक नज़र डाल लेते हैं।
भीमा कोरेगांव की घटना के ठीक 42 साल पहले 4 जुलाई 1776 को अमेरिका, इंग्लैंड के खिलाफ लड़कर स्वतंत्र हुआ। ‘जार्ज वाशिंगटन’ और ‘जेफरसन’ के नेतृत्व में लड़े गये इस ‘अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम’ में वहां के काले गुलाम अफ्रीकी लोग और वहां के मूल निवासी किसके पक्ष में लड़े थे? आपको शायद आश्चर्य हो लेकिन यह सच है कि इनका अधिकांश हिस्सा इंग्लैंड के पक्ष में जार्ज वाशिंगटन की सेना के खिलाफ लड़ रहा था। 4 जुलाई 1776 के बाद का इतिहास यह दिखाता है कि उनका निर्णय सही था। क्योकि इसी दिन घोषित तौर पर दुनिया का पहला नस्ल-भेदी देश अस्तित्व में आया, जहां स्वतंत्रता सिर्फ गोरे लोगेां के लिए थी और काले लोगो के लिए गुलामी करना नियम था। (‘स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी’ काले लोगों की गुलामी से जगमगा रही थी।) स्वयं जार्ज वाशिंगटन और जेफरसन के पास सैकड़ों की संख्या में काले गुलाम उनकी निजी सम्पत्ति के रुप में मौजूद थे। 2014 में अमरीका के मशहूर इतिहासकार ‘गेराल्ड होने’ (Gerald Horne) ने इसी विषय पर एक विचारोत्तेजक किताब लिखी- The Counter-Revolution of 1776। इसमें उन्होंने विस्तार से अमरीकी स्वतंत्रता सग्राम के दौरान वहां के काले गुलामों और गोरे अमरीकियों के बीच के ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों’ की चर्चा की, जिससे वहां के मुख्यधारा के गोरे इतिहासकार नज़र चुराते रहे हैं।
इसे एक रुपक मानकर यदि हम इसे तत्कालीन भारत पर लागू करे तो कुछ आश्चर्यजनक समानताएं दिखती हैं। यहां के दलितों (विशेषकर ‘अछूतों’) का ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ यहां के ब्राहमणवादी उच्च वर्ण के साथ होगा या बाहर से आये उन अंग्रेजों के प्रति होगा जो कम से कम छूआछूत का प्रयोग तो नहीं ही करते थे, और जिन्होेंने शिवाजी के बाद पहली बार महारों को अपनी सेना में प्रवेश दिया। इतिहास कुछ सेट फार्मूलों से नहीं बल्कि अपने वस्तुगत अन्तरविरोधों से आगे बढ़ता है। ‘देशी’ पेशवाआंे और ‘बाहरी’ अंग्रेजों के बीच लड़ाई में वे किस तर्क से पेशवाओं का साथ देते?
इसे और बेहतर तरीके से समझने के लिए इतिहास की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना को ले लेते हैं। 410 ईसवी में जब जर्मन कबीलों ने रोम पर भयानक हमला बोला तो रोम के गुलामों ने क्या अपने दास स्वामियों का साथ दिया। नहीं! उन्होंने जर्मन कबीलों के साथ मिलकर रोम की नींव हिला दी। क्या यह रोम के साथ गुलामों की गद्दारी थी? इसे आप खुद ही तय कर लीजिए। इस वक्त गुलामों की क्या स्थिति थी, इसे जानने के लिए हावर्ड फास्ट की मशहूर कृति ‘स्पार्टकस’ पढ़ा जा सकता है।
1688 की ‘गौरवपूर्ण क्रान्ति’ ने गुलामों के व्यापार को अंग्रेज व्यापारियों के लिए मुक्त कर दिया। इसके पहले गुलाम व्यापार पर सिर्फ राजा का अधिकार होता था और यह सीमित था। इसके फलस्वरुप अफ्रीका से गुलामों का व्यापार सैकड़ों गुना बढ़ गया और उन्हें जहाजों में ठूस ठूस कर अटलान्टिक सागर के दोनों ओर गुलामी के लिए भेजा जाने लगा। उन गुलामों की नज़र से देखिये तो उनके लिए इस ‘गौरवपूर्ण क्रान्ति’ में गौरवपूर्ण क्या था?
पुनः भारत पर लौटते हैं। यहां जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म का अनिवार्य हिस्सा है। दरअसल उस अर्थ में हिन्दू धर्म, धर्म भी नहीं है जिस अर्थ में ईसाई या मुस्लिम धर्म हैं। इसमें ना कोई एक ईश्वर है ना बाइबिल या कुरान की तरह कोई एक किताब है। और जैसा कि अम्बेडकर इसे सटीक तरीके से बताते है कि हिन्दू धर्म में एक ही चीज ऐसी है जो सभी हिन्दुओं को आपस में बांधती है, और वह है उसकी जाति व्यवस्था। जिसे सभी हिन्दू अनिवार्य रुप से मानते हैं। इस जाति व्यवस्था में सबसे निचली पायदान पर हैं ‘अछूत’, शेष जातियां जिनकी छाया से भी बचती हैं। वर्ण व्यवस्था से भी ये बाहर हैं। हिन्दू मन्दिरों और हिन्दू अनुष्ठानों में इनका प्रवेश वर्जित है। इस रुप में यह दुनिया का पहला और निश्चित रुप से आखरी धर्म है जो अपने ही एक समुदाय की ईश्वर तक पहुंच को सचेत तरीके से रोक देता है। ज्योति बा फुले की शिष्या ‘मुक्ता साल्वे’ ने 1855 में लिखे अपने एक लेख में इस तर्क को बहुत असरदार तरीके से रखा है-‘यदि वेद पर सिर्फ ब्राहमणों का अधिकार है, तब यह साफ है कि वेद हमारी किताब नहीं है। हमारी कोई किताब नहीं है-हमारा कोई धर्म नहीं है। यदि वेद सिर्फ ब्राहमणों के लिए है तो हम कतई बाध्य नहीं हैं कि हम वेदों के हिसाब से चले। यदि वेदों की तरफ महज देखने भर से हमें भयानक पाप लगता है (जैसा कि ब्राहमण कहते हैं) तब क्या इसका अनुसरण करना हद दर्जे की मूर्खता नहीं है? मुसलमान कुरान के हिसाब से अपना जीवन जीते हैं, अंग्रेज बाइबिल का अनुसरण करते हैं और ब्राहमणों के पास उनके वेद हैं। चूंकि उनके पास अपना अच्छा या बुरा धर्म है, इसलिए वे लोग हमारी तुलना में कुछ हद तक खुश हैं। हमारे पास तो अपना धर्म ही नहीं है।’ हे भगवान! कृपया हमें बताइये कि हमारा धर्म क्या है?’
इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए डाॅ अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को अमानवीय धर्म कहा है।
यदि हम इसकी तुलना ईसाई धर्म या मुस्लिम धर्म से करते है तो पाते हैं कि वे जहां भी जाते थे, वहां के निवासियों को अपने धर्म से जोड़ने का प्रयास करते थे। अपने सभी धार्मिक अनुष्ठानों, अपने पूजा स्थलों में उन्हें शामिल करते थे और अपने ईश्वर के साथ उनका नाता जोड़ते थे। हालांकि यह कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें उनके अपने राजनीतिक व आर्थिक हित जुड़े होते थे (इस प्रक्रिया को क्यूबा में 1975 में बनी मशहूर फिल्म ‘दि लास्ट सपर’ में बहुत शानदार तरीके से दिखाया गया है)। लेकिन इसके बावजूद हिन्दू धर्म से उनका रणनीतिक अन्तर बहुत साफ है।
यदि हम ‘अछूतों’ की आर्थिक हैसियत की बात करें तो यह बात साफ है कि उनके पास अपनी व्यक्तिगत चीजों के अलावा कोई सम्पत्ति नहीं होती थी। वास्तव में ‘अछूतों’ के लिए सम्पत्ति रखना धार्मिक तौर पर मना था।
यानी हिन्दू धर्म में ही ऐसा सम्भव है जहां समाज के एक समुदाय ‘अछूत’ को ना सिर्फ आर्थिक तौर पर गरीब रखा जाता है वरन् धर्म व ईश्वर से वंचित रखकर उसकी ‘आध्यात्मिक सम्पत्ति’ भी छीन ली जाती है।
धर्म पर इतनी बात इसलिए जरुरी है क्योकि हम समाज में मौजूद वर्गीय अन्तरविरोधों को तो पकड़ लेते हैं, लेकिन धर्म के अन्दर या धर्म के आवरण में मौजूद अन्तरविरोधों को नहीं देख पाते या उसे नजरअंदाज कर देते है। जाति उन्मूलन पर लिखे अपने क्रान्तिकारी दस्तावेज ‘जातिभेद का उच्छेद’ में अम्बेडकर हिन्दू धर्म की तमाम कुटिलताओं-शब्दाडम्बरों को भेदकर उसके भीतर या उसके आवरण में मौजूद उस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध को सामने लाते है जिस पर अब तक पर्दा पड़ा हुआ था। इस अति महत्वपूर्ण किताब के माध्यम से अम्बेडकर ने समूचे दलित समुदाय को हिन्दू धर्म से बाहर खींचकर उन्हें मानसिक गुलामी से आजाद कर दिया और उन्हें स्वतंत्र वैचारिक जमीन मुहैया करायी, जिस पर भावी दलित आन्दोलन की नींव रखी जानी थी। इसी किताब में निष्कर्ष के रुप में अम्बेडकर ने यह साफ कर दिया कि इस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध (अम्बेडकर ने ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन उनका मतलब यही है।) को बनाये रखते हुए समाज का जनवादीकरण करना या/और राष्ट्र निमार्ण करना असम्भव है। डाॅ अम्बेडकर के शब्दो में-‘जातिप्रथा की नींव पर किसी भी प्रकार का निर्माण संभव नही है।’ इसीलिए काग्रेस द्वारा चलाये जा रहे ‘आजादी’ के आन्दोलन को वे उचित ही शक की निगाह से देख रहे थे। उन्होंने साफ साफ कहा-‘प्रत्येक कांग्रेसी को जो बराबरी का यह सिद्धान्त बार बार दुहराता है कि एक देश को दूसरे देश पर राज करने का अधिकार नहीं है, उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर राज करने के योग्य नहीं है।’ कांग्रेस और गांधी को राष्ट्रीय आन्दोलन का पर्याय बताने वाले इतिहासकार यह बताना भूल जाते हैं कि गांधी आजीवन वर्णव्यवस्था और प्रकारान्तर से जाति व्यवस्था के समर्थक बने रहे। यही कारण है कि गांधी ने खुलेआम ऐलान किया कि अम्बेडकर हिन्दुत्व के लिए चुनौती हैं। दरअसल कांग्रेस में तिलक के आने के बाद से ही कांग्रेसी नेतृत्व निरन्तर रुढि़वादी और साम्प्रदायिक होता गया है। ‘पंडित’नेहरु इसके अपवाद नहीं वरन इस पर पड़ा वह झीना पर्दा था जो अक्सर ही फट जाया करता था और कांग्रेस का असली चेहरा सामने आ जाया करता था। इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए कि आज हम जिस फासीवाद को अपने नंगे रुप में देख रहे हैं, उसका कितना सम्बन्ध आजादी के आन्दोलन के दौरान और उसके बाद के कांग्रेस और उसके नेतृत्व से रहा है। खैर इस पर चर्चा फिर कभी। अन्त में-देखिये, नामदेव धसाल की एक शानदार कविता-
सूरज की ओर पीठ किये, वे शताब्दियों तक यात्रा करते रहे,
अब-अब, अंधियारे की ओर यह यात्रा हमें बन्द करनी चाहिए,
और यह कि इस अंधेरे को ढोते ढोते हमारे पिता अब झुक गये हैं,
अब-अब, हमें उस बोझ को उनकी पीठ से हटाना होगा,
इस वैभवशाली शहर को बनाने में हमारा खून बहा है,
इसके बदले में हमें केवल पत्थर खाने को मिले हैं,
अब-अब, इस गगनचुम्बी इमारत को हमें उड़ाना होगा,
हजारों सालों के बाद हमें एक सूरजमुखी फूल देने वाला फकीर मिला है,
अब-अब, सूरजमुखी के फूल की तरह हमें अपना चेहरा,
सूरज की ओर कर लेना चाहिए।

-कृति संसार से  साभार