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Tuesday, August 9, 2016

ब्राहम्णवादी हिन्दू फासीवाद मुर्दाबाद !

ब्राहम्णवादी हिन्दू फासीवाद मुर्दाबाद !                                         छूआछूत - जाति व्यवस्था को ध्वस्त करों!

“हिन्दू धर्म मूलतः जाति व्यवस्था और उससे जुड़ा कानून है। इस व्यवस्था को खत्म करने के लिए श्रुतियों और स्मृतियों का नाश करना होगा। अछूतों के लिए हिन्दू धर्म अथाह उत्पीडन का केन्द्र है और ऐसे गैरबराबरी वाले धर्म को हमें लात मार देनी चाहिए।” - डाॅः भीमराव आम्बेडकर 




साथियों,
          अभी गुजरात में एक ऐतिहासिक घटना चल रही हैैं। हजारों-हजार दलित और मुसलमान अहमदाबाद से ऊना तक 350 किलोमीटर तक “आजादी रैली” निकाल रहे है। गुजरात की गली-गली, गांव-गांव और बस्ती-बस्ती -ब्राहाम्णवाद मुर्दाबाद! जतिवाद हो बर्बाद! मोदी, भाजपा तुम शर्म करो! स्ंाघी गुन्डों को जेल करो! इन्क़ालाब जिन्दाबाद! के नारो से गूॅंज रही हैं। हैरान मत होइए कि इसकी खबर अभी तक आपको नही मिली । आप तो जानते ही हैं कि ब्राहाम्णवादी मीडिया अमीरों की जेब में हैं और सत्ता की चापलूसी करती हैं । जनता की समस्याओं और अन्दोलनों से उसे कोई मतलब नही हैं। 
जब से केंद्र में भाजपा की सरकार, विकास का नारा देकर, हमें मूर्ख बनाकर सत्ता में आयी है। महंगाई आसमान छू रही हैं और बेरोजगारी इनके ”मेक इन इन्डिया” और ”स्किल इन्डिया” के जुमलों से कम होती नजर नही आ रही हैं। अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, वही कड़ी मेहनत के बावजूद जनता को जीने के लिए रोज संघर्ष करना पड़ रहा हैं। जनता की आर्थिक जरूरतों को पूरा करनेे में असफल भाजपा सरकार जनता को सामाजिक बराबरी और न्याय भी देना नही चाहती। रोहित वेमुला के हत्यारे आज भी आजाद हैं वही उनके लिए अन्दोलन कर रहे छात्रों को पुलिस कभी मारती हैं तो कभी जेल में बंद कर देती हैं। संघ द्वारा संचालित ये सरकार, कभी भारत मां, कभी गौरक्षा, तो कभी हिन्दू राज के नाम पर जनता पर ब्राहम्णवादी संस्कृति को थोप रही  हैं| खास तौर पर दलितों, मुसलमानों और महिलाओं के लिए हिन्दू राज में सिवाय बेइज़्ज़ती,गुलामी और मौत के अलावा कुछ नही हैं|
हाल ही में भारत के कई राज्यों में गौमांस रखना और खाना संवैधानिक तौर से गैरकानूनी कर दिया गया। तब से दलितों और मुसलमानों पर भारत के राज्यों में गौरक्षा और धर्मरक्षा के नाम पर कई हिंसक हमले हुए, जैसे दादरी में अखलाक को पीट- पीट कर मार देना, फरीदाबाद में दो मुसलमान ट्रक ड्राइवरों को जबरदस्ती गोबर खिलाना, लातेहार में दो मुस्लिम नवयुवको को पेड से लटकाकर मार देना। इस ब्राहम्णवादी व्यवस्था के संरक्षण में गौरक्षा के नाम पर कई कट्टर हिन्दूत्ववादी संगठनों जैसे कि गौरक्षक दल को सरकार और संघ द्वारा ईनाम भी दिए जाते रहे, खासतौर पर गुजरात में। इन सब हमलों के बावजूद सरकारे चुप रही, पुलिस खड़ी तमासा देखती रही, प्रशासन और कोर्ट ने तो कई घटनाओं में गौमांस रखने के आरोप में पिटानेवाले वाले दलितों और मुसलमानों पर ही मुकदमा चला दिया और मीडिया खामोश रहा। मानों कि पूरा तंत्र विकास के एजेन्डे को छोड़ ब्राहम्णवाद और हिन्दूराज को स्थापित करने के लिए दलितों और मुसलमानों को निसाना बना रहा हों।गौरतलब है की गौरक्षा के नाम पर इतना बवाल करने के वाबजूद भी भारत दुनिया में गाय मांश के निर्यात में पहले स्थान पर है |निर्यात करने वाली टॉप की छह कंपनियों में दो ब्राह्मणनो और बाकी बनियों की है |वही चमड़े और मांस का काम, करने वाले दलितों और मुसलमानो के छोटे उद्योगों पर हमला कर उन्हें बंद करवाया जा रहा है| 




जनता का दुःख डर में बदल गया और  देशभर में आंतक का माहौल छा गया। देश की लोकतांत्रिक और प्रगतिशील आवाजे डर के मारे चुप रही । पर कहते हैं न कि एक चिंगारी पूरे जंगल में आग लगा सकती हैं। जनता का यही डर गुस्से में बदल रहा था जो 11 जुलाई की ऊना की घटना से विस्फोट के रूप में आज गुजरात में ब्राहम्णवाद मुर्दाबाद और इंकलाब जिंदाबाद के नारों के रूप में गूॅज रहा हैं।11 जुलाई, ऊना के पास के एक गांव में, कुछ दलित मरी हुई गाय का चमड़ा निकाल रहे थे| तब गौरक्षक दल के लोगों ने उन दलितों पर बर्बर हमला किया| उन में से चार को अगवा कर शहर ले आये, उन्हे आधा-नंगा कर, गाड़ी से बांध कर, लाठी और डन्डो से मारते हुए, गाली देते हुए,पूरे शहर की भीड़- भाड़ भरी सड़कों पर, पुलिस और प्रशासन के सामने घुमाया। इस घटना के विरोध में  दलितों ने मरी हुई  गायों को जिलाधिकारी कार्यालय, पुलिस परिसर और संध कार्यालय  के सामने फेंका और कहा सवर्णों अपनी मां को तुम ही संभालों।हजारो दलितों ने  गंदे पेशे ना करने की शपत ली और अपनी सुरक्षा के लिए हाथियार रखने की राज्य सरकार से मांग की|
यूपी चुनाव को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी अच्छे और बुरे गौरक्षक दल की बात करते हैं। अपने भाषण में दलितों का हितैसी कहते है पर हमें यह नही भूलना चाहिए कि यही सरकार के नेता, दलितों को कुत्ता, नीच और रड्डी कहते हैं| ये वही सरकार हैं जिसकी मनु स्मृति इरानी ने संसद में रोहित वेमुला की घटना पर ऐलान किया था कि अगर वह गलत हैं तो अपना सर कटवा देगी, पर आज हाल यह कि उसे मंत्रालय छोडना पड़ा। कांग्रेस, आप और अन्य चुनावबाज पार्टियां जो पहले चुप थी, आज अन्दोलन को देखकर अपना सर्मथन दे रहें हैं। साथियों हकिकत ये हैं कि ये सत्ता के लिए दलितों और मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखते हैं, मानुष नहीं। कांशीराम जी द्वारा स्थापित बसपा भी आज अपने 12%  ब्राहम्ण वोट को बचाने के लिए इस अन्दोलन की गूॅज को यूपी में नही आने दे रही। इस तरह गुजरात के इस अन्दोलन को, देश भर में दलित मूक्ति का अन्दोलन बनने से रोक कर, बसपा सत्ता के लिए बाबा साहब आंबेडकर और दलित जनता से ऐतिहासिक गद्दारी कर रही हैं। 
आज के इस ऐतिहासिक क्षण में देश भर की उत्पीड़ित जातियां और शोषित वर्गो को संगठित होकर इस साम्राज्वादी ब्राहम्णवादी व्यवस्था के विरूद अन्दोलन खड़ा करना चाहिए। देश की प्रगतिशील शक्तियों जैसे कि छात्रों और बुध्दिजीवीओं को इस साम्राज्वादी ब्राहम्णवादी व्यवस्था को समझकर जनता के सामने लाना चाहिए और जनता के अन्दोलनों में शामिल होकर देश में जाति व्यवस्था  और ब्राहम्णवाद के खिलाफ युध्द छेड़ देना चाहिए| दलितों को अपने  इतिहास में की हुुई गलतियों से सीखकर चुनावी पार्टियों की तरह सत्ताखोर होने की बजाय, जाति उन्मूलन और आर्थिक समानता के संघर्ष को आगे रखते हुए, संसाधनों और सत्ता पर कब्जा करना चाहिए। दलितों, मुसलमानों और महिलाओं को अपने स्वाभिमान, इज्जत, आजादी और रोजी रोटी की लड़ाई के लिए साथ जुड़कर शक्तिशाली सयुक्त मोर्चे के रूप में खड़े होकर, साम्राज्वादी ब्राहम्णवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकना चाहिए। तभी बाबा साहेब आंबेडकर के सपनो का आर्थिक समानता, सामाजिक बराबरी और न्यायपूर्ण व्यवस्था वाला समाज लाया  जा सकता हैं। 
अछुतों तुम सोये हुए शेर हो। उठों, तुम ही इस देश के असली सर्वहारा हो। सामाजिक आंदोलनों से राजनितिक और आर्थिक क्रांति शुरू कर दो| क्रांति के झन्डे को थामकर, क्रांति को बुलन्द करों।”- शहीद भगत सिंह

Friday, August 5, 2016

हूल आज भी जारी है और जारी भी रहेगी



30 जून 1855 को प्रारंभ हुआ भारत में प्रथम सशस्त्र जनसंघर्ष, जो बाद में चलकर प्रथम छापामार युद्ध भी बना, 26 जुलाई 1855 को संथाल हूल के सृजनकर्ताओं में से प्रमुख व तत्कालीन संथाल राज के राजा सिद्धू और उनके सलाहकार व उनके सहोदर भाई कान्हू को वर्तमान झारखंड के साहबगंज जिला के भगनाडीह ग्राम में खुलेआम अंग्रेजों ने पेड़ पर लटकाकर यानी फांसी देकर हत्या करके भले ही ‘संथाल हूल’ को खत्म मान रहा था लेकिन हर तरह के शोषण के खिलाफ जल-जंगल-जमीन की रक्षा व समानता पर आधारित समाज बनाने के लिए सिद्धू-कान्हू, चांद-भैरव, फूलो-झानो के द्वारा शुरू किया गया हूल आज भी जारी है। यह हूल तब तक जारी रहेगी जबतक कि वास्तविक में समानता पर आधारित समाज की स्थापना न हो जाए।

संथाल हूल की पृष्ठभूमि-

30 जून 1855 को प्रारंभ किया गया ‘संथाल हूल’ कोई अकस्मात् घटना नहीं थी। वर्तमान संथाल परगना के जिन क्षेत्रों में उस समय हूल की चिन्गारी ने दावानल का रूप अख्तियार किया था, उन सभी क्षेत्रों पर एक समय में पहाड़िया आदिवासी का कब्जा था और पहाड़ियों को वश में करना अंग्रेजों के बूते के बाहर था। लगभग 1780 ई0 तक राजमहल की पहाड़ियों के मालिक पहाड़िया ही थे।वे जंगल की उपज से गुजर बसर करते थे और झूम की खेती किया करते थे। वे जंगल के छोटे से हिस्से में झाड़ियों को काटकर और घास -फूस जलाकर जंमीन साफ कर लेते थे और अपने खाने के लिए तरह-तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगा लेते थे। वे अपने कुदाल से जमीन को थोड़ा खुरच लेते थे। कुछ वर्षों तक उस साफ की गई जमीन पर खेती करते थे और उसे कुछ वर्षों के लिए परती छोड़कर नए इलाके में चले जाते थे, जिससे की उस जमीन में खोई हुई उर्वरता फिर से उत्पन्न हो जाती थी। उन जंगलों से पहाड़िया लोग खाने के लिए महुआ के फूल इकठ्ठा करते थे, बेचने के लिए रेशम के कोया और राल व काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियां इकठ्ठा करते थे। जानवरों का शिकार करना तो तो प्रमुख था ही। वे बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। उनके मुखिया लोग अपने समूह में एकता बनाए रखते थे व आपसी लड़ाई-झगड़े निपटाते थे।
अंग्रेजों की नजर जब इन इलाकों पर पड़ी तो इस आजाद कौम को गुलाम करने के लिए वो मचल पड़े क्योंकि पहाड़ियों ने कई बार अंग्रेजों के तलवाचाटू जमींदारों को लूट लिया था और जमींदारों को मजबूरन पहाड़िया मुखियाओं को रसद पहुंचाना पड़ता था। अंग्रेजों से पहाड़ियों का टकराव का एक कारण और भी था कि जहां पहाड़िया जंगल-पहाड़ों को भगवान की तरह पूजते थे वहीं अंग्रेज जंगलों को उजाड़ मानते थे। अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई के काम को प्रोत्साहित किया और जमींदारां-जोतदारों ने परती भूमि के धान के खेत में बदल दिया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों व जमींदारों के साथ पहाड़ियों का टकराव शुरू हो गया लेकिन जंगल पहाड़ के पुत्रों-पुत्रियों यानी की पहाड़ियों ने अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी लेकिन आधुनिक हथियारों के सामने वे ज्यादा देर तक टिक नहीं पाये और काफी संख्या में पहाड़िया 1780 के दशक में हुए लड़ाई में शहीद हो गये। तब पहाड़िया लोग अपने  आप को बचाने व बाहरी लोगों से लड़ाई चालू रखने के लिए पहाड़ों के भीतरी भागों में चले गए।
1780 के दशक के आसपास से ही संथालों को जमींदार लोग खेती के लिए नयी भूमि तैयार करने और खेती का विस्तार करने के लिए भाड़े पर रखना शुरू किया। इनके साथ ही संथालों को धीरे धीरे राजमहल की तलहटी में बसने के लिए तैयार कर लिया गया। 1832 तक जमीन के एक काफी बड़े इलाके को दामिन-इ-कोह के रूप में सीमांकित कर दिया गया। सीमांकन के बाद संथालों की बस्तियां काफी तेजी से बढ़ी। संथालों के गांव की संख्या जो 1838 में 40 थी बढ़कर 1851 तक 1473 तक पहुंच गयी और जनसंख्या 3 हजार से बढ़कर 82 हजार हो गयी। संथालों ने जिस जमीन को हाड़तोड़ मेहनत के जरिये साफ करके खेती शुरू की थी, धीरे-धीरे उसपर अंग्रेजों ने भारी कर लगा दिया। साहूकार और महाजन लोग उंची दर पर ब्याज लगा रहे थे और कर्ज अदा न किये जाने की सूरत में जमीन पर ही कब्जा कर रहे थे और जमींदार लोग दामिन इलाके पर अपने नियंत्रण का दावा कर रहे थे। अंग्रेज हुकूमत के अनुसार संथालों से 1836-37 में जहां मालगुजारी के रूप में 2617 रू0 वसूली किया जाता था वहीं 1854-55 में उनसे 58033 रू0 वसूल किये जाने लगे थे। मालगुजारी वसूल करने के लिए आने वाले सिपाही भी संथालों से काफी बुरा सलूक करते थे। फलस्वरूप 1850 के दशक तक संथाल लोग यह महसूस करने लगे थे कि अपने लिए एक आदर्श संसार का निर्माण करने के लिए जहां उनका अपना शासन हो, जमींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक राज के विरूद्ध विद्रोह करने का समय आ गया है।

प्रथम सशस्त्र जनसंघर्ष ‘संथाल हूल’-

वर्तमान झारखंड राज्य के साहबगंज जिलान्तर्गत भगनाडीह ग्राम के ग्राम प्रधान चुन्नी मांझी के पुत्र सिद्धू के स्वप्न में बोंगा, जिनके हाथों में 20 अंगुलियां थी, ने बताया कि ‘‘जमींदार, महाजन, पुलिस और राजदेन आमला को गुजुक माड़’’ अर्थात् ‘‘जमींदार, पुलिस और सरकारी अमलों का नाश हो’’। यही वह समय था यानी 1855, जब संथाल आदिवासी ही नहीं बल्कि सभी लोग अंग्रेजों के शोषण तले कराह रहे थे और संथालों का तो जमींदार महाजन, जुल्मी सिपाही और सरकारी अमलो ने तो जीना दुभर कर दिया था। सिद्धू के स्वप्न में कही गयी बोंगा की बात जंगल में आग की तरह चारों तरफ फैलने लगी और इस समय को संथाल आदिवासियों ने हूल यानी विद्रोह के लिए उपयुक्त समझा ताकि अपना यानी संथाल राज स्थापित किया जा सके। फलस्वरूप साल वृक्ष की टहनी के जरिये  व डुगडुगी बजाकर संथाल गांवों में 30 जून 1855 को भगनाडीह गांव में एकत्रित होने के लिए आमंत्रण भेजा जाने लगा। इसकी खबर मिलते ही अंग्रेजों ने सिद्धू के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया। ठीक 30 जून को भगनाडीह में 400 गांवों के 50 हजार परंपरागत हथियारों से लैस संथाल एकत्रित हुए और अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर लिया। इस सभा में सिद्धू को संथाल राज का राजा ,कान्हू को उनका सहायक व राजा की भी उपाधि, चांद को प्रशासक व भैरव को सेनापति बनाया गया। सिद्धू ने घोषणा किया कि ‘‘अब हम स्वतंत्र है। हमारे उपर अब कोई सरकार नहीं है। इसलिए न कोई हाकिम है न कोई थानेदार। अब अपना और सिर्फ अपना संथाल राज स्थापित हो गया है।’’ उन्होने कहा- ‘‘करो या मरो, अग्रेजों हमारी माटी छोड़ो।’’ उनकी इस घोषणा को सुनते ही अंग्रेज बौखला गये और सिद्धू व कान्हू को गिरफ्तार करने गए दरोगा की गला काट कर हत्या कर देने के बाद तो अंग्रेज संथालो के खून के प्यासे ही हो गये।संथालो के 30 जून को ही यह भी घोषणा कर दी गयी कि अब हम अंग्रेजों को मालगुजारी नहीं देंगें। इसके बाद तो मानो भूचाल ही आ गया। जमींदारों, महाजनों, सिपाहियों व सरकारी कर्मचारियों को गांवों से खदेड़ दिया गया। परंपरागत हथियारों से लैस संथाल सेना गांव-गांव घूमने लगी। इधर अंग्रेजों ने भी क्षेत्र में सेना बुला ली, मार्शल लॉ लगा दिया गया। फिर भी संथालों ने बड़ी ही बहादूरी के साथ अंग्रेजी सेना के आधुनिक हथियारों से अपने तीर-धनुष व परंपरागत हथियारों से मुकाबला किया। अंग्रेजों ने बड़ी ही नृशंसतापूर्वक संथाल महिलाओं-बच्चों व वृद्धों का कत्लेआम किया। गांव के गांव जला दिये गये। उनकी सारी संपत्ति बर्बाद कर दी गयी। फिर भी संथाल अपने नेता चारों सहोदर भाईयों सिद्धू-कान्हू-चांद-भैरव व जुड़वा बहनों फूलो व झानो के नेतृत्व में वीरतापूर्वक लड़ते रहे। 10 जुलाई को बहराईच की लड़ाई में चांद व भैरव शहीद हो गये। फिर भी संथालों का हूल जारी रहा लेकिन कुछ अपनों के ही गद्दारी के कारण अंततः सिद्धू व कान्हू को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और 26 जुलाई को उनके ही ग्राम भगनाडीह में पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी और अन्ततः सिद्धू-कान्हू ने वीरतापूर्ण शहादत का वरण किया। अंग्रेजो ने सोचा था कि उनके हत्या के बाद संथाल हूल खत्म हो जाएगा। लेकिन इनके फांसी के बाद भी कई महीनों तक संथाल सेना अंग्रेजों से अपने खून के अंतिम बूंद तक लड़ती रही। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने अपने किताब ‘‘एनल्स ऑफ रूलर बंगाल’’ में लिखा है कि ‘‘संथालो को आत्मसमर्पण की जानकारी नही थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे। अंग्रेजां का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिंदा न हो।’’ अंग्रेजी दस्तावेज के अनुसार ही संथाल हूल में लगभग 20 हजार संथालों ने शहादत का वरण किया। वैसे इस हूल में संथालों की सर्वाधिक भूमिका थी लेकिन इनमें अन्य जातियों की भागीदारी से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। 28 जुलाई 1855 को भागलपुर कमिश्नर ने अपने पत्र में वायसराय को लिखा कि ‘‘संथाल विद्रोह में लोहार, चमार, ग्वाला, तेली, डोम आदि ने सिद्धू को सक्रिय सहयोग दिया था।’’ विद्रोह के बाद सजा पाने वालों की कुल संख्या 251 थी, वे 54 गांवों के निवास थे, उनमें 191 संथाल, 34 नापित, 5 डोम, 6 घांघर , 7 कोल, 6 भुईयां व एक रजवार थे। ये यही दर्शाता है कि ्रइन सभी ने संथाल विद्रोह में ही अपनी मुक्ति देखी थी।

वर्तमान में हूल दिवस के मायने-

आज से 116 वर्ष पहले जिन सपने के खातिर संथाल हूल की घोषणा हुई थी, क्या वे सपने पूरे हो गये? यह सवाल तो उठना लाजमी ही है क्योंकि जिन जमींदार, महाजन, पुलिस व सरकारी कर्मचारी के नाश के लिए संथाल हूल हुआ था, आज वही ताकतें ‘हूल दिवस’ मना रही है। झारखंड अलग हुये लगभग 16 वर्ष होने को है, राज्य ने संथाल मुख्यमंत्री भी देखा, कई संथाल सांसद भी देखे और आज गैरआदिवासी मुख्यमंत्री भी हूल दिवस पर सिद्धू-कान्हू-चांद-भैरव-फूलो-झानो सपनों का समाज बनाने की बात कह रही है। क्या वास्तव में ये इनके सपनों का समाज बनाना चाहते हैं? क्या जंगलों की अंधाधुंध कटाई, पहाड़ों को पूंजिपतियों के पास बेचकर, आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन को जबरन छीनकर, उन्हें लाखों की संख्या में विस्थापित कर अमर शहीद सिद्धू-कान्हू-चांद-भैरव-फूलो-झानो का सपना पूरा होगा? हूल दिवस के 161 वीं वर्षगांठ पर जरूर ये सुनिश्चित करना होगा कि जल जंगल जमीन को पूंजिपतियों के पास बेचकर संथाल हूल के शहीदों का सपना पूरा होगा या फिर जल जंगल जमीन को बचाने के लिए लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों के पक्ष में खड़े होकर? जिस तरह से सिद्धू-कान्हू को उनके ही कुछ लोगों ने दुश्मनों के हाथों पकड़वा दिया था, ठीक आज भी उसी तरह अपनी जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए लड रहे आदिवासियों को भी उनके ही कुछ तथाकथित अपने धोखा दे रहे हैं, लेकिन फिर भी झारखंड के जंगलों से लेकर पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट आंध्रप्रदेश आदि के जंगलों में उनका हूल जारी है और ये शोषणविहीन समाज की स्थापना तक जारी रहेगी।    

हम तो कलम के सिपाही हैं - वरवर राव (भाग-2

वरवर राव के साथ बातचीत (भाग-2)


नाटककार रामू रामानाथन द्वारा लिए जा रहे ‘विरसम’ के संस्थापक सदस्य वरवर राव के साक्षात्कार की दूसरी कड़ी में इस माओवादी विचारक और तेलुगु कवि ने अपने क्रांतिकारी जीवन के बारे में महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के जन-आन्दोलनों के बारे में क्रांतिकारी साहित्य के सृजन और प्रकाशन के बारे में और आन्दोलन ने किस तरह कुछ महान रचनाकारों को पैदा किया, इस पर बात की।
कवि बतौर क्रांतिकारी


रामू रमानाथनः इन सबके बीच में कवि वरवर राव के साथ क्या हो रहा है?
वरवर राव: मैं कविता और सामाजिक टिप्पणियों के साथ-साथ पत्रिकाओं में साहित्यिक समीक्षा भी लिख रहा हूँ। अच्छी बात है कि मुख्यधारा के तेलुगु दैनिक भी क्रांतिकारी लेखन प्रकाशित करते हैं।
रामू रामानाथन: 1985 से 1992 तक आपने कई बाधाओं और चुनौतियों का सामना किया।
वरवर राव: वस्तुतः तेलंगाना संघर्ष के लिए हमलोग 1969 से ही लगे हैं। यदि आपको याद हो, कोण्डापल्ली सीतारमैय्या ने इस आन्दोलन को शुरू किया जो कि वारंगल में उनके खुद के अनुभव पर आधारित था। असमान विकास और तेलंगाना की सरासर उपेक्षा को वे अपनी आँखों से देख रहे थे। जैसा कि आप जानते हैं, उस दौरान तेलंगाना हैदराबाद की निजामशाही का हिस्सा था। वे दिन निजाम के खिलाफ़ तेलंगाना के गौरवपूर्ण सशस्त्र-संघर्ष के दिन थे और निजाम को ब्रिटिश उपनिवेशिवादियों का समर्थन भी प्राप्त था। 1948 की सैन्य कार्यवाही के बाद हैदराबाद प्रांत को भारतीय संघ में जोड़ा गया। 1950 में प्रथम आम चुनावों के पश्चात् बहुमत प्राप्त कर सरकार स्थापित हुई। इसके साथ ही, तेलंगाना में मुल्की आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। 1956 में राज्य (प्रांत) के निर्माण के पश्चात् तेलंगाना के लिए ‘तेलंगाना क्षेत्रीय समिति’ के पर्यवेक्षण के अन्तर्गत कुछ निश्चित विशेष प्रावधान किए गए। परन्तु इन सभी का उल्ल्ंघन किया गया। अतः 1968-69 में छात्रों के द्वारा संचालित एक लड़ाकू पृथक सैन्य तेलंगान आन्दोलन उभरकर सामने आया। उसी दौरान श्रीकाकुलम का संघर्ष भी चल रहा था। सरकार ने इन दोनों आन्दोलनों के विरुद्ध दमनकारी नीतियाँ अपनायी। दोनों आन्दोलनों में पुलिस फायरिंग के दौरान 370 छात्र और नौजवान मारे गए। यदि आप पीछे देखें तो यह बिल्कुल स्वाभाविक थाा कि वे छात्र जो कि कोंडापल्ली सीतारम्मैय्या नेतृत्व में पृथक-तेलंगाना-आन्दोलन के साथ जुड़े हुए थे वे क्रांतिकारी आन्दोलना के साथ जुड़ गए। उनमें से कुछ आज भी आन्दोलन में हैं और कई शहीद हो गए जैसेकि किशन जी और नल्ला अदिरेड्डी (उर्फ श्याम)।
रामू रमानाथनः आपने महाराष्ट्र की बात की और कैसे वहाँ के बुद्धिजीवी, कलाकार और मध्यवर्ग ने बिल्कुल चुप्पी साध ली। भयमेव जयते के इस दौर में क्या हमारे लिए कोई प्रेरणा है?
वरवर राव: महाराष्ट्र की अपनी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आन्दोलनों की एक महान परंपरा रही है। नामदेव की तुलना कबीर और वेमना से की जा सकती है, जिन्होंने कई तरह के सामाजिक आन्दोलनों को उभारा। महात्मा ज्योतिबा फुले और डाॅ० भीमराव अम्बेडकर की पूरी दुनिया में एक विशिष्ट पहचान है। वे ऐसे दूरदर्शी हैं जिन्होंने शोषित एवं पीड़ित जन-समुदाय की सामाजिक एवं सांस्कृतिक मुक्ति के लिए कार्य किया है। महाराष्ट्र खासकर के बाम्बे शहर में मजदूर-वर्ग के आन्दोलनों का एक सशक्त इतिहास रहा है। लगभग सौ साल पहले, जब लोकमान्य तिलक को आजीवन कारावास दिया गया और उन्हें अण्डमान द्वीप भेज दिया गया, तो बाम्बे में एक विशाल मजदूर (श्रमिक) आन्दोलन चला। यह हमारे देश में श्रमिक-वर्ग के आन्दोलन की शुरुआत थी।
रामू रमानाथनः आपने शहरी मजदूरों के बारे में एक कविता लिखी है।
वरवर राव: हाँ, 1964-65 के दौरान मैंने एक कविता लिखी थी जब बाम्बे बन्दरगाह के मजदूरों ने उस गेहूँ को ढोने से इनकार कर दिया जो अमेरिका द्वारा पीएलएक 480 के अन्तर्गत भेजा गया। नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रभाव श्रमिक-वर्ग के लड़ाकू आन्दोलन पर देखा जा सकता है। विशिष्ट रूप से 1980 के दशक के आन्दोलन पर। यद्यपि यह आन्दोलन दत्ता सामन्त के नेतृत्व में चलाया जा रहा था। पर दरअसल इसे नौजवान भारत सभा ने लीड किया। बाम्बे मिल मजदूरों की एक दिन की हड़ताल पूरे देश में लड़ाकू संघर्ष के लिए मिसाल बन गयी। जैसा कि गुरवीर सिंह ने ‘इकाॅनामिक एण्ड पोलिटिकल वीक्ली’ के एक लेख में यह स्वीकर किया है कि यह आन्दोलन सिंगरिनी कार्मिक सामाख्या संगठन और तेलंगाना के गोदावरी घाटी में चल रहे आन्दोलन से प्रेरित था।
रामू रामानाथनः आपने कहा है ‘‘हमलोग कवि और युवा आन्दोलन दोनो रूप में 1970 के दशक के दलित पैंथर्स के द्वारा प्रेरित थे। वह कैसे?
वरवर राव: इससे पूर्व हमलोग आंध्रप्रदेश के ‘दिगम्बर कावुलु’ से प्रभावित थे। 1965-68 के दौरान यह मौजूद था। जबकि ‘दलित पैंथर’ 1972 में माक्र्स और अम्बेडकर से प्रेरणा प्राप्त करके उभरा। उन्होंने युवा साहित्यकारों और सामाजिक आन्दोलनों के इतिहास में एक नया अध्याय खोला। आरम्भ में हमने सुना कि महाराष्ट्र में एक स्टडी सर्किल स्थापित की गयी है। हमने इस स्टडी सर्किल से प्राप्त एक पुस्तिका का अनुवाद किया जिसमें यह बताया गया था कि इस दुनिया को समझने के लिए माक्र्सवाद और लेनिनवाद सूक्ष्मदर्शी (डपबतवेबवचम) एवं वृहतदर्शी (डमहंेबवचम) है। दिवंगत पी०ए० सेवेस्टियन जैसे लोगों ने (सी०पी०डी०आर०-लोकतांत्रिक अधिकार सुरक्षा समिति के एक संस्थापक सदस्य और इस समिति के आजीवन कार्यकत्र्ता) इस देश में लोकतांत्रिक आन्दोलनों के लिए महत्वपूर्ण येागदान दिया था। मैं उन्हें एक महान लोंकतांत्रिक दूरदर्शी मानता हूँ, जैसे कि रजनी कोठारी, के०जी० कन्नबीरन (भारत के मानवाधिकार आन्दोलन की महान शख्सियत), माधव साठे जैसे लोग भी थे जिन्होंने सी०पी०डी०आर० में काम किया था। ये सभी लोग आंध्रप्रदेश आये और इन्होंने फैक्ट फाइंडिंग टीमें बनायी।
रामू रामानाथनः आंध्र-प्रदेश का महाराष्ट्र के साथ जुड़ाव कैसे आरंभ हुआ?
वरवर राव: महाराष्ट्र के साथ हमारा जुड़ाव कामरेड पेड्डीशंकर के गोदावरी पार करके गढ़चिरौली पहुँचने के साथ शुरू हुआ। गढ़चिरौली जिला तब नहीं बना था। यह सिरोंचा के नाम से जाना जाता था। गढ़चिरौली, सिरोंचा जिले का एक हिस्सा था। सी०ओ०सी०, सी०पी०आई० (एम०एल०) (जनयुद्ध) संगठन बनाने का प्रयास कर रही थी। गोदावरी नदी पार करने, गढ़चिरौली और बस्तर के जंगलों में प्रवेश करने का निश्चय किया गया। पेड्डीशंकर के नेतृत्व में एक टीम गढ़चिरौली भेजी गयी और बस्तर में सात टीमें भेजी गयी। साथी पेड्डीशंकर पकड़े गए और एक फर्जी मुठभेड़ में मारे गए। सी०पी०डी०आर० ने इस फर्जी मुठभेड़ की जाँच करवाई जसमें मेरे अलाव शोमा सेन, कोबड़ घंड़ी, आलम रजैय्या और अन्य साथी सम्मिलित थे। महाराष्ट्र में यह पहला अवसर था। नक्सलबाड़ी आन्दोलन के पश्चात महाराष्ट्र में सम्भवतः यह पहली मुठभेड़ थी। हालाँकि पेड्डीशंकर मारे गए और गढ़चिरौली में हमारे लिए यह शुरुआती झटका साबित हुआ लेकिन वहाँ आन्दोलन जिसका आगाज पेड्डीशंकर के साथ हुआ वह आज भी गढ़चिरौली में इस अर्थ में जारी है कि गढ़चिरौली दण्डाकारण्य का ही एक बन चुका है।
रामू रामानाथनः आपने मुम्बई प्रेस क्लब में अरुण फरेरा की पुस्तक के लोकार्पण के दौरान अपने भाषण में कहा था कि गढ़चिरौली का आन्दोलन सर्वाधिक शक्तिशाली आन्दोलनों में से एक था। आपने यह भी कहा था कि बस्तर क्षेत्र में चल रहे दमन से कहीं ज्यादा दमन गढ़चिरौली में हो रहा था और इस परिस्थिति में बुद्धिजीवी-वर्ग की चिन्ताजनक चुप्पी......
वरवर राव: मैंने इस बारे में अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में भी बोला था और वर्धा तो गढ़चिरौली के जंगलों के काफी करीब है। अतः मैं यह बात बुद्धिजीवी प्रोफेसरों से कह रहा था कि ठीक आपके बगल मे जंगल है जहाँ साम्राज्यवादी हमले और लूट और सामंती ताकतों के खिलाफ आदिवासी लोग लड़ रहें हैं। मुम्बई के बुद्धिजीवी तो इन क्षेत्रों से बहुत दूर बैठे हैं। इसलिए मैं उन्हें जो कुछ भी गढ़चिरौली में हो रहा था उससे परिचित कराना चाहता था। किस तरह का और किस हद तक राज्य ने उनके ऊपर दमन का मोर्चा खोल दिया था। इस प्रसंग में मैं महाराष्ट्र में बुद्धिजीवियों की भूमिका की ओर इशारा कर रहा था। यदि आप स्पेनिश गृह-युद्ध की ओर देखें या फिर नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम संघर्ष के दौरान देखें तो बुद्धिजीवियों, लेखको और कवियों ने आन्दोलन के धार को और पैना किया था। लेकिन आज भूमण्डलीकरण और बाजार के प्रभाव में फँसकर बुद्धिजीवी लोग जनान्दोलनों से स्वयं को पृथक कर ले रहे हैं।
रामू रामानाथनः क्या यह कहना ठीक होगा कि यह परिघटना पूरे विश्व में विद्यमान है और इस देश में 1992 से प्रारम्भ होकर, अधिकांशतः 2001 के बाद से इसका ज्यादा असर हुआ है? ऐसा लगता है कि मध्यवर्ग जन-विरोधी हो गया है......
वरवर राव: मैं यह नहीं कर रहा हूँ कि मध्यवर्ग जन-विरोधी हो गया हैं। मैं यह कह रहा हूँ कि मध्यवर्ग जनान्दोलनों के प्रति तटस्थ हो गया है। अपने स्वार्थों के लिए वे खुद को जनान्दोलनों से दूर कर रहे हैं। वे जनान्दोलन को समझने की कोशिश ही नही कर रहे हैं। लैटिन अमेरिका के एक कवि ने कहा था कि एक ऐसा दिन आएगा जब तुम्हारा दूधवाल और पेपर (समाचार-पत्र) बेचने वाला आएगा और इसी मध्यवर्ग से पूछेगा कि उस समय तुम क्या कर रहे थे जब हम लोग दमन का सामना कर रहे थे। तब तुम्हारी सहायता करने के लिए कोई नहीं होगा। तुम अकेले पड़ जाओगे। भारत में भी मध्यवर्ग के लिए ऐसा दिन आएगा।
क्रांतिकारी लेखन का आगाज़
रामू रामानाथनन : मैंने वरलक्ष्मी और उदयभानु के बारे में सुना है जो तेलुगु मे लिखते हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि इस तरह का साहित्य कितना प्रकाशित हो पाता है?
वरवर राव: पिछले तीन-चार साल में हमलोगों ने करीब 40 किताबें प्रकाशित की हैं और उनमें से अधिकांशत, कहानियों के संग्रह हैं इनमें से ज्यादातर कहानियाँ शाहिदा, मिडको, नीत्या और मैना (उलदं) जैसी लेखिकाओं ने लिखी है। नीत्या ने काफी अर्से पहले प्रेमचंद की रचनाओं की माओवादी दृष्टिकोण से आलोचना भी लिखी है। मैंने बासागुड़ा के बारे में ‘बीजभूमि’ शीर्षक से एक कविता लिखी है। पाणि, उदयभानु और केनारी जैसे कवियों ने आॅपरेशन ग्रीन हंट, जनताना सरकार और दण्डकारण्य आन्दोलन के ऊपर अनेक कविताएँ लिखी हैं। आज, हमलोग दण्डकारण्य की कहानियों की शंृखला को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहे हैं।
रामू रामानाथनः आपने इन किताबों को कैसे प्रकाशित किया?
वरवर राव: हमलोगों ने उन रचनाओं की कम से कम 1000 प्रतियाँ प्रिन्ट करायी और उसके बाद पुस्तक विक्रेताओं के पास उन्हें भेज दिया। हमारे पास खुद का अपना प्रकाशन प्रकोष्ठ है। हमारे सभी सम्मेलनों के दौरान हमलोग पुस्तक प्रदर्शनी भी लगाते हैं। 24 अगस्त 2014 को लगभग 80 लेखक और बुद्धिजीवी एक सम्मेलन के लिए एकजुट हुए थे। इनमें से कुछ लेखकों ने तेलुगु दैनिकों में हमारे दृष्टिकोण को स्वर देने वाले लेख लिखकर अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हमारे लिए यह केवल संवृद्धि (फलने-फूलने) का मसला नहीं है बल्कि यह पूरी मूल्य-व्यवस्था और संस्कृति के विकास कीकथा है।
रामू रामानाथनः क्या वहाँ के साहित्यिक-आन्दोलन में तीव्रता आयी है? क्या हमलोग रामन रेड्डी के कद के लेखकों को पैदा करने के योग्य हो गए हैं?
वरवर राव: हाँ निश्चित रूप से। प्रत्येक दशक, समय की माँग के अनुरूप अपने तरह के नेतृत्वकारी लेखकों को पैदा करता रहा है। और वे उतना ही अच्छा काम कर रहे हैं जितना कि के०वी०आर० (कोडावतिगन्थी कुटुम्बाराव) ने किया था। बस केवल भाषा की समस्या की वजह से राज्य के बाहर उनके योगदान के बारे में चर्चा नहीं हो पा रही है। उदाहरणके लिए, टी० मधुसूदन राव का माक्र्सवादी साहित्यिक समीक्षा के क्षेत्र में जो योगदान है उसने न केवल क्रांतिकारी साहित्यिक समीक्षा की धार को पैना किया है बल्कि उसने साहित्यिक के समीक्षा को काफी ऊँचे ओहदे पर भी पहुँचा दिया। तेलुगु साहित्यिक संसार इसे स्वीकार करता है। यद्यपि उनका सारा काम अंग्रेजी भाषा के माक्र्सवादी शिक्षकों पर आधारित था इसके बावजूद उन्होंने अंग्रेजी में कुछ भी नहीं लिखा। इसीलिए वह तेलुगु राज्य के बाहर नहीं जाने जाते हैं। सी०वी० सुब्बाराव, बालगोपाल, वणुगोपाल और डाॅ० के श्रीनिवास ने माक्र्सवादी साहित्यिक समीक्षा की परंपरा को जारी रखते हुए उसका दायरा व्यवहारिक समीक्षा तक बढ़ा दिया। स्वर्गीय चेनचैय्याह ने तेलुगु भाषा के बारे में एक बेहतरीन किताब लिखी है। आलम रजैय्याह, बी०एल० रमुलु, राधेश्याम द्वारा लिखी गयी लघु कहानियाँ हिन्दी में भी अनुवादित की गयीं। वी० चेन्चैय्याह जो कि आपातकाल के पश्चात त्ॅ। (विरसम) से जुड़े, वे ज्ञटत् से भी अधिक लम्बे समय तक लगभग 1990-94 तक, हमारे संगठन के सचिव रहे।
रामू रामानाथनः पाणि के बारे में आप क्या कहते हैं? उन्हें काफी तारीफ मिली है।
वरवर राव: पाणि विभिन्न विधाओं के लेखक हैं। नब्बे के दशक से लेकर अब तक उन्होंने तीन उपन्यास, एक लम्बी कविता, दण्डकारण्य आन्दोलन के ऊपर एक काव्य-संग्रह के साथ-साथ एक साहित्यिक समीक्षा प्रकाशित की है। वे कहानीकार भी हैं। चूँकि ये दो लोग हिन्दी या अंग्रेजी में बातचीत या भाषण नहीं देते इसलिए उन्हें इस राज्य के बाहर जानने वाला कोई नहीं है। चलसानी प्रसाद और सी०एस०आर० प्रसाद जोकि अंग्रेजी में बोल सकते थे आज वे राज्य के बाहर भी जाने जाते हैं। जबसे कल्याण राव का उपन्यास अंग्रेजी और कई अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवादित हुआ तबसे उन्हें पूरे भारत में जाना जाने लगा। ठीक इसी तरह, बालगोपाल और वेणुगोपाल भी त्ॅ। (विरसम) से निकले हैं, जिनकी प्रसिद्धि उनकी अंग्रेजी रचनाओं की वजह से है। हमारी वर्तमान सचिव, वरलक्ष्मी 28 साल की हैं। वह भी विभिन्न विधाओं की रचनाकार हैं। वह कविता, कहानियाँ और साहित्यिक समीक्षाएँ लिखती हैं। दुनिया के बारे में उनकी समझ बहुत अच्छी है। इसलिए उन्होंने पर्यावरणीय मुद्दों के बारे में अध्ययन किया और उसमें विशिष्टता हासिल की और इसी विषय को वह एक काॅलेज में पढ़ाती भी हैं। इसी रुचि के कारण वह कुडमकुलम गयी और अखिल भारतीय तथ्यान्वेषण समिति की एक महत्त्वपूर्ण सदस्य रहीं और पूरे देश के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ उनको भी एक मामले में फँसाया गया था। उन्होंने कुडमकुलम के परमाणु-संयंत्र के खतरे के ऊपर एक मुकम्मल पुस्तक प्रकाशित की। वह लोकप्रिय तेलुगु दैनिक पत्रों में लेख इत्यादि लिखती हैं। इसके साथ ही, आज के युग कों देखते हुए सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं। टीम के अधिकांश युवा सदस्यों की पहुँच सामाजिक मंचों द्वारा व्यापक पाठक वर्ग तक हो पाती है। किन्तु भाषा सबसे बड़ी बाधा है।
रामू रामानाथनः दूसरी लेखिकाओं के बारे में आपका क्या मानना है?
वरवर राव: रुक्मिणी, शशिकला और गीतांजलि जानी-मानी कहानीकार हैं। रुक्मिणी और गीतांजलि ने बेहतरीन उपन्यास लिखे है। कृष्णबाई और रत्नमाला न केवल त्।ॅ (विरसम) और साहित्यिक क्षेत्रों में जानी मानी है बल्कि तेलुगु जनता के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी उनका विशिष्टि स्थान है। शहीदा, मैना, नित्या, सुजाता और साधना जैसी भूमिगत कार्यकत्र्ताओं को, भले ही वे लोग ‘विरसम’ से सांगठनिक रूप से न जुड़ी हो, हम विरसम के आन्दोलन का अभिन्न अंग मानते हैं। आलम रजैय्याह और साधना की कहानियों और उपन्यासों, शाहिदा की कविताओं औा कहानियों और मिड़को, दमयंती, नीत्या, मैना, सुजाता की कहानियों और दूसरी रचनाओं के माध्याम से कोई भी बड़ी आसानी से जगीत्याल से लेकर दण्डकारण्य (1978 से आज तक) तक क्रांतिकारी आन्दोलन को पुनर्सृजित और पुनर्निमित कर सकता है।
रामू रामानाथनः और उदय भानु की विद्वत्तापूर्ण लेखनी के बारे में आपकी क्या राय है?
वरवर राव: हाँ, उदय भानु ने एक काव्य-संग्रह की रचना की पिलैनाग्रोवी वेन्नेना(त्पससंदंहमअप टमददमसं), वाद्देबोइना श्रीनिवास, रीवेरा (त्पअतं) और कासिम न केवल विरसम के बल्कि सम्पूर्ण तेलुगु साहित्य में आज के प्रख्यात कवि हैं। ये लेखक इस क्षेत्र में 25-30 वर्ष की अवस्था में आयें और वे सभी गैर-उच्चर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं।
रामू रामानाथनः आप ‘सृजन’ नामक साहित्यिक पत्रिका से भी जुड़े हैं। क्या यह अब नयी पीढ़ी के पाठकों के लिए उपलब्ध है?
वरवर राव: मैं 1966 से 1992 तक ‘सृजन’ से जुड़ा रहा था। ‘सृजन’ विरसम कीएक अनौपचारिक पत्रिका थी और अब ‘अरुणातारा’ संगठन का मुखपत्र है। हाँ, सृजन के सभी 200 अंक अब डी.वी.डी. (क्टक्) के रूप में उपलब्ध हैं। आपको यह जानकर खुशी होगी कि जब मुझे अक्टूबर 1973 में डप्ै। के अन्तर्गत कारावास में डाल दिया गया था तब मेरी पत्नी हेमलता ने मई 1992 के अन्त तक इसके संपादन, मुद्रण और प्रकाशन की जिम्मेदारी खुद सम्भाली। इस दरम्यान (1972-74), सृजन के छह अंकों को देशद्रोह के अन्तर्गत जब्त कर लिया गया मई 1974 की हड़ताल के दौरान ‘सृजना’ ने एक रेलवे मजदूर के द्वारा लिखी गयी एक कविता- ‘क्या जेल रेल को चला सकता है’ प्रकाशित की और उसी हेडिंग के अन्तर्गत एक सम्पादकीय भी लिखा। इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। ठीक उसी समय आपातकाल का शिकंजा भी कसा जा रहा था। हेमलता को हिरासत में ले लिया और उन पर मुकदमा चलाया गया। इस मामले को लेकर वह उच्च न्यायालय पहुँची। उच्च न्यायालय ने ‘सृजन’ की जब्ती को बरकरार रखा। आपातकाल के पश्चात हेमलता के ऊपर देशद्रोह के अन्तर्गत मुकदमा चला और उन्हें दो साल की सजा दी गई। क्योंकि कोर्ट ने उनमें किसी भी तरह का पश्चताप नहीं देखा। यद्यपि उनके तीन छोटी-छोटी बच्चियाँ थी। इसके जवाब में मैंने एक कविता लिखी। ‘‘जिस दिन जेले ट्रेनों को चलाने लगेंगी उस दिन मैं मान लूँगा मैं व्यर्थ ही लिखता रहा।’’ तब तक रेलवे हड़ताल के सैनिक नेता, जार्ज फर्नांडिज़ केन्द्रीय सरकार में मंत्री बन गये और मंत्री बनने के बाद वे हैदराबाद आए। मीडिया ने उनसे इस विरोधभास के बारे में पूछा। उन्होंने ठीक ही कहा कि यह असंगतताओं का ‘ड्रामा’ है।
रामू रामानाथनः थियेटर आन्दोलन के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?
वरवर राव: यहाँ, हमें थियेटर और इस अर्द्ध सामन्ती और अर्द्ध औपनिवेशिक व्यवस्था में इसके स्थान और भूमिका के बारे में बहस करनी पड़ सकती है। यदि आप थियेटर के इतिहास को देखें, विशेष रूप से हैदराबाद के शाही राज्य के शुरुआती दौर के इतिहास को तो यह कला पिछड़ी हुई आर्थिक-व्यवस्था के कारण विकसित नहीं हो पायी थी। जब तेलुगु की भूमि पर ब्रिटिश ताकातों ने कब्जा जगाया था। तब थियेटर महाराष्ट्र से आया। अतः कोई भी व्यक्ति तेलुगु राज्य में बंगला और मराठी जैसे थियेटर की कल्पना नहीं कर सकता है।
रामू रामानाथनः लेकिन तेलंगना के पास लोक-नाट्य की एक समृद्ध परम्परा मौजूद थी.....
वरवर राव: कम्युनिस्ट पार्टी ने सशस्त्र तेलंगाना संघर्ष (1947-51) के दौरान इसके स्वरूप को जन-नाट्य के रूप में रूपांतरित किया जब इसने अत्यन्त लोकप्रिय नाटक ‘मा भूमि अंधवीरा कुमकुमा’ खेला जिसे सुन्कारा सत्यनारायण और वेसीरेड्डी भास्करराव द्वारा रचा गया था और जिसे हजारों प्रस्तुतियों के बाद भी ब्रिटिश, निजाम और मद्रास के प्रान्तीय सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। (1972-80 के बीच जननाट्य मण्डली द्वारा) इसके स्वरूप को आगे राजनीतिक दृष्टि और नाट्यकला की दृष्टि से भी परिष्कृत किया गया। यह किसी मंचीय ड्रामा से अलग एक प्रकार का जन-थियेटर या लाल थियेटर है। यहाँ तक कि विरसम के द्वारा थियेटर के मंचीय मानकों के अनुरूप ड्रामा करने का प्रयास किया गया था। सत्तर के दशक में गंगीरेड्डी द्वारा लिखा गया ‘नान्दी’ (आरंभ) आंध्रप्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में प्रोसेनियम की तरह खेला गया। यद्यपि इस पर भारी दमनचक्र चलाया गया। इसके बाद, नागेटी छाल्लालो (जुते हुए खेत में) और बोग्गू पोरालो (कोयले की खान की परतो में) नाटक जो कि किसान-संघर्षों और कोयले खान के मजदूरों के संघर्षों पर आधारित थे, अस्सी के दशके में हैदराबाद, करीमनगर और गोदावरी की घाटियों में खेले गए। इन पर जबरदस्त प्रतिबंध लगाए गए।
रामू रामानाथनः कमतर समझ जाने वाले नाट्यरूपों-जैसे एकांकी-के बारे में क्या कहेंगे? लेफ्ट ने तो एकांकी विधा का बेहरतीन उपयोग किया है......
वरवर राव: चेराबण्डा राजू, रुद्रज्वाला, जी० कल्याणरावा और गिरि ने कई एकांकी नाटकों को लिखा है जिन्हें आन्ध्र-प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में खेला गया। चेराबण्डा राजू का ‘अल्पकालिक मजदूरी’ (ज्मउवतंतल स्ंइवनत), संविदा पर रखे गए अल्पकालिक मजूदरों के ऊपर और गांजीनील्लू, (लपसी का पानी) (ळतनमस ॅंजमत), भूमिहीन गरीबों के ऊपर लिखे गए एकांकी नाटक बहुत लोकप्रिय हुए त्ॅ। (विरसम) ने 1984 ई० में नुक्कड़ एवं गली-कूचों में खेले जाने वाले एकांकी नाटकों जैसे ओग्गु कथा, बुर्रा कथा जैसे एकांकी एवं सम्पूर्ण नाटकों के लेखन कौशलों में परिष्कार के साथ-साथ जनकलाओं के विभिन्न रूपों में भी परिष्कार के लिए एक दस दिवसीय कार्यशाला को आयोजित किया था। जब 2009 में केन्द्रीय सरकार ने राज्य सरकार के साथ मिलकर पूर्व एवं मध्य भारत में आॅपरेशन ग्रीन हंट के नाम से अपने लोगों के ही ऊपर शिकंजा कसने का निर्णय लिया तो त्ॅ। (विरसम) ने इसके खिलाफ साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अभियान चलाया था। दण्डकारण्य की जनता एक वैकल्पिक राजव्यवस्था और संस्कृति का निर्माण जनताना सरकार के नाम से कर रही है। त्ॅ। (विरसम) के वरिष्ठ लेखक उदय मित्रा ने इसी पृष्ठभूमि को आधार बनाकर दो नाटक लिखे। उसमें से एक ‘बासागुड़ा’ (2014) नामक नाटक कीप्रस्तुति वारंगल और हैदराबाद में की गयी। इसको बहुत पसंद किया गया। उसमें से दूसरा ‘जनता का चिकित्सक’ ( च्मवचसमष्े क्वबजवत) है जिसे 2015 में बोड्डिलह (आंध्र-प्रदेश) में प्रस्तुत किया गया।
रामू रामानाथनः ‘जनता का चिकित्सक’ ( च्मवचसमष्े क्वबजवत) का मंचन उसी वक्त तो हुआ था जब आप ‘विरसम’ (वारंगल) की 44 वीं कान्फ्रेंस करवा रहे थे?
वरवर राव: हमने ‘विरसम’ की 44 वीं कान्फ्रेंस के दौरान ‘बासागुड़ा’ का मंचन किया था सरकारी दमन के करण 1973 और 1979 में ‘साहित्यिक पाठशाला’ के सिवाय ‘वारंगल’ में कोई भी कांफ्रेंस कभी भी आयोजित नहीं की गयी, इस रूप् में ‘बासागुड़ा’ का मंचन एक बहुत बड़ी कामयाबी थी। हमलोग वहाँ इसलिए ऐसा कर पाए क्योंकि तेलंगाना आन्दोलन की वजह से हमें कुछ समर्थन मिल गया था। ओर कालोजी जैसे प्रसिद्ध जनकवि जिनकी जन्म शती इसी वर्ष है भी वारंगल के है। उन्होंने जबरदस्त सहयोग दिया आप सोचेंगे कि कालोजी जैसे गैर माक्र्सवादी त्ॅ। के लिए इतना महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं। यद्यपि वह एक क्रांतिकारी लेखक नहीं थे। वह कबीर, नामदेव और विमना के जैसे जनकवि थे और जीवन भर यानी निजाम के दिनों से लेकर, चन्द्रबाबू नायडू के शासनकाल से लेकर मृत्युपर्यंत राज्य के खिलाफ बिना किसी समझौते के आजीवन लड़ते रहे। कालोजी नारायण राव हिन्दी, मराठी, तेलुगु और उर्दू जानते थे। 1940 के दौर में उन्होंने मराठी कहानियों का अनुवाद तेलुगु मे किया। कविताओं के साथ-साथ वे निबंध भी लिखते थे।

[यह साक्षत्कार जाने माने नाटककार और एक्टिविस्ट रामू रामानाथन द्वारा 2014 से 2015 के बीच तीन चरणों में लिख गया था। यह साक्षात्कार मम्बई में 26 सितम्बर 2014 को अरुण फरेरा की किताब ‘कलर्स आॅफ दि केज’ के विमोचन के अवसर पर वरवर राव के साथ बातचीत के सााि शुरू हुआ था। बाद में ईमेल के जरिए लम्बा संवाद हुआ जिसे अन्त में प्रश्नोत्तर के रूप में ढाला गया।

हम तो कलम के सिपाही हैं - वरवर राव

  प्रस्तुत है पहला भाग........
(वरवर राव के साथ बातचीत)
भाग-1

नाटककार रामू रामनाथन को दो भागों में दिये गये अपने साक्षात्कार के पहले भाग में ’विरसम’ के संस्थापक सदस्य, माओवादी विचारक एवं तेलुगु कवि वरवर राव ने एक बुद्धिजीवी की भूमिका को महŸवपूर्ण माना है। इस साक्षात्कार में उन्होंने भारतीय राज्यसŸाा द्वारा दमन के इतिहास पर और राज्य का दर्जा प्राप्त कर चुके तेलंगाना से जुड़े मुद्दों पर बात की है।



रामू रामनाथन: वर्तमान हैदराबाद और वर्तमान तेलंगाना के बारे में आपके क्या खयाल हैं?
वरवर राव: तेलंगाना सरकार चंन्द्रशेखर बाप-बेटे की सरकार है। बाप एक ओर विकास के पुराने माॅडल के अनुरूप खेती और सिंचाई की बातें करता है और ’बंगार तेलंगाना’ (स्वर्णिम तेलंगाना) बनाने के वादे करता है। किसान आत्महत्या करते जा रहे हैं और वह लफ्फाजी में लगे हैं। दूसरी ओर बेटा औद्योगिकीकरण की बातें करता है। टाटा तेलंगाना का ब्रांड एंबेसडर बन गया है। हैदराबाद के पास की पाँच हजार एकड़ जमींनें विमानन उद्योग को दे दी गयी हैं।
रामू रामनाथन: चन्द्रबाबू नायडू भी तो हैं?
वरवर राव: चन्द्रबाबू ने तो आंध्र प्रदेश में और ज्यादा उद्योगों को न्यौता देने का प्रयास किया है। लेकिन ध्यान रखिए, माओवादी एक बार फिर तेलंगाना में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे हैं क्योंकि हमारा शीर्ष नेतृत्व अभी भी सुरक्षित और मजबूत है।
रामू रामनाथन: पिछले साल (2014 में) तेलंगाना की राज्य सरकार ने एक कान्फ्रेंस का आयोजन रुकवा दिया था। क्या यही असली चेहरा है नयी सरकार का?
वरवर राव: हाँ! जिस तरीके से 21 सितम्बर 2014 की हमारी मीटिंग रोकी गयी वह इसका सबसे बड़ा सबूत है। डाॅ0 रमानाथम की हत्या के बाद भी ऐसा ही हुआ था। हैदराबाद में सारस्वत परिषद् में एक सभा हुई थी। वक्ताओं को बोलने की अनुमति तो गयी लेकिन श्रोताओं को भीतर नहीं जाने दिया गया। बाहर अर्द्धसैन्य बलों को तैनात किया गया था और वे श्रोताओं को सभागार में घुसने नहीं दे रहे थे। इसी तरह, 21 सितम्बर 2014 को सुन्दरय्या विज्ञान भवन मंे, जो कि किसी ट्रस्टी द्वारा संचालित एक निजी सभागार है, होने वाली हमारी मीटिंग को सरकार ने रोक दिया था। सात सौ लोगों को गिफ्तार किया। उसके बाद, तेलंगाना विद्यार्थी वेदिका के छात्रों की सभा तक को अनुमति नहीं दी गयी। दूसरी तरफ विवेक, सूर्यम् जैसे लोगों की और आदिवासी लड़कियों की हत्याएँ हो रही हैं।
रामू रामनाथन: सात सौ लोग गिरफ्तार हुए...
वरवर राव: सरकार कहती है कि ये लोग औद्योगिक नीतियों में बाधा डाल रहे हैं और इन लोगों को मीटिंग करने दी गयी तो इससे कारपोरेट निवेशकों का भरोसा कम हो जायेगा। सुन्दरय्या विज्ञान भवन जैसे स्थान पर मीटिंग रुकवाना और उसके सामने के पार्क को जेल बना डालना तो और ज्यादा घटिया काम है।
रामू रामनाथन: तो 43 लोगों को थाने में कैद कर लिया गया।
वरवर राव: जी हाँ, युगप्रवर्तक कवि श्रीश्री को भी 1975 में यहीं बंद किया गया था। हमारी गिरफ्तारी के दूसरे दिन, हमारी सचिव लक्ष्मी ने एक तेलुगु दैनिक पत्र में लेख लिखा ’’कौन कहता है कि मीटिंग नहीं हुई ?’’
रामू रामनाथन: क्यों, क्या हुआ ? कैसे हुई मीटिंग ?
वरवर राव (हँसते हुए): जेल में हम सभी लोग थे ही। हमने तो बल्कि चैन से बिना किसी विघ्न के अपनी मीटिंग कर ली।
रामू रामनाथन: ज्ैत् (तेलंगाना राष्ट्र समिति) के ’हरित हरम’ कार्यक्रम पर क्या कहना चाहेंगे ?
वरवर राव: सरकार ने ’हरित हरम’ कार्यक्रम आदिवासियों की जमीनें हड़पने के लिए बनाया है। के. चन्द्रशेखर राव अकेले ही वे सब काम कर रहे हैं जो चन्द्रबाबू नायडु और वाई. एस. राजशेखर रेड्डी मिलकर भी नहीं कर पाये। वे विश्व बैंक के सबसे उम्दा पिट्ठू हैं। अंतर केवल इतना है कि वे बहुत शातिर आदमी हैं। इस बात को समझिए कि पन्द्रह वर्षों के लम्बे आंदोलन के दौरान वे तैयार हुए हैं। वह आदमी जनता की नब्ज पहचानाता है और उसे कैसे चुप कराना है, वह जानता है।
रामू रामनाथन: 1970 में स्थापित हुए विरसम (विप्लव रचयिताला संघम्, रिवोल्यूशनरी राइटर्स एसोशिएशन) जैसे संगठनों की आज क्या स्थिति है?
वरवर राव: ’विरसम’ अपने 45 वर्ष पूरे कर चुका है। श्री श्री, कुटुम्बा राव, रचाकोण्डा विश्वनाथ शास्त्री, के. वी. रमण्णा रेड्डी, ज्वालामुखी, निखिलेश्वर, चेराबण्डा राजू, चलासानी प्रसाद, कृष्णा बाई और मैंने विरसम की स्थापना की थी। नयी पीढ़ी, खासतौर से दलित पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र, पिछले दशक में विरसम से जुड़ते रहे हैं।
रामू रामनाथन: दलितों के विरसम से जुड़ने के क्या कारण हैं?
वरवर राव: इसके पीछे दो कारण हैं। एक तो जो दलित आंदोलन करमचेदू नरसंहार के बाद लड़ाकू ढंग से शुरू हुआ था, वह चुन्दूर नरसंहार के समय, सन् 1992 से, कमजोर पड़ने लगा। इसके कमजोर पड़ने की मुख्य वजह यह थी कि इसके नेतृत्व को लगता था कि यह सिर्फ आत्म-सम्मान का आंदोलन है। जमीन के सवाल से उन्होंने इस आंदोलन को जोड़ा ही नहीं। आज वे केवल वोट के सहारे अपने अधिकार पा लेना चाहते हैं। इसलिए करमचेदू की घटना के बाद से जो दलित युवा वर्ग आंदोलन से जुड़ा, उसका मोहभंग होने लगा सन् 1992 तक। और भूमण्डलीकरण की घातक शक्तियाँ भी धीरे-धीरे क्रांतिकारी आंदोलन में प्रवेश करके उसे कमजोर कर रही थीं।
रामू रामनाथन: कैसे ?
वरवर राव: सन् 1992 में , जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री नेदुरुमिल्ली जनार्दन रेड्डी थे, तब यही दलित आंदोलन अलग रूप ले चुका था। मुख्यमंत्री ने ऐलान किया कि चुन्दुर नरसंहार के जो-जो आरोपी रेड्डी जमींदार लोग आत्मसमर्पण नहीं करेंगे उनकी जमीनें जब्त कर ली जायेंगी। यह अच्छा मौका था, क्रांतिकारी आंदोलन के साथ मिलकर विरसम ने गेेंद मुख्यमंत्री के पाले में उछालते हुए माँग उठायी कि इस भले काम की शुरूआत जब्त की गयी जमीनों को पीड़ितों में बाँटकर की जाये। हमने इसके लिए एक कमीटी बनायी। पी. जी. वर्धन राव इस कमीटी के समन्वयक थे और तारकम थे अध्यक्ष। तब राज्य विधानसभा के स्पीकर ने पी. जी. वर्धन राव को, जो चुन्दूर के पास तेनाली में रहते थे, जान से मारने के लिए एक माफिया को भेजा। ताकि वे डर जायें।
रामू रामनाथन: आज स्वच्छंद किस्म के दलित आंदोलनों और अस्मिता (पहचान) वाले आंदोलनों की सबसे बड़ी अड़चन ये है कि वे स्टेट के चरित्र को समझते ही नहीं। क्या आपको लगता है ’विरसम’ अकेला संगठन है जिसने कदम-कदम पर स्टेट के चरित्र उद्घटित किया है ...
वरवर राव: हाँ। स्टेट कोई अमूर्त चीज तो है नहीं। यह शासक वर्ग के चरित्र को और उत्पादन शक्तियों के संघर्ष को दर्शाता है। जब हम समाज को अर्द्धसामंती, अर्द्ध औपनिवेशिक और दलाल कहते हैं तो इसका मतलब यही होता है कि इन्हीं ताकतों का स्टेट पर कब्जा है। इसलिए यह व्यवस्था दूसरे वर्गों का दमन और उत्पीड़न करती है। नक्सलबाड़ी के बाद, किसान और मजदूर वर्ग की अगुवाई में इन सभी वर्गों ने इस व्यवस्था के खिलाफ जनयुद्ध छेड़ दिया है। इसलिए, भूमि और मुक्ति के लिए जनता के संघर्ष का मकसद है स्टेट से ताकत छीन लेना। जिन लेखकों के पास दुनिया को देखने का माक्र्सवादी नजरिया है, केवल वे ही स्टेट के चरित्र से जनता को रूबरू करा सकते हैं ताकि जनता क्रांतिकारी विचारधारा से खुद को लैस कर सके। ’विरसम’ का अपना घोषणापत्र है, माक्र्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद (मालेमा) हमारी विश्वदृष्टि है और इस मुद्दे पर, हमारा नजरिया एकदम स्पष्ट है।
रामू रामनाथन: आज के हालात के हिसाब से हम क्यों कहते हैं कि 1991-1992 ने मूवमेंट को काफी दूर तक प्रभावित किया है।
वरवर राव: तीन बातें हुईं। 1991 के बाद से नव-उदारवादी शक्तियों और हिन्दुत्व की शक्तियों का गठजोड़ कायम हुआ, साथ ही भारत में जनतांत्रिक मूल्यों में लगातार गिरावट आती गयी। 1991 पहला जाहिर हमला था वैश्वीकरण की शक्तियों का और 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाई गयी। इन सब के शुरूआती लक्षण तो अस्सी के दशक में ही मिलने लगे थे जब 1984 में सिखों का कत्लेआम किया गया, भोपाल गैस त्रासदी हुई और देश को 21वीं सदी में ले जाने जैसी बातें करने वाले राजीव गांधी का कांग्रेस में बड़े नाटकीय अंदाज मंे प्रवेश हुआ। तीसरी घटना थी पीपुल्स वार पार्टी पर आधिकारिक तौर से प्रतिबन्ध लगाया जाना और साथ ही रेडिकल स्टूडेण्ट यूनियन, रेडिकल यूथ लीग, आॅल इण्डिया रिवोल्यूशनरी स्टूडेण्ट फेडरेशन, रैयतु कुली संघम्, सिंगरेनी कार्मिक सामाख्या और दण्डकारण्य आदिवासी किसान मजदूर संगठन जैसे क्रांतिकारी जन-संगठनों पर भी प्रतिबन्ध लगाया जाना।
रामू रामनाथन: मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि शासक वर्ग की ये 21वीं सदी में ले चलने वाली बातें आज की सरकार भी कर रही है?
वरवर राव: ’विरसम’ आधुनिक भारत के इतिहास की पूरी राजनीतिक पृष्ठभूमि की व्याख्या कर सकता है। 2002 के गुजरात दंगे, डाॅ0 मनमोहन सिंह द्वारा अंधाधुन्ध वैश्वीकरण और राज्य सरकारों द्वारा साम्राज्यवाद की चाकरी, वो चाहे रमण सिंह हो, नवीन पटनायक हो या पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव हांे- इन सब में एक पैटर्न है।
रामू रामनाथन: यानी इसमें कांग्रेस, भाजपा, बीजू जनता दल और सी.पी.एम. सब के सब शामिल हैं...
वरवर राव: अपनी सभाओं में और अपने गीतों के माध्यम से हम इस पैटर्न को, इस पृष्ठभूमि को, उजागर करते हैं। क्यांेकि इसका दुष्प्रभाव तीन प्रमुख सामाजिक तबकों, खासकर पूर्वी और मध्य भारत के आदिवासियों और पूरे देश में मुसलमानों और दलितों पर पड़ रहा है। मैदानी क्षेत्रों में जोतने वालों को जमीन दिलाना है और फैक्ट्रियों में मजदूरों को उत्पादन पर मालिकाना हक दिलाना है। जंगली इलाकों में आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन, इज्जत दिलानी है, उनका स्वशासन लाना है। बाजार इन्हीं सामाजिक तबकों के सस्ते श्रम पर आँख गड़ाये हुए है और प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की फिराक में है।
रामू रामनाथन: और महिलाएँ ? उनका तो जैसे अस्तित्व ही नहीं है।
वरवर राव: मैं जिन तीन प्रमुख सामाजिक तबकों को दमन का शिकार बता रहा हूँ उनमें आधे से ज्यादा संख्या महिलाओं की ही तो है। वैश्वीकरण की नीतियों से सबसे ज्यादा पीड़ित महिलाएँ ही हंै। जैसा कि माओ ने कहा है, गुलामी का जो चैथा जुआ है पितृसŸाा का, उसे महिलाएँ ही ढोती हैं। आज देखिए, इस अर्द्ध-सामंती, अर्द्ध-औपनिवेशिक, दलाल तंत्र में, ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व और पितृसŸाा स्टेट के मौसरे भाई की तरह हंै और स्टेट खुद साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का एजेंट बना हुआ है। इसलिए सामान्य दृष्टि से सारी महिलाएँ और विशिष्ट दृष्टि से मेहनतकश महिलाँं सब की सब उत्पीडित हैं। शराबबंदी के संदर्भ में स्टेट की नीति को देख लीजिए, एक गृहस्थ पुरुष भी मालिक और गुलाम की दोहरी भूमिका में होता हंै जब वह घर में हिंसा करता है। उसने अपने घर की औरत को इस हद तक गुलाम बना डाला है कि विद्रोह के सिवा औरत के पास कोई चारा ही नहीं है।
रामू रामनाथन: विरसम इन सब मुद्दों पर कैसे काम करता है ?
वरवर राव: हम इन सब समस्याओं की जड़ स्टेट को समझते हैं और कहानियों, कविताओं, नाटकों और निबन्धों के जरिए हम इसे तफ्सील से समझाते हैं। 2009 के महाराष्ट्र के चुनाव के बाद सरकार ने आपरेशन ग्रीन हण्ट शुरू किया। तभी से हम आपरेशन ग्रीन हण्ट का विरोध कर रहे हैं और विकास के इस एकआयामी माॅडल (जिसमें केवल एक वर्ग के हितों की चिन्ता है, दूसरे वर्गों की या प्रकृति की बिल्कुल चिन्ता नहीं) का विकल्प सुझा रहे हैं। आपात्काल के दौरान मैंने ’फानशेन’ का संक्षिप्त अनुवाद पढ़ा जो तेलुगु में ’विमुक्ति’ शीर्षक से छपा था। उसी समय मैंने नक्सलबाड़ी संघर्ष द्वारा अपनायी गयी नीतियों का महत्व समझा। विरसम नक्सबाड़ी और श्रीकाकुलम् के संघर्षों से ही प्रेरणा प्राप्त करके संगठित हुआ था।
रामू रामनाथन: कैसे ?
वरवर राव: नक्सलबाड़ी ने कई लेखकों को पैदा किया। आंदोलन से जुड़े रहे श्री श्री, कुटुम्बा राव, रमन्ना रेड्डी, रावी शास्त्री जैसे लेखकों का 1964 में कम्युनिस्टों की राजनीति से मोहभंग हो चुका था। हजारों लोगो की तरह इन लेखकों ने सोचा था कि वर्ग-संघर्ष का जो रास्ता 1951 में छोड़ दिया गया था उसे पुनः अपनाने के लिए ही सी.पी.आई. में विभाजन हुआ है। लेकिन जब इन सारे लोगों का मोहभंग हुआ तो देश के अलग-अलग हिस्सों में विद्रोहियों के अनेक संगठन आकार लेने लगे। तेलुगु में ’दिगम्बर कवुलु’ हो या समर सेन के नेतृत्व में ’भूखी पीढ़ी’’। ये कुछ ऐसे ही साहित्यिक आंदोलन थे।
रामू रामनाथन: क्या यही वह समय था जब वारंगल के कवियों को अपनी रचनात्मकता का आधार मिला ? और रेडिकल आंदोलन अपने स्वर्णिम दौर में पहँुचा?
वरवर राव: हाँ, तेलुगु समाज और साहित्य पर दिगम्बर आंदोलन का गहरा प्रभाव पड़ा। उन कवियों को और वारंगल के कवियों केा तिरुगुबाडु (विद्रोह के कवि) बोला जाता था। इस तरह के लेखक और कवि साथ आये और ’विरसम’ की स्थापना हुई। सुब्बाराव पाणिग्रही हमारे प्रेरणास्रोत थे। नक्सलबाड़ी द्वारा दिखाये गये रास्ते और श्रीकाकुलम के संघर्षों की पे्ररणा के परिणामस्वरूप ’विरसम’ का गठन हुआ।
रामू रामनाथन: श्रीकाकुलम के आदिवासी व किसान संघर्षों के ठण्डे पड़ जाने केा आप कैसे देखते हैं ?
वरवर राव: हालांकि हम चीन की तर्ज पर दीर्घकालिक सशस्त्र संघर्ष द्वारा नवजनवाद लाने की बातें करते थे, लेकिन यह आंदोलन असफल हो गया। इसलिए असफल हुआ क्यांेकि हम जनता केा विश्वास में न ले सके। इस आत्मालोचना के साथ पार्टी ने खुद को पुनर्संगठित किया। कई तरह के जनसंगठन बनाये गये। जनता को विश्वास में लेने का काम जोर शोर से किया गया जिसका परिणाम 1978 मंे जगित्याल जैत्रायात्रा के रूप में सामने आया। जन संगठनों द्वारा लिये गये गाँव चलो अभियानों से और 1980 ब्च्प् ;डस्द्ध पीपुल्स वार की स्थापना से नवजनवादी क्रांति के कार्यक्रम को एक दिशा मिली। अन्ततः 2006 में दण्डकारण्य योजना के आधार पर जनताना सरकार की अगुवाई में जनता के लिए विकास का एक वैकल्पिक माॅडल सामने आया।
रामू रामनाथन: तेलंगाना में जमीनी हालात क्या हैं, आप क्या महसूस करते हैं इस बारे में ? क्या अब भी ’वे’ और ’हम’ का अंतर बना हुआ है।
वरवर राव: जब भी कोई अस्मितवादी (पहचान आधारित) आंदोलन खड़ा होता है, हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अगर ’वे’ से आपका अभिप्राय डेल्टा के उच्च वर्गीय एवं उच्च वर्णीय लोगों से है, तो हाँ वह अन्तर बना हुआ है। ’हम’ से मेरा अभिप्राय तेलंगाना की उस आम जनता से है जिसके प्रति रायलसीमा और आन्ध्रप्रदेश की भी उत्पीड़ित जनता सहानुभूति रखती है। पृथक तेलंगाना आंदोलन में हमने जिस भावना के साथ भाग लिया, वह आन्ध्र की जनता के खिलाफ कभी नहीं थी।
रामू रामनाथन: ऐसा भी दावा किया जाता है कि बिना खून बहाये तेलंगाना को राज्य का दर्जा मिल गया ?
वरवर राव: ये सब बेसिर पैर की बातें हैं। एक हजार से ज्यादा आत्महत्याएँं हुई हैं। सभी विश्वविद्यालयों के परिसर आॅपरेशन ग्रीन हण्ट का शिकार हुए थे। सभी में बी. एस. एफ. तैनात थी। 29 नवम्बर से 9 दिसम्बर के बीच तो पूरी उस्मानिया यूनिवर्सिटी पैरामिलिट्री का बेस कैम्प बनी हुई थी।
रामू रामनाथन: अभी हाल में जब तेलंगाना प्रजा फ्रण्ट ने मंचिरयाल में कक्षाएंँ आयोजित करायी थीं, तब पुलिस ने कक्षाएँं बाधित की थीं।
वरवर राव: जी हाँ, एकदम! 2004 से ही के. चन्द्रशेखर राव बोल रहे हैं कि तेलंगाना प्रजा फ्रण्ट इन कक्षाओं के जरिए अपने एजेण्डे के मुताबिक माओवादियों की भर्ती करना चाहता है। इसलिए वे हमारा दमन कर रहे हैं और जनता को डराना चाह रहे हैं।
रामू रामनाथन: जनता क्या सोचती है ?
वरवर राव: सरकार की इन कार्यवाहियों को लेकर उस जनता में असंतोष पैदा होने लगा है जिसने यह सरकार चुनी थी। जहाँ तक ’विरसम’ की बात है, हम तो बिना लगा लपेट के बोलते हैं कि हम माओवादी आंदोलन का, नक्सलबाड़ी के पदचिन्हों का, एक वैकल्पिक रास्ते का समर्थन करते हैं। जैसा कि माओ ने, जरा हल्के अंदाज में ही सही, कहा है कि क्रांति हर रोज अपना चेहरा धोने, घर साफ करने की तरह प्रतिदिन का संघर्ष है। इस राजनीति को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जरूरी है कि पहले हम इस राजनीति को जानें। हम इसे अपने विवेक से चुनें। इस काम के लिए हमें अपने कलात्मक साधनों को और उन्नत करना होगा। साहित्य से ज्यादा से ज्यादा सीखना होगा। सबसे जरूरी है जनता से, जनता के तौर-तरीकों से सीखना। दृश्य काव्य रूपों और उससे भी ज्यादा वाचिक कला-रूपों को अपनाना, ताकि जन-जन तक यह राजनीति, यह संदेश पहुंचे। इसी उद्देश्य के लिए ’बासागुडा’ नाटक लिखा गया था।
रामू रामनाथन: आपका अन्तिम लक्ष्य क्या है ?
वरवर राव: हमारा मकसद है- एक वैकल्पिक राजनीति, वैकल्पिक संस्कृति और साथ ही वैकल्पिक मूल्यबोध द्वारा विकास के वर्तमान माॅडल को टक्कर देना।
दमन की दास्तान
रामू रामनाथन: आपने महाराष्ट्र के बुद्धिजीवी वर्ग के बारे में बताया। तेलंगाना राज्य बन जाने के बाद तेलंगाना के बुद्धिजीवियों की क्या स्थिति है?
वरवर राव: तेलंगाना में भी वही स्थिति है। ज्यादातर बुद्धिजीवियों और लेखकों को सरकार ने या तो को आॅप्ट कर लिया है या उन्हें चुप करा दिया है। जो ’विरसम’ के साथ हंै या क्रांतिकारी आंदोलन के साथ हंै, उन्हें अलग-थलग कर दिया गया है। दमन अलग से। अभी हाल में आम जन सभाओं पर कितना दमन हुआ है। आम सभाएंँ या रैलियाँ करने की हैदराबाद में इजाजत ही नहीं दी जा रही है। इस तरह के दमन की शुरूआत 1984 में हुई थी। मैंने कहा था न कि आज जो कुछ हम देख रहे हैं वह सब 1984 में शुरू हुआ था जब इन्दिरा गांधी ने स्वर्णमन्दिर में सेना भेजी। इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद तीन हजार सिखों की हत्या हुई। राजीव गांधी ’’हिन्द करेगा हिन्दू राज’’ के नारे के साथ सŸाा में आये। 1984 में ही भोपाल गैस त्रासदी घटी। इसी दौरान 1985 में बाम्बे में, उसी बाम्बे में जहाँ के मिल मजदूर उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के कर्णधार रह चुके थे, राजीव गांधी ने यह जुमला उछाला कि मैं देश को 21वीं सदी में ले जाऊँगा। यही वह दौर था जब एन. टी. रामाराव आन्ध्र प्रदेश में टाडा लेकर आये। उन्होंने धमकाया कि आटा, माटा, पाटा, बंद। उनका मतलब था कि किसी तरह के प्रदर्शन की, खासतौर से जन नाट््य मण्डली के सांस्कृतिक कार्यक्रमों को, इजाजत नहीं दी जायेगी।
उन्होंने ने यह भी कहा कि 1985 से 1989 तक मैं किसी आम जनसभा या भाषण की इजाजत नहीं दूँगा। आन्ध्र प्रदेश में, विशेषतः तेलंगाना, यह वह दौर था कि जिसमें हो रहे दमन की तुलना लैटिन अमेरिका से की जा सकती है। कम से कम 75 लोग गुमशुदा हो गये। यानी इनका न तो एंकाउंटर हुआ न गिरफ्तारी दर्ज की गयी। कितने ही एन्काउंटर हुए। 16000 टाडा केस दर्ज किये गये। ऐसा पहली बार हुआ कि पीपुल्स वार ग्रुप के हाथों मारे गये पुलिस अफसरों या जमींदारों की मौत का बदला लेने के लिए ।च्ब्स्ब् (आंध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज कमीटी) के या दूसरे राजनीतिक जन संगठनों के नेताओं की हत्या की गयी। 18 जनवरी 1985 को जागित्याल में त्ैै (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के गुण्डों द्वारा गोपू राजन्ना की हत्या के साथ यह सब शुरू हुआ। बाद में यादगिरि रेड्डी की हत्या के बाद बगैर वर्दी के पुलिस ने डाॅ0 रमानाथम की उनकी क्लिनिक में हत्या की। इसी तरह लक्ष्मारेड्डी की हत्या की गयी। सिविल लिबर्टिज कमीटी के नेताओं नरा प्रभाकर रेड्डी, पुरुषोŸाम, आजम अली की हत्या की गयी। इन्हें भी पुलिस और जमींदारों के खिलाफ पीपुल्स वार की कार्यवाही के जवाब में मारा गया था।
रामू रामनाथन: 1990 के दशक में वारंगल की कांफ्रेंस के साथ ही एन. टी. रामाराव का दौर खत्म हो गया। 14 लाख से भी ज्यादा लोग आये इसमें ...........
वरवर राव: दमन के इन पाँच वर्षों के बाद वारंगल में ’रैय्यतु कूली संघम का सम्मेलन हुआ। कुल 14 लाख लोग इसमें शामिल हुए और जमीनें बाँटने का निर्णय लिया गया। जागित्याला के बाद यह भूमि पुनर्वितरण का दूसरा कदम था। इसमें तय किया गया कि भूस्वामी परिवारों के पास कोई दूसरे स्रोत न रहें (यानि जिनके पास कोई आय स्रोत न हो उन्हें जमींने दिलवाई जायें)। पार्टी की यही नीति थी भूमि हदबंदी को लेकर। लेकिन तुरन्त ही दमन शुरू हो गया। 1992 में पार्टी बैन कर दी गयी। यहीं पर नयी आर्थिक नीति की शुरूआत होती है, हिन्दुत्व और वैश्वीकरण का आपसी खेल शुरू होता है और बाबरी मस्जिद ढहाई जाती है। वैश्वीकरण की नीति लागू करने के लिए सन् 1995 में एन.टी. रामाराव और इनसे जुड़े शासक वर्ग की जगह चन्द्रबाबू नायडु का आगमन होता है। सब्सिडी को खत्म कराने के लिए नायडु ने पीपुल्स वार पार्टी को बैन किया, शराब से बैन हटा लिया और ऐसे कितने ही कदम उठाये गये। एन. टी. रामाराव की तरफ से किये गये सभी चुनावी वादों से चन्द्रबाबू नायडू पलट गये। 1995 से 2004 के बीच तकरीबन साढ़े नौ साल तक आंध्र प्रदेश में (और विशेषतः तेलंगाना में) बहुत खून बहा। एन्काउण्टर में हत्याएँ होती रहीं, गुमशुदगी के कितने ही केस हुए। इसके अलावा चन्द्रबाबू ने डी.आई.जी. के अधीन आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों और माफियाओं को संगठित करना शुरू किया ताकि जनान्दोलनों के नेताओं को गुप्त रूप से या टाइगर, कोबरा या कुछ और नाम धारण करके खुलेआम मारा जा सके।
रामू रामनाथन: सन् 2001 में के0 चन्द्रशेखर राव ने एक नयी पार्टी बनायी जिसका मकसद था संसदीय रास्ते से तेलंगाना को राज्य का दर्जा दिलाना। क्या इसने मूवमेंट को नुकसान पहुँचाया ?
वरवर राव: इस दौरान जंगलों की हजारों-लाखों एकड़ जमीनों पर पीपुल्स वार के नेतृत्व में जनता का कब्जा कायम रहा। लेकिन पुलिस कैम्पों के बनाये जाने की वजह से, दमन की कार्यवाही की वजह से, ये सारी जमीनें बेकार पड़ी रहीं। तो जनता के, समाज के, हितों को ध्यान में रखते हुए, राज्य के सच्चे विकास के लिए चिन्तित कुछ भले लोगों ने कन्सन्र्ड सिटीजन्स कमिटी (ब्ब्ब्) बनायी जिसके संयोजक शंकरन थे। उन्होंने मांग रखी कि सरकार और क्रांतिकारी पार्टियों, खासतौर से ब्च्प् ;डस्द्ध पीपुल्स वार एवं अन्य माक्र्सवादी-लेनिनवादी पार्टियों के बीच वार्ता होनी चाहिए। 2004 के समय नक्सल मूवमेंट के साथ वार्ता एक चुनावी एजेण्डा बन चुका था। तो एक चन्द्रबाबू नायडू को छोड़कर बाकी सभी पार्टियों ने, कांग्रेस, बीजेपी, सी.पी.आई., सी.पी.एम., सब ने बोला कि अगर चन्द्रबाबू नायडू हारते है और कांग्रेस सŸाा में आती है तो वाई एस. राजशेखर रेड्डी बिना शर्त क्रांतिकारी दलों से वार्ता करेंगे। जैसा कि चन्द्रबाबू नायडू ने खुद बोला था कि तीन मुद्दों के इस रिफरेण्डम ने, यानी कि नक्सलाइटों के साथ वार्ता, विश्व बैंक प्रोग्राम और तेलंगाना के मुद्दों ने, मुझे चुनाव हरवा दिया। तो राजशेखर रेड्डी सŸाा में आये और चूंकि यह उनका चुनावी वादा था इसलिए अक्टूबर मंे वार्ता आयोजित करायी गयी। मांग रखी गयी कि जमीनें बांटी जायें, लोकतान्त्रिक अधिकारों को बहाल किया जाये और तीसरा मुद्दा आत्म-निर्भरता का था जिस पर कोई बात नहीं की गयी। खैर, लोकतांत्रिक अधिकारों पर और भूमि सुधारों पर गहन बातचीत हुई। उस वक्त पीपुल्स वार और एम. सी. सी. (माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) का आपस में विलय हो चुका था और पार्टी, वार्ता के लिए, माओवादी पार्टी के रूप में सामने आयी थी। पार्टी ने कहा कि राज्य में कुल एक करोड़ बीस लाख एकड़ सरप्लस जमीनें हैं और इन्हें बांटना होगा। लेकिन असलियत में सरकार अपने वादों को लेकर गम्भीर नहीं थी। जनवरी 2005 आते-आते माओवादी पार्टी के साथ बातचीत के स्थान पर उसका दमन किया जाने लगा और एन्काउण्टर शुरू हो गये। राजशेखर रेड्डी के शासन में भी वैसा ही दमन हमने झेला जैसा चन्द्रबाबू नायडू के शासन में झेला था। चन्द्रबाबू के समय पूरा माफिया ’टाइगर्स’ नाम धारण करके सक्रिय था। राजेश्वर रेड्डी के समय वही माफिया ’कोबरा’ नाम से काम करने लगा।
रामू रामनाथन: एक हेलीकाॅप्टर दुर्घटना में वाई. एस. राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद अलग तेलंगाना राज्य के लिए चल रहे आंदोलन में तेजी आई। तेलंगाना के लिए साठ साल तक चले इस न्यायसंगत लोकतांत्रिक संघर्ष के बाद जाकर 2 जून 2014 को तेलंगाना को राज्य का दर्जा मिला। तेलंगाना का यह एक वर्ष कैसा रहा?
वरवर राव: जो तेलंगाना हमने प्राप्त किया वह लोकतांत्रिक तेलंगाना नहीं है। इसकी सŸाा एक बूज्र्वा सरकार के हाथ में है। के. चन्द्रशेखर राव ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद हम माओवादी एजेण्डे को लागू करेंगे, लेकिन बदले में उन्होंने दमन चक्रम चलाया। उन्होंने माओवादी पार्टी से बैन भी नहीं हटाया। इतना ही नहीं, उन्होंने रिवोल्यूशनरी डेमाॅक्रेटिक फ्रण्ट पर से भी बैन नहीं हटाया जबकि उस पर यह बैन आंध्र प्रदेश राज्य के अधीन लगाया गया था। तो जब मैं मुम्बई और वर्धा में बुद्धिजीवियों पर बात कर रहा था तो तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश में आज के हालात पर भी बात कर रहा था। मैंने बोला था कि इन दोनों राज्यों में बुद्धिजीवी और लेखक लोग वैसी भूमिका नहीं निभा रहे जैसी उन्होंने तेलंगाना आंदोलन और श्रीकाकुलम् संघर्ष के दौरान निभायी थी।
रामू रामनाथन: अरुण फरेरा की किताब ’कलर्स आॅफ दि केज: ए प्रिजन मेमाॅयर’’ के लोकार्पण के मौके पर आपने एक्टिविस्टों को हिरासत के दौरान टाॅर्चर (यातना देने) और तन्हाई में कैद करने के बारे में बताया था और बताया था कि इस हद का टार्चर तो आन्ध्र प्रदेश में भी नहीं होता...
वरवर राव: फरेरा की किताब पढ़ने के बाद जिस बात से मैं व्यथित हुआ वह यह है कि अब लोकतांत्रिक संघर्षों को भी टाॅर्चर से रोका जा रहा है, खासतौर से फरेरा जैसे व्यक्ति को महीनों तक टार्चर किया गया, न सिर्फ मानसिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी। अरूण फरेरा और अशोक रेड्डी का नारकोटिक टेस्ट भी किया गया। इस बात मुझे हिलाकर कर रख दिया। ऐसा नहीं कि आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में इस तरह का टाॅर्चर नहीं होता। लेकिन यह सब ज्यादातर अंडरग्राउण्ड एक्टिविस्टों के साथ होता है, भले वे बुद्धिजीवी हों। इसी तरह एक महेश थे जिन्हें वारंगल जेल में काफी टार्चर किया और सिंगल (एकाकी) सेल में रखा गया।
तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष के दौरान पार्टी के एक लीडर थे चेरावू लक्ष्मी नरसैय्या। उन्हें बरसों तक वारंगल जेल में बाँंध कर रखा गया। उनके बारे में तो मुझे बहुत बाद में पता चला जब वे खम्मम जिले में म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन हो गये और बाद में राज्य के जाने माने लीडर हो गये। तो ऐसा नहीं है कि यातनाओं के ऐसे उदाहरण वहाँं नहीं है, लेकिन यह बस आन्ध्र प्रदेश में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए चल रहे संघर्षों के (विशेषतः सिविल लिबर्टीज कमीटी की अगुवाई में चल रहे संघर्षों के) प्रभाव से हो रहा है।
रामू रामनाथन: न्।च्। (अनलाॅफुल एक्टिविटीज प्रिवेन्शन एक्ट) जैसे भयानक कानून के बारे में क्या कहेंगे?
वरवर राव: महाराष्ट्र, केरल और बिहार की जेलों से ज्यादा भयानक कुछ भी नहीं। हालांकि सिविल लिबर्टिज कमीटी के आदिवासी नेता सुगुनाथम, जिन्हें न्।च्। में गिरफ्तार किया गया था, केवल एक हफ्ते में जेल से बाहर आ गये। मैंने पहले ही बताया था कि एन टी. रामाराव के समय 16000 टाडा केस हुए थे। पर फिर भी टाडा केस में ही गिरफ्तार 900 लोगों को हमारे सिविल लिबर्टिज के एक लीडर नराप्रभाकार रेड्डी ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से ही जमानत दिलवा दी थी। इसी तरह बालगोपाल ने 90 आदिवासी लोगों को आदिलाबाद कोर्ट से जमानत दिला दी थी। लेकिन दूसरी ओर गणेश जैसे व्यक्ति 20 साल से जेल में पड़े हैं। फिर भी, महाराष्ट्र ओडिशा और अन्य राज्यों की बनिस्बत तेलंगाना में डेमोक्रेटिक मूवमेंट की स्थिति कुछ बेहतर है (टार्चर इत्यादि के मामले में)। हमारे एक दोस्त सी. वी. सुब्बाराव बोलते थे कि अगर आप अंग्रेजी बोल लेते हैं तो, कम से कम, मरने से बच जाओेगे।
रामू रामनाथन: लेकिन मुख्यधारा का मध्यवर्गीय समाज यह सोचता है कि आखिर क्यों इतने सारे माओवादी जेलों में बंद हैं ?
वरवर राव: उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है, जेलों में ठूँसा जा रहा है क्योंकि वे मूवमेंट केा लीड कर रहे हैं। आप देख लीजिए, माओवादी पार्टी की सेण्ट्रल कमीटी के लगभग 20 आदमी बरसों से जेल में पड़े हैं। यह बात समझनी होगी कि सेन्ट्रल कमीटी के ये 20 सदस्य जेलों में इसलिए सड़ाये जा रहे हैं क्योंकि ये लोग पूर्वी, मध्य और दक्षिणी भारत के आदिवासियों और लाखों-करोड़ों जनता के अधिकारों की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे। और यह मत समझिए कि ये सिर्फ माओवादी पार्टी को डिफेंड करने के लिए कहा जा रहा है। जंगलों में जो आदिवासियों का सच्चा और खरा मूवमेण्ट हैं और जंगलों से बाहर किसानों और मेहनतकश वर्ग का जो मूवमेण्ट है, यह उसको भी डिफेंड करने की बात है। ये तो हुई एक बात। मोटा-मोटी तीन तरह के मूवमेंट आज चल रहे हंै। पहला है कश्मीर और पूर्वोत्तर का राष्ट्रीयता का, राष्ट्रीय मुक्ति का, आत्म-निर्णय के अधिकार का मूवमेंट। इन क्षेत्रों में आफ्स्पा (।थ्ैच्।) लगाया गया है और असलियत यह है कि कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्य आज सैन्य शासन के बल पर चल रहे हैं। इसलिए दसियों बरस से वहाँ ।थ्ैच्। को हटाने के लिए आंदोलन चल रहा है, इसे और आगे बढ़ाना होगा। दूसरा है माओवादिओं के नेतृत्व में चल रहा क्रांतिकारी आंदोलन। आदिवासियों और किसानों का संघर्ष इसी मूवमेंट का हिस्सा है। तीसरा डेमोक्रेटिक मूवमेंट है। नर्मदा बचाओ आंदोलन इस तरह का मूवमेंट था।
रामू रामनाथन: तो क्या इसीलिए राजनीतिक बन्दियों की रिहाई के लिए वह कमीटी (कमीटी फाॅर रिलीज आॅफ पाॅलीटिकल प्रिजनर्स) यानि कि ब्त्च्च् बनायी गयी थी, ताकि ऐसे आन्दोलनों में लगे लोगों को बचाया जा सके?
वरवर राव: हाँ, इन आंदोलनों में लगे सभी लोगों को राजनीतिक बंदी का दर्जा मिलना चाहिए। क्योंकि ये सब राजनीतिक मांगे हैं जिनके लिए ये लड़ रहे हैं, चाहे वे डेमोक्रेटिक मूवमेंट की मांगे हों या राष्ट्रीयताओं की मुक्ति की या रिवोल्यूशनरी मूवमंेट की। इन सभी आंदोलनों को पाॅलीटिकल मूवमेंट के रूप में परिभााित किया जा सकता है क्योंकि इनका लक्ष्य राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन है। यही वजह है कि ये लोग (चाहे वे मुस्लिम हों जिन्हें इस देश में, खासतौर से हिन्दुत्व के ताण्डव के चलते, दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है) जेलों में बंद हैं। विशेषतया सारे निवारक निरोध अधिनियम (प्रिवेंटिव डिटेंशन) जैसे कि न्।च्।, छै। (राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम) और ब्त्च्ब् के 120 से 128 तक के अनु0, इनके तहत गिरफ्तार किये गये सभी लोग दरअसल राजनीतिक कैदी होते हैं। तो ऐसी एक कमीटी की जरूरत थीं जो पाॅलीटिकल प्रिजनर्स के मामलों को देखे। पूरे देश में ऐसे राजनीतिक कैदियों की रिहाई की मांग करने की जरूरत है। इसीलिए ब्त्च्च् गठित की गयी लेकिन इसे और मजबूत बनाना होगा।
रामू रामनाथन: आन्ध्र प्रदेश में जेलों की क्या स्थिति है ?
वरवर राव: आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना की जेलें इतनी शानदार भी नहीं है जितनी संसदीय समिति बोलती है। सब कुछ सापेक्षिक होता है। लेकिन इसका श्रेय सरकारी नीतियों को नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि आज सरकार में कुछ सदाशयी और सज्जन लोग घुस गये हंै। संघर्षांे का एक लम्बा इतिहास रहा है जिसके कारण ऐसा संभव हो पाया है। खासतौर से कम्युनिस्ट पार्टियों के आंदोलनों के कारण, जो तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष से चले आ रहे हैं, क्योंकि 1940 के दौर से ही अनगिनत कम्युनिस्ट क्रांतिकारी जेलों में बंद रहे। तो यह लगातार संघर्षों की देन है। तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष के दौरान सुन्दरय्या के नेतृत्व में जरना जेल, वारंगल जेल, हैदराबाद जेल में संघर्ष का उदाहरण है। निजाम-विरोधी, उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों में और बाद में नक्सलवादी मूवमेंट और पीपुल्स वार मूवमेंट के दौर में संघर्ष की मिसालें हैं। इसीलिए पिछले तीस वर्षो में तेलंगाना में, बल्कि पूरे आन्ध्र प्रदेश में, जेलों की कोठरियाँं, जेल की हालत, कुछ बेहतर हो गयी है। एक और महत्वपूर्ण संघर्ष था जिसका जिक्र होना चाहिए जो दिसम्बर 1994 से मार्च 1995 के बीच चला था। पहली बार न केवल नक्सल कैदी बल्कि सामान्य कैदी भी एक साथ आये और पटेल सुधाकर रेड्डी एवं सखामूरी अप्पाराव, ये नक्सल कैदी थे, के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी जिसे आंध्र प्रदेश में एक ऐतिहासिक संघर्ष मानते हैं। तमाम लेखकों, बुद्धिजीवियों और मध्यवर्गीय लोगों का ध्यान इस ओर गया। तो तीन महीनों तक लगातार संघर्ष चला नक्सल कैदियों के राजनीतिक अधिकारों और समग्रतः सभी कैदियों के मौलिक अधिकारों के लिए। यहाँ तक कि मध्यवर्ग को पहली बार पता चला कि अगर कोई व्यक्ति जेल में है तो उसे केवल स्वतंत्र विचरण के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। बाकी सभी मौलिक अधिकार उसे रहेंगे भले वह जेल में हो। पारम्परिक रूप से पहले के हैदराबाद स्टेट में किसी उम्र कैदी को उसके अच्छे आचरण को देखते हुए छह या सात साल में छोड़ दिया जाता था। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जे0 वेंगलाराव ने 1976 में इस परम्परा का उल्लंघन किया। इसी कारण से यह संघर्ष चला और सफल भी हुआ। अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपना नजरिया बदल लिया है इसलिए उम्र कैद का मतलब उम्र भर के लिए कैद हो गया है और माओवादी पार्टी पर प्रतिबंध लगने के बाद से राजनीतिक बन्दियों के साथ घटिया बर्ताव किया जा रहा है। इसलिए आंँध्र प्रदेश और तेलंगाना की जेलों में मौत की खबरेें आती हैं। कुपोषण, स्वास्थ्य सेवाओं के एकदम अभाव और घटिया भोजन के कारण वे लोग खुदकुशी कर रहे हैं।
रामू रामनाथन: तो चन्द्रबाबू नायडू से लेकर आज प्रधानमंत्री मोदी...क्या रणनीति है आप लोगों की ?
वरवर राव: माओवादी पार्टी की रणनीति तो आप जानते ही हैं। इसकी रणनीति है दीर्घकालिक सशस्त्र संघर्ष। लक्ष्य है जनता को आधार बनाकर नवजनवादी क्रांति करना। सशस्त्र संघर्ष इस संघर्ष का मुख्य रूप होगा जिसमें जनसंगठनों के नेतृत्व में विभिन्न प्रकार के जनान्दोलनों की भागीदारी होगी। बुनियादी संघर्ष जमीन के लिए है। ’जमीन जोतने वाले की’ एक आर्थिक संघर्ष है। जैसा कि चारू मजूमदार ने कहा था ’जोतने वालों को जमीनें दिलाना बुनियादी आर्थिक संघर्ष है। जमींदारों के पिट्ठुओं से और पुलिस और स्टेट से इन जमीनों की रक्षा करने के लिए हथियारबंद गुरिल्ला संघर्ष की जरूरत पड़ेगी। यह संघर्ष का सैन्य रूप होगा। और अंत में सत्ता पर कब्जा। जिस तरह सोवियत रूस मंे सारी सत्ता सोवियतों को और चीन में कम्यूनों को देकर जनता को दे दी गयी थी, उसी तरह सारी सत्ता जनता को देनी है। अगर आप दण्डकारण्य में जनताना सरकार को देखेंगे तो आपको समझ में आयेगा कि यह एक राजनीतिक संघर्ष है। चारू मजूमदार इसे बड़े अच्छे से कहते हैं ’’बुनियादी आर्थिक संघर्ष है जमीन, गुरिल्ला युद्ध इस संघर्ष का सैनिक रूप है और राजनीतिक रणनीति है सत्ता पर कब्जा। यही पार्टी रणनीति है।’’ विरसम (विप्लव रचयिताला संघम) जैसे जनसंगठन के लिए हम कोई रणनीति या कार्यनीति नहीं बनाते हंै। हमारी योजना एक ऐसा साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करने की है जो नवजनवादी क्रांति के लिए संघर्ष में मदद करे। जैसा कि माओत्से तुंग कहते हैं, हर क्रांति के लिए दो तरह की सेनाओं की जरूरत पड़ती है, एक आधारभूत सेना जो बुनियादी संघर्ष करे और दूसरी सांस्कृतिक सेना जो इसे सहारा दे। प्रेमचन्द कहते हैं न ’’हम तो कलम के सिपाही हैं।’’ इतना ही कहूँगा मैं।
रामू रामनाथन: एक नयी बात यह देखने में आ रही है कि पारंपरिक वामपंथी और सेंट्रिस्ट पार्टियाँ एक दूसरे के करीब आ रही हैं...
वरवर राव: देखिए, इस समय तथाकथित वामपंथी यानि सी.पी.आई. और सी.पी.एम. या तथाकथित वाम मोर्चा अपनी सŸाा गंवा चुका है। तो ये लोग माक्र्सवादी लेनिनवादी पार्टियों की तरफ भी दोस्ती का हाथ बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अभी तो स्थिति यह है कि वे नहीं कह रहे कि हम सेंट्रिस्ट पार्टियों से हाथ मिलायेंगे। और सच तो यह है कि आज कोई पार्टी सेट्रिस्ट नहीं है। आप क्षेत्रीय पार्टियों को ले लीजिए जिनको सेट्रिस्ट पार्टियाँ कहा जा सकता है, क्योंकि ये पार्टियाँ दक्षिणपंथी पार्टियों की तरह साम्प्रदायिक नहीं कही जा सकती हंै। लेकिन आज ये सभी पार्टियाँ बीजेपी के पाले में हैं। पंजाब का अकाली दल, असम में असम गण परिषद्, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और आन्ध्र प्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी सब की यही स्थिति है। ये पार्टियाँ या तो एन.डी.ए.(छक्।) में शामिल हैं या फिर उसे समर्थन दे रही हैं। यहाँ तक कि तेलंगाना राष्ट्र समिति ने भी, जो कि एनडीए का हिस्सा नहीं है, लोक सभा में जमीन हड़पने वाले विधेयक का समर्थन किया था। वे लोग भले ही उसे भूमि अधिग्रहण विधेयक बोलते हों, लेकिन मैं उसे जमीन हड़पने का विधेयक बोलता हूँ। तो इस सबका मतलब यह है कि कोई पार्टी सेंिट्रस्ट नहीं है। आज भले ही सी.पी.आई., सी.पी.एम. और अन्य वामपंथी पार्टियाँ कह रही हों कि हम वल्र्ड बैंक प्रोग्राम के या वैश्वीकरण के खिलाफ हैं। लेकिन जब वे सत्ता में रहे, विशेषतः पं0 बंगाल और केरल में, तब उन्होंने भी वल्र्ड बैंक प्रोग्राम के हिसाब से काम किया था। मतलब यह कि कोई भी संसदीय पार्टी जब-जब सत्ता में आयी है, उसने वल्र्ड बैंक प्रोग्राम की चाकरी की है और वैश्वीकरण की नीति लागू करने की भरसक कोशिश की है। इसकी सबसे बढ़िया मिसाल, आप वाम मोर्चे के लिए सबसे घटिया मिसाल कह सकते हैं, नंदीग्राम आंदोलन, सिंगूर आंदोलन या जंगलमहाल आंदोलन के रूप में प0 बंगाल में देखने को मिली। उसके हाथ से सत्ता निकलने का तात्कालिक कारण था वैश्वीकरण की नीति लागू करना। तृणमूल कांग्रेस उस वक्त इसका विरोध कर रही थी इसलिए सत्ता उसे मिल गयी। आज सरकार में आकर तृणमूल भी वही प्रोग्राम लागू करा रही है। तो बेशक हम लोग मोदी के इस युग में साम्प्रदायिकता और हिन्दुत्व के खिलाफ साथ मिलकर कोई प्रोग्राम ले सकते हैं। गुजरात नरसंहार के दौरान हमने सी.पी.आई. और सी.पी.एम. के साहित्यिक संगठनों तथा जनसंगठनों के साथ काम किया था। आज भी, हम साथ काम कर रहे हैं। जैसे कि जमीन के सवाल पर हम साथ काम कर रहे हैं। लेकिन संसदीय तौर-तरीकों को अपनाते हुए जब वे लोग सत्ता में आयेंगे तब वे वल्र्ड बैंक के रास्ते पर नहीं चलेंगे, ये मैं विश्वास के साथ नहीं कह सकता। तो जब तक यह तथाकथित वामपंथ संसदीय रास्तों से अपने कदम नहीं हटाता, मुझे नहीं लगता कि उनसे किसी तरह की एकता कायम हो सकती है।
रामू रामनाथन: पारंपरिक वामपंथ क्यों इतना कन्फ्यूज है ?
वरवर राव: ये सवाल कन्फ्यूजन का है ही नहीं। सवाल है कि क्या आप चुनाव के रास्ते सत्ता में आना चाहते हैं ? जब तक कोई पार्टी इस फ्रेमवर्क में काम करती रहेगी तब तक ’कन्फ्यूज’ रहेगी। अगर वे समझते हैं कि असली सŸाा चुनाव से, वोटों से आती है, तो यह उनका भ्रम है। जब तक कोई पार्टी या कोई संगठन या जनांदोलन केवल चुनाव के फ्रेमवर्क में सोचेगा, तब तक यह भ्रम बना रहेगा। तो आपको जनता के संघर्षों में उतरकर साम्राज्यवाद और सामंतवाद से लड़ना है या नहीं, यह तय करना पड़ेगा। इस देश की अर्द्धसामंती, अर्द्ध औपनिवेशिक, काॅम्प्रडोर (दलाल) व्यवस्था से अगर लड़ना है तो हमें अपने मन में बिल्कुल स्पष्ट रहना होगा। और चूंकि यह व्यवस्था स्टेट मशीनरी के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, इसलिए आपको यह तय करना पड़ेगा कि आपको इस स्टेट के खिलाफ जी जीन से लड़ना है या नहीं लड़ना है। नहीं तो तब तक जिसे आप कन्फ्यूजन कह रहे हैं, वह कन्फ्यूजन बना रहेगा।
रामू रामनाथन: महाराष्ट्र से लेकर गुजरात, उत्तर प्रदेश, केरल, मैं जहाँ भी घूमा, मैंने देखा कि स्थानीय स्तर पर त्ैै ने पिछले दो साल के भीतर पैसे के बल पर और धर्म की आड़ में हजारों शाखाएं और संगठन स्थपित कर लिये हैं। लेकिन इसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी दे रही। जनांदोलन त्ैै के ऐसे तौर-तरीकों का जवाब कैसे देंगे?
वरवर राव: आपको मालूम होगा कि 2014 के आम चुनाव के समय बीजेपी की मदद के लिए RSS ने हजारों कार्यकर्ता उपलब्ध कराये थे। यानि उन्हें RSS से छुट्टी देकर बीजेपी में भेज दिया। आज देखिए राम माधव और मुरलीधर जैसे आदमी पूरी तरह से बीजेपी के बन चुके हैं। यहाँ तक कि अमित शाह को बीजेपी का अध्यक्ष बना दिया गया है। ऐसा नहीं है कि ये सब आज हो रहा है। 1940 के दौर से ही RSS इसी तरीके से काम करता आया है। RSS बहुत लचीला होकर यह काम करता है। मैंने इमरजेंसी के दौरान देखा था। आदिलाबाद का कांग्रेस पार्टी का जिलाध्यक्ष हमारे साथ जेल में बंद था। तो हमने पूछा उससे कि तुम तो कांग्रेसी हो, तुम्हें कैसे जेल हो गयी? उसने बताया कि ’मैं दरअसल त्ैै का आदमी हूँ और कांग्रेस में घुस कर RSS का ही काम कर रहा था। सरकार यह बात जान गयी। इसलिए मुझे जेल में डाल दिया।’’ तो RSS ऐसे तरीके अपनाता रहता है। जब RSS को बैन किया गया था, तो उसने अपना नाम बदलकर राम सेवक संघ रख लिया। चूंकि त्ैै के पास कोई दर्शन नहीं है सिवाय हिन्दुत्व के और हिन्दुत्व दर्शन है हिंसा का और वर्चस्ववादी विचारधारा का, इसलिए त्ैै जब मन चाहे लचीला हो सकता है। जबकि जनता का मूवमेंट, खासतौर से रिवोल्यूशनरी मूवमेंट कुछ निश्चित सिद्धांतों पर चलता है और इसलिए हम उतने लचीले नहीं हो सकते। लेकिन हमें संघर्ष के लिए कुछ नये तौर-तरीके तो ईजाद करने ही होंगे। आज हमारे पास मौका है कि सभी गैर-हिन्दुत्व शक्तियांें का एक बड़ा संयुक्त मोर्चा बनाया जाये। दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, स्त्रियों और गैर-ब्राह्मणवादी वर्गों को संगठित करने के लिए हमें बहुत व्यवहार कुशल और कलात्मक बनना होगा। इन लोगों का एक मोर्चा बनाना होगा। ऐसा एक प्रयास मुम्बई रेजिस्टेन्स-2004 के नाम से शुरू किया गया था, जिसमें हमने 300 से 400 संगठनों को जोड़ा था। लेकिन वैसा प्रयास बाद में नहीं हो पाया।
(यह इंटरव्यू रामू रमानाथन ने लिया था जो जाने माने नाटककार और एक्टिविस्ट है। 26 सितम्बर 2014 केा प्रेस क्लब, मुम्बई में अरुण फरेरा की किताब ’कलर्स आॅफ दि केज’ के लोकार्पण के मौके पर थोड़ी-सी बातचीत के साथ यह इंटरव्यू शुरू हुआ था। उसके बाद ई-मेल पर लम्बा संवाद हुआ। अन्ततः उसी संवाद को एक तरतीब में प्रश्नोŸार के रूप में ढाला गया।)