Powered By Blogger

Friday, July 31, 2015

कुछ भी भूला नहीं जा सकता


झूठ और अफवाहों के सुपरबाजार में विकास और राष्ट्रवाद के क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हुए आसान किस्तों में आप कुछ भी खरीद सकते हैं: सप्ताहांत की रातों में भारी खर्चे से हासिल की गई सस्ती खुशियों से लेकर महानगरों और कस्बों में अल्पसंख्यकों पर हमलों के सिलसिले तक को. यहां तक कि सच्चाई को भी. ऐसे वक्त में ये कुछ नोट्स हैं, यादें हैं, सवाल हैं और टिप्पणियां हैं जो ताकत के पुर्जों द्वारा जिंदगी को मुश्किल बनाए जाने की सारी कोशिशों के बावजूद अपनी जगह पर कायम हैं.

रेयाज उल हक

बावजूद

  • दसियों लाख का सूट पहनने के बावजूद राजा का नंगापन नहीं छुपता.
  • वोटों से चुने जाने के बावजूद जनसंहार का एक अपराधी, अपराधी ही रहता है. उसका जुर्म एक नहीं मिटने वाली स्याही है. 
  • दुनिया के सबसे पुराने विज्ञान, सबसे पुराने इलाज के तरीके और सबसे पुराने व्यायाम के तरीके में महारत के दावे के बावजूद, किसी व्यक्ति को उसके हिंसक छिछोरेपन से निजात सिर्फ एक ही चीज दिला सकती है: इलेक्ट्रिक चेयर.
  • दुनिया की बेहतरीन सुरक्षा में दिन गुजारने के बावजूद इंसान का एक भी पल खौफ से महफूज नहीं.
  • सबसे तेज चलनेवाली गाड़ियों के बावजूद इंसान कहीं पहुंचता हुआ नहीं दिखता.
  • हिसाब लगाने में बेजोड़ मशीनों के बावजूद दुनिया रोज और भी जटिल और उलझी हुई नजर आती है.
  • पूंजी की फिक्र करते रहने के बावजूद ज्यादातर लोग सूद का जीवन जीते हैं और कर्ज की मौत मरते हैं.
  • नसीब वाला होने के बावजूद कोई भी गुंडा एक दिन तारीख के तख्ते पर अपनी गरदन की नाप देने की किस्मत से बच नहीं सकता.
  • जीता जागता इंसान होने के बावजूद उसे मिट्टी की मूरतों से अलगाने के लिए बेजान शब्दों से लिखी गई सुर्खियों की जरूरत पड़ती है.
  • 'बावजूद' का इस्तेमाल करने के बावजूद लोग वाक्यों में 'भी' जोड़ते हैं और इस दोहराव के बावजदू मानी पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

इस्पात हमें भुरभुरा बना रहा है

इस्पात मजबूती की पहचान है. बड़ी इमारतें और पुल. रेलवे का जाल. हवाई जहाज और जरूरी मशीनें. गाड़ियां. देशों की तरक्की को मापने का एक पैमाना यह भी है कि वे प्रति व्यक्ति इस्पात की कितनी खपत करते हैं. जो मुल्क ताकतवर बनना चाहते हैं, जो दूसरे मुल्कों की ताकत आजमाने के लिए फौज और उद्योगों का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करते, उन्हें इस्पात की जरूरत है. इस्पात उनकी माली सेहत की भी पहचान है.

लेकिन क्या इतिहास में इस्पात के इस्तेमाल को इसलिए याद नहीं रखा जाना चाहिए कि उसने इंसानी तंदुरुस्ती को कितनी बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है और उन समाजों को तहस नहस करने की ओर ले गया है, जिनका जरा भी साबका इस्पात से पड़ा हैॽ

आदिवासी इलाकों और जंगलों में, जहां लोहे का अयस्क पाया जाता है, इस्पाती कानून अवाम की गुलामी को जायज ठहराते हैं. फौजी ताकतों के बल पर लोग बेदखल किए जाते हैं. गांव जलाए जाते हैं, औरतों के साथ बलात्कार होता है, बच्चों की उंगलियां काट ली जाती हैं, ताकि वे इस्पात के भूखे बहुराष्ट्रीय निगमों की बेपनाह ताकत के आगे तनने का साहस न कर सकें.

बहुराष्ट्रीय कंपनियां, इस्पात के कारोबार को बुलंदी तक पहुंचाने के लिए रिश्वत से लेकर फौजी तख्तापलट तक की मदद लेती हैं, ताकि सड़कों से लेकर आसमान चूमने वाली इमारतों तक में खून ले जाने वाली रगों की तरह इस्पात का जाल बिछाया जा सके.

वह इस्पात जो दुनिया में बनने वाली कुल कार्बन डाइऑक्साइड गैस के तीस फीसदी का एकमुश्त जिम्मेदार है.

यानी सांस की तकलीफें और दिल की बीमारियां: दिल के दौरे, सांस फूलना, धड़कन में कमी आना, कोमा और मौत. खून में एसिड की बढ़ोतरी, एनोक्सिया और मौत.

सूखा. बाढ़. बादल का फटना. बेमौसम बरसात. पहाड़ की बर्फीली नदियों का पिघलना जो समंदर किनारे गांवों को कब्रगाहों में तब्दील कर रहा है.

यह वो गैस है, जो अकेले दुनिया के अब तक के इतिहास की, जान की छठी सबसे बड़ी आम तबाही की ओर ले जा रही है, जिसमें जानवर और दूसरी जानदार नस्लों का सामान्य से सौ गुना तेज रफ्तार से खात्मा हो रहा है: वाल स्ट्रीट से रवाना की गई एक विशाल इस्पाती ट्रेन हाथी, गेंडे, ध्रुवीय भालू, रेंगने और तैरने वाले जीवों की कई नस्लों को ऑसवित्ज के गैस चेंबर की ओर ले जा रही है (आखिरी ट्रेन की सारी सीटें सिर्फ इंसानों के लिए रिजर्व हैं). जानकारों का कहना है कि धरती की तीन चौथाई जानदार नस्लें महज दो पीढ़ियों के दरमियान खत्म हो सकती हैं.

पिछली ऐसी तबाही 6.6 करोड़ साल पहले हुई थी, जिसने डायनासोरों को धरती की सतह से मिटा दिया था. उस तबाही की वजह एक एस्टेरॉयड का धरती से टकराना था.

‘आबोहवा में बदलाव’. ‘पर्यावरण को नुकसान’. इस तबाही की वजह बताई जा रही है. लेकिन जो नहीं बताया जाएगा वो यह है कि ये आर्सेलरमित्तल एंड कंपनी के बदले हुए नाम हैं.

इस तबाही से जो अकेली चीज दुनिया को बचा सकती थी, हरे भरे जंगलों की पट्टी, वह इस्पात और दूसरी धातुओं की तलाश में उधेड़ कर मलबे में तब्दील की जा रही है.

तो अगली बार, जब आप खांसी, सिरदर्द, बुखार, कमजोरी, हाथ पैरों में सूजन, कै-दस्त की शिकायत से परेशान हों, तो पता लगाने की कोशिश कीजिए, कि आपके आस-पास कौन सा बहुराष्ट्रीय निगम राष्ट्रवाद के डंडे में इस्पात का परचम फहराने की कोशिश कर रहा है.

इस्पाती सवाल

अगले साल जब ब्राजील ओलंपिक खेलों की मेजबानी कर रहा होगा, जो इस देश में दो बरसों के भीतर दूसरा बड़ा अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन होगा, तो पूछे जानेवाले सवालों में सबसे ऊपर पदकों की जानकारी नहीं बल्कि यह होना चाहिए कि इन खेलों ने सांस और दिल की बीमारियों से कितने इंसानों की जान ली, जीवों की कितनी नस्लों को तबाही के करीब ले आया. ब्राजील दुनिया में लौह अयस्क का दूसरा सबसे बड़ा और इस्पात का पंद्रहवां सबसे बड़ा निर्यातक है.

और यह सवाल भी, कि क्यों नहीं एक पदक ब्राजील को-और सभी इस्पाती मुल्कों को-इसके लिए भी दिया जाए कि उन्होंने दुनिया भर पर छाती जा रही धुंध और कोहरे की परत में अपनी भागीदारी निभाई है.

याद रखिए, ब्राजील में ये खेल झुग्गियों और गरीब लोगों की बस्तियों को उजाड़ कर बनाए गए खेल के आरामदेह इलाकों में आयोजित किए जाएंगे. उजाड़े गए लोग रबड़ की और असली गोलियों का निशाना बनते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ना जारी रखे हुए हैं.

लोहे से प्यार

दुनिया में सबसे बड़ी इस्पात निर्माता कंपनी का मालिक एक भारतीय है. और भारत चौथा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है. लेकिन जो बात कहीं अधिक जरूरी है, वह ये नहीं है.

बल्कि ये है कि यहां लोहे का रिश्ता रहनुमाओं और उनकी रहनुमाई में होनेवाले कत्लेआमों के साथ जुड़ा है.

हम रहनुमाओं की शख्सियत को लोहे से जोड़ कर देखने के आदी हैं. या शायद कत्लेआम सेॽ पहले लौह पुरुष की रहनुमाई में इस मुल्क में कत्लेआमों का एक भयावह सिलसिला चला, जिसमें दसियों लाख लोग फौजी और आपसी कत्लेआम में मारे गए. अनेक आजाद रियासतों और देशों को एक अकेली सरहद का हिस्सा बनाने की तारीख भी उन्हीं के नाम दर्ज है.

दूसरी लौह ‘पुरुष’, असल में वे एक स्त्री थीं, की बदौलत आने वाली हुकूमतों को यह सबक मिल सका कि कैसे संविधान और लोकतंत्र के दायरे में खुलेआम फासिस्ट तानाशाही लागू की जा सकती है. और यह भी कि कैसे यह किया जाए और इसे एक नाम देने से बचा जाए.

तीसरे लौह पुरुष ने एक मिथकीय चरित्र की जन्मभूमि के लिए एक यात्रा की शुरुआत की, जिसने अपनी राह में फिरकों के बीच न पाटी जा सकने वाली खाई और तबाही का एक अटूट सिलसिला छोड़ा, जिसके जख्मों से यह मुल्क आज तक निजात नहीं पा सका है.

चौथे लौह पुरुष हुकूमत में हैं और अपनी सेल्फी ले रहे हैं. पिछवाड़े में पड़ी लाशों, खून, धुआं, राख और तबाही को फ्रेम से बाहर रखते हुए.

जुबान भी एक दुनिया है

  • यह एक ऐसी दुनिया है, जिसमें फासीवाद को लोकतंत्र कहा जाता है और गुलाम बनाने की अमानवीय जाति व्यवस्था को अदालतें जीवन शैली कहती हैं.
  • पुलिस और फौज जनसंहारों और सामूहिक बलात्कारों को अंजाम देने के लिए सार्वजनिक पैसे से बनाई गई संस्थाएं हैं, जिन पर देश की इज्जत बचाने के लिए गांव-कस्बों-जंगलों को तबाह करने की जिम्मेदारी है. वह देश, जिसे यहां की हत्यारी जीवन शैली में माता का दर्जा प्राप्त है.
  • जहां औरतें जानवरों की तरह अमानवीय जिंदगी जीने पर मजबूर हैं और गायों की पूजा माता के रूप में होती है.
  • महिलाओं के खिलाफ गालियां लैंगिक न्याय के लिए जारी क्रांति के नारों में तब्दील हो जाती हैं और खाप पंचायतें इस क्रांति के लिए बने संयुक्त मोर्चे की सबसे बड़ी ताकत होती हैं.
  • जहां पीड़ितों की पहचान छुपाने की जरूरत पड़ती है और अपराधी मूंछे ताने संसद में बैठते हैं.
  • जहां संसाधनों की लूट को देश का विकास कहा जाता है और कर्फ्यू को शांति.
  • 'स्थिति नियंत्रण में है'- ऑपरेशन कत्लेआम का कोड वर्ड है.
  • जेलों में कैदियों की तादाद बढ़ने का नाम राष्ट्रीय वृद्धि दर है.
  • अखबार आपको अपनी दुनिया की असलियत जानने से रोकने के लिए छपते हैं और चैनलों पर आप जो देखते हैं उसका आपकी जिंदगी से कुछ भी लेना-देना नहीं होता.
  • इंडिया गेट औपनिवेशिक गुलामी के सबसे क्रूर प्रतीकों में से एक है, जहां राष्ट्रीय संप्रभुता के बड़बोले दावेदारों की आखिरी उम्मीदें मोमबत्तियों से रोशन होती हैं.
  • जंतर मंतर वक्त की वह मीनार है, जिसकी एक तरफ कॉरपोरेट भारत के हिंसक दुर्ग हैं और दूसरी तरफ विस्थापित, पीड़ित लोगों की अनसुनी आवाजें. यहां की घड़ी रुकी हुई, जिसको चलाने की कोशिशें अपराध हैं और इसके लिए समय समय पर जुटी जनता को आपातकाल और लाठियों का सामना करना पड़ता है. उसके पार संसद है, जो अपनी घड़ी जंतर मंतर से नहीं, वाशिंगटन से मिलाती है.
  • यहां मध्यवर्ग का हिस्टीरिया क्रांति है और दलितों-आदिवासियों-मुस्लिमों का आंदोलन आतंकवाद या अराजकता.
  • विश्वविद्यालय 'मेरिटोरियस' जाहिलों के लिए लाभ की जगहें सुनिश्चित करने के एक्सचेंज हैं.
  • जन अदालतों पर लानत भेजी जाती है और शहरों-कस्बों की सड़कों पर पीट पीट कर दलितों-पिछड़ों-मुस्लिमों मार देने की घटनाएं लाइव-एक्सक्लूसिव के रूप में दिखाई जाती हैं. आप इन्हें अपने डाइनिंग रूम में पॉपकॉर्न खाते हुए बदमजा कर देने वाले एनिमेटेड वीडियो के रूप में कभी भी देख सकते हैं.
  • आपबीती सुनाती और गुस्सा जताती आवाजों को कविता बता कर वाह वाह कहा जाता है और सवाल करती, जवाब देती कविताएं नारेबाजी कह कर खारिज कर दी जाती हैं.
  • यहां चुप रहना सबसे बड़ा विद्रोह है और बोलना गुस्ताखी है, जिसकी सजा मौत भी हो सकती है और पिछड़े इलाकों की बेहतरी पर बनी किसी कमेटी की सदस्यता भी.
  • खेती एक ऐसा बोझ है, जिसकी तरक्की का सारा जिम्मा उनके कंधों पर है, जिनके पास जमीनें नहीं हैं. जमीनों की मांग करती हुई आवाजें सरकार के सामने देशद्रोह हैं और बुद्धिजीवियों के आगे कुफ्र.
  • बातचीत फर्जी मुठभेड़ों का पूर्वकथन है.
  • पोस्टमार्टम रिपोर्टें एक खुफिया दस्तावेज होती हैं और जानकारी मांगने की कीमत जान देकर चुकानी पड़ती है.
  • पाठ (टेक्स्ट) यथार्थ के बारे में नहीं बताते बल्कि यथार्थों का निर्माण पाठों के आधार पर होता है. इस आधार पर हम भौतिक अस्तित्व का एक मानवीय पाठ भर हैं.

गोरखे का प्रतिशोध

‘आप इसे फौजी मेस में पकाएंगेॽ’

दक्षिणी दिल्ली में भैंस के गोश्त की एक दुकान पर, गोश्त छांट रहे उस गोरखे फौजी ने चेहरा घुमाया.

ये वे दिन थे, जब देश में एक के बाद एक राज्य सरकारों ने गोमांस के साथ साथ भैंस के मांस पर भी प्रतिबंध लगाना शुरू किया था।

राष्ट्रीय राजधानी के पड़ोसी राज्य में गोमांस खाने या रखने पर 5 साल कैद और 50,000 रु. जुर्माने की सजा का कानून लागू किया गया था. पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र में भी ऐसा ही कानून लाया गया था.

‘अगर आप एक रेस्टोरेंट में भी खाना खा रहे हों, हो सकता है कि एक पुलिसकर्मी आपके पास आकर पूछे कि आप क्या खा रहे हैं. ऐसी ही आशंका आपके घर के निजीपन में दखल की भी है.’

अखबारों में चिंताएं जाहिर की जा रही थीं.

जाती हुई सर्दियों के उन्हीं दिनों में करीब दस गोरखा भारतीय फौजियों का एक दल इस छोटी सी दुकान को घेरे खड़ा था.

‘नहीं. हमको मेस में पकाने नहीं देगा वो. बाहर बनाएगा. जंगल में.’ उस फौजी ने कहा.

कवि की चिंता

फासीवाद विरोधी एक सांस्कृतिक सम्मेल में एक वरिष्ठ पत्रकार ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न जेल में बंद एक युवा संस्कृतिकर्मी की रिहाई की मांग करते हुए प्रगतिशील संस्कृतिकर्मी और कवि-लेखक एक दिन का धरना करें.

सत्र के आखिर में जब श्रीमान डी अपना अध्यक्षीय संबोधन देने आए तो उन्होंने इस प्रस्ताव को नकारने में एक पल भी बर्बाद नहीं होने दिया, ‘मैं कवि हूं और मेरा मूल्यांकन मेरी कविताओं के आधार पर ही होना चाहिए. इसके अलावा मुझसे कोई भी अपेक्षा नहीं रखी जाए, क्योंकि कवि होने के नाते मेरी जिम्मेदारी सिर्फ कविता लिखना है.’

‘और मनुष्य होने के नाते क्या इनका कोई दायित्व नहीं हैॽ’

‘मनुष्य होने के नाते ही तो वे कवि हैं.’ मि. एच ने समझाया.
 

समयांतर, जुलाई 2015 अंक में प्रकाशित

No comments: