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Tuesday, May 19, 2015

कविता जंजीरों की कैद को नहीं मानती





रंजीत वर्मा ने हाशिया का ध्यान इस बात की तरफ दिलाया है कि उनकी लिखी जिस पोस्ट कोकविता:16 मई के बाद का आधार वक्तव्य बता कर अंजनी कुमार ने 'एक हिस्सेदार के बतौर' उसकी आलोचना अब जाकर लिखी है, वह आठ माह पुरानी है. इसी संदर्भ में उन्होंने हाशिया को उस आधार वक्तव्य की जानकारी दी है, जो इस अभियान की वेबसाइट पर 15 मई 2015 को प्रकाशित हुआ है. यहां पेश है यही आधार वक्तव्य, जो कविता: 16 मई के बाद की मौजूदा राजनीतिक और सांस्कृतिक समझदारी को जाहिर करता है. मालूम हो, कि यह अंजनी कुमार के लेख का, रंजीत वर्मा द्वारा दिया गया जवाब नहीं है, बल्कि पहले से ही तैयार किया जा चुका आधार वक्तव्य है, जिसे ‘17 मई 2015 के कार्यक्रम में पढ़ा जाना है और परिप्रेक्ष्‍य निर्माण के लिए इसका अग्रिम प्रकाशन’ किया गया है. 17 मई को होने वाले कार्यक्रम के बारे में द हिंदू की यह खबर भी देखी जा सकती है.




पिछले साल 11 अक्टूबर को दिल्ली के प्रेस क्लब में ’कविता: 16 मई के बाद’ का पहला आयोजन हुआ था और तब से अब तक दिल्ली समेत उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पंजाब में कुल नौ कार्यक्रम किये जा चुके हैं। सभी कार्यक्रमों में लोगों की बड़ी संख्या में भागीदारी और उत्साह को देखकर कहा जा सकता है कि यह आयोजन अब एक आंदोलन का रूप ले चुका है और अब समय आ गया है कि पूरे देश में जल-जंगल-जमीन के सवाल के साथ-साथ सांप्रदायिकता, सामाजिक-आर्थिक नाइंसाफी और काॅर्पोरेट लूट के खिलाफ जो आंदोलन चल रहे हैं, उनसे कविता को सीधे जोड़ा जाए ताकि कविता को आचार्यों और मठाधीशों के चंगुल से मुक्ति मिले और वह दूरदराज के गांवों और गलियों की उठती धूल से अपना निर्माण कर सके। कविता अगर रोटी और आजादी पाने की लड़ाई है तो फिर कविता वैसे लोगों के पास क्या कर रही है जिनके पेट और गोदाम अनाजों से भरे पड़े हैं? उसे तो वहां उनके पास होना चाहिए जो रोटी और इंसाफ के मोर्चे पर रात दिन डटे हुए हैं। कविता यदि वहां नहीं है तो क्यों? उन्होंने कविता को जंजीरों में क्यों जकड़ रखा है? ’कविता: 16 मई के बाद’ मानवता और कविता दोनों की मुक्ति की लड़ाई है। 




हिंदी साहित्य के इतिहास की यह आमफहम घटना है जहां हम देखते हैं कि जरूरतमंद करोड़ों लोगों को कविता के आसपास भी फटकने नहीं दिया जाता। वे तो वैसी कविताओं को भी बाहर का रास्ता दिखा देते हैं जो कविता मेहनतकशों की बस्तियों की तरफ निकल पड़ती है। यह सब वे कविता की पवित्रता के नाम पर करते हैं जबकि असल मकसद कला और अभिव्यक्ति की दुनिया में अपना वर्चस्व बनाए रखना होता है। ’कविता: 16 मई के बाद’ उनके इस मकसद पर हमले की तरह है। प्रतिरोध की कविता को साहित्य में कभी वह स्थान नहीं दिया गया जो किसी भी साहित्यिक वाद, जैसे कि छायावाद, प्रतीकवाद, प्रयोगवाद, अकवितावाद आदि इत्‍यादि में समा जाने वाले कवियों की खराब कविताओं को भी प्राप्त है। फिर यह सवाल भी दिमाग को मथता है कि एक कवि की तीस, चालीस या पचास साल के अंतराल में लिखी गई तमाम कविताएं क्या एक ही साहित्यिक वाद के अंतर्गत आ सकती हैं? क्या निराला पूरे के पूरे छायावादी हैं? क्या धूमिल को पूरा का पूरा अकवितावाद का कवि माना जा सकता है? मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर या रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना किस साहित्यिक वाद के कवि थे? अंतिम वाद के तौर पर जब अकवितावाद खत्म हुआ और उपरोक्त कवियों के प्रतिरोध का स्वर कविता में मुखर हुआ और आगे चलकर इसी स्वर को आगे बढ़ाते हुए नक्सलबाड़ी आंदोलन से निकले कवि या बाद में उस धारा से जुड़े जो कवि आए, उन सब को कहां रखा जाए? 




यह तो तय है कि विशुद्ध साहित्यिक वाद में अंटने वाले कवि ये नहीं हैं। खैर, वे इस प्रतिरोध को किसी वाद का नाम दें या नहीं लेकिन पिछले पचास साल से कविता का मुख्य स्वर राजनैतिक चेतना से लैस जनपक्षधर कविताओं का ही रहा है। भले ही इस दौरान जनपक्षधरता के स्वर को दबा देने की भरपूर कोशिश की जाती रही हो, लेकिन अब 16 मई 2014 के बाद सत्ता में पहुंची फासीवादी सरकार के खिलाफ कविता में प्रतिरोध का जो विस्फोट उभरा है उसे दबा देना सत्ता या साहित्य के किसी भी मठाधीश के लिए संभव नहीं रहा। फिर भी जाहिर है कि कोशिश उनकी जारी रहेगी क्योंकि प्रतिरोध को वे एक साजिश के तहत नकारते हैं। दरअसल, प्रतिरोध की कविता को नकार कर वे सत्ता के प्रति अपनी वफादारी निभाते हैं। सत्ता प्रतिष्ठानों को तब ऐसी कविताओं से बचने में बहुत मदद मिलती है। उसे कविता में पूछे गए सवाल का जवाब देना भी जरूरी नहीं लगता क्योंकि वैसी कविताओं की तो साहित्य के अंदर ही कोई मान्यता नहीं है, फिर वह क्यों परेशान हो। परेशान तो कविता खुद हो जाती है। उसे अपनी ताकत का बड़ा हिस्सा साहित्य के अंदर खुद को साबित करने में झोंक देना पड़ता है। मुक्तिबोध की कविताएं इसका उदाहरण हैं। दूसरी ओर साजिश रचने वाले अपने इस कुकर्म के एवज में सत्ता से हमेशा कुछ न कुछ पाने की स्थिति में होते हैं।    




बहरहाल, अब समय आ गया है कि कविता की इस मुहिम को राजधानियों और शहरों से निकाल कर दूरदराज के इलाकों और वहां की जिंदगानियों के बीच ले जाया जाए। यह कोई आसान काम नहीं है, इसके बावजूद साहित्यकारों को यह काम करना होगा चाहे इसमें जो भी जोखिम हो क्योंकि जोखिम नहीं उठाने वाला जो दूसरा रास्ता है वहां साहित्यकारों को अपनी सफलता, समृद्धि और रोशनी की जगमगाहट भले दिखाई दे लेकिन वहां खुद साहित्य के बचे रहने की संभावना नहीं होती।




इस बात पर शायद ही किसी को संदेह हो कि 16 मई के बाद सब कुछ उसी तरह सामान्य नहीं रह गया है जैसा कि सत्ता की तमाम बुराइयों और राजनीतिक आपदाओं के बाद भी पहले रहा करता था। अब तो यह लगता ही नहीं कि यह कोई चुनी हुई सरकार है जो हमारे भले के लिए कुछ करने का सोच भी रही है। इसका तो एकमात्र काम लगता है हम पर नजर रखना, हमें किसी भी तरह अपराधी साबित करना और जो कुछ भी हमारे पास है उसे किसी भी बहाने छीन लेना। कागज़ात के पुलिंदे तैयार किये जा रहे हैं एक-एक व्यक्ति के लिए। बिना कागज़ात के नागरिक को नागरिक नहीं माना जाएगा, उसकी संपत्ति को उसकी संपत्ति नहीं माना जाएगा, आपको पति-पत्नी होने का प्रमाण भी अपने पास रखना होगा नहीं तो इस देश की सबसे बड़ी अदालत भी आपके संबंध को जायज नहीं ठहरा पाएगी। जाहिर है कि आने वाले दिनों में राज्यसत्ता को यह हक होगा कि वह आपको जब जी चाहे आपकी जमीन से, संबंधों से दर बदर दे। इस सरकार के एक साल पूरे होते-होते जिस तरह के भयानक दृश्य सामने दिखाई दे रहे हैं, उसे देखकर भी किसी की नींद न टूटे तो उसे अपनी नींद पर शर्म आनी चाहिए क्योंकि उसकी यह नींद हजारों-लाखों मौतों की वजह बन सकती है। क्या इन सबके बाद भी आपको लगता है कि जोखिम नहीं उठाने का कोई विकल्प है आपके सामने? जाहिर है कि नहीं है। 




फिर भी कुछ साहित्यकार हैं जो चकित होकर पूछते हैं कि ऐसा क्या हो गया 16 मई के बाद कि हम पुरस्कारों, विभिन्न सरकारों द्वारा प्रायोजित साहित्यिक आयोजनों-उत्सवों, संस्थानों-अकादमियों द्वारा दिये जाने वाले वजीफों, विदेश यात्राओं के अवसरों और सरकारी रियायतों को शक की निगाह से देखें और उनका बहिष्कार करें। कुछ लोग तो खैर ऐसे हैं जो जनता के पैसे का हवाला देकर जयपुर और फिर लखनऊ, बनारस, पटना तक चले जाते हैं। उन्हें लगता ही नहीं कि वहां जाकर वे कोई गलत काम कर रहे हैं। वे समझ ही नहीं पा रहे या समझ कर भी नहीं समझना चाह रहे कि इस तरह वे आम जन की पीड़ा से दूर होते जा रहे हैं। बिहार सरकार द्वारा प्रायोजित कथा उत्सव के बीच भूकंप आ जाता है और पचास से ज्यादा लोगों की मृत्यु बिहार में हो जाती है। नेपाल की तो बात ही जाने दीजिए- वहां का तो कहना मुश्किल है कि कितने लोग मरे, बेघर हुए। इस सब के बीच कहानी पाठ अनवरत चलता रहता है। कुछ लेखक कसमसाए, लेकिन सरकार के आश्वासन पर कि सब ठीक है, शांत होकर बैठ गए। एक मिनट के लिए भी उन्होंने नहीं सोचा कि सरकार के आश्वासन पर वे शांत कैसे हो गए। उनकी संवेदना का यह कैसा विचलन है? जनता का लेखक ऐसा नहीं कर सकता। फिर वे किसके लेखक हैं?




क्या 16 मई के बाद जो दूसरी बची खुची सरकारें हैं इस देश में यानि कि जो गैर-भाजपा सरकारें हैं, क्या वे भी ऐसी हैं कि उन पर भरोसा किया जा सके? विकास और सांप्रदायिकता के बीच आज जिस तरह की लय और ताल नजर आ रही है, उसके बीज वहीं तलाशे जाने चाहिए जब भाजपा सत्ता में नहीं थी। यह भी याद रखने की जरूरत है कि इन्हीं स्थितियों ने और इन्हीं दूसरी सरकारों की पार्टियों ने भाजपा के सत्ता में आने की जमीन तैयार की। आज उन्हीं की वजह से पूरा देश अफवाह, घृणा, लूट और हिंसा की भाजपाई गिरफ्त में जा फंसा है। भाजपा बेहद खतरनाक इरादों के साथ आई है सत्ता में, बल्कि कहना यह चाहिए कि उसके खतरनाक इरादों को देखते हुए ही उसके सत्ता में आने की जगह बनाई गई। बीसवीं शताब्दी के शुरू में नीत्‍शे ने कहा था कि ’कोई भी नई व्यवस्था भयानक और हिंसक शुरूआत के बिना पनप नहीं सकती।’ आगे उसने विलाप करते हुए पूछा था ’कहां हैं बीसवीं शताब्दी के बर्बर?’ जवाब के रूप में तब हिटलर सामने आया था। फिर कार्ल जुंग भावावेश में हिटलर का वर्णन करते हुए उसे लगभग भगवान का अवतार ही कह बैठा था। कुछ वैसी ही पृष्ठभूमि और वैसी ही गुहार पर यहां भी मोदी का आगमन हुआ है और अब ऐसे भी लोग आ गए हैं जिनका साफ मानना है कि इस देश का उद्धार मोदी ही कर सकता है। बस समझ लीजिए कि बर्बरता आपके दरवाजे पर खड़ी है, लेकिन आपके लिए उसे चिन्हित कर पाना इतना आसान नहीं होगा। वह हमेशा पर्दे में होता है। यही उसकी सफलता की वजह भी है। ग्राम्शी लिखते हैं, ’’फासीवाद इसलिए सफल हुआ क्योंकि वह अपने अस्पष्ट और धुंधले राजनीतिक आदर्शों पर रंगरोगन के साथ ही आवेश, घृणा और इच्छाओं के हिंसक भावोद्गार को एक बिना चेहरे वाली भीड़ के पीछे छिपाए रखने में समर्थ था।’’    




कन्हर बांध को लेकर समाजवादी सरकार जिस बर्बरता पर उतरी हुई है क्या वह पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार से कहीं से भी कम नजर आती है? ये वही लोग हैं जो जनता परिवार की बात करते हैं। इन्हीं के भाई बंधु बिहार में बैठे हैं। किस जनता को बचा रहे हैं वे? जब राम मंदिर के ताले खोले जा रहे थे, जब शाहबानो केस के फैसले पलटे जा रहे थे, जब भूमंडलीकरण के लिए देश के दरवाजे खोले जा रहे थे, जब दुनिया का एकध्रुवीकरण होना शुरू हो गया था और कम्युनिस्ट आंदोलनों के दिन खत्म होने की घोषणाएं की जाने लगी थीं, उन्हीं दिनों जो जनसंहार हुए थे, दंगे हुए थे उन्हीं सब पर पिछले दो-तीन वर्षों में दसियों फैसले आए लेकिन इतने साल बाद भी एक को भी मुजरिम नहीं ठहराया जा सका। अदालत तक को गुमराह करके अपराधियों को बचा रही हैं तमाम सरकारें! यह पुराने अपराधियों को बचाने और नये अपराधों को अंजाम देने का राजनैतिक वक्त है और इसमें सभी सरकारें समान ढंग से लिप्त हैं। किसी को भी कम करके नहीं आंका जा सकता। अदालत ले जाते वक्त ये हथकड़ियों में बंधे मासूमों को गोलियों से उड़ा देते हैं, चंदन तस्कर के नाम पर ये गरीब मजदूरों को मार गिराते हैं। आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों और माओवाद के नाम पर आदिवासियों को मारने का सिलसिला अनवरत चल रहा है इस देश में। क्या हिंदी कविता में दर्ज किया किसी कवि ने यह सब? क्या किसी ने सरकार से पूछा कि गोविंद पानसरे के हत्यारे अभी तक क्यों नहीं पकड़े गए? नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारे किस बिल में जा छिपे हैं कि सरकार की तमाम खुफिया एजेंसियां और पुलिस उन्‍हें ढूंढ नहीं पा रही? पिछले दिनों भरत पाटनकर को जान से मार डालने की धमकी ठीक वैसे ही दी गई जैसे पानसरे को हत्या से पहले दी गई थी। क्यों नहीं पकड़ में आ रहा धमकी देने वाला? पाटनकर को धमकी देने वाले कहीं दाभोलकर और पानसरे के हत्यारे ही तो नहीं? अभी पिछले दिनों गिरीश कर्नाड को हिंदुत्ववादी शक्तियों ने नाटक खेलने नहीं दिया क्योंकि उन्होंने गोमांस पर महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाये जाने के खिलाफ आवाज उठाई थी। प्रोफेसर साईंबाबा को साल भर पहले दिल्ली की सड़कों से वे उठा ले गए और नागपुर सेंट्रल जेल के अंडा सेल में फेंक आए। तो क्या वे किसी को बोलने नहीं देंगे? क्या किसी को जीने नहीं देंगे? क्या यह बजरंगियों और कोडनानियों का देश है? जयललिता जब कोर्ट से बरी होती हैं तो प्रधानमंत्री मोदी उन्हें मुबारकबाद देने वाले पहले व्यक्ति होते हैं। वे क्यों इतने उतावले होकर चाह रहे थे कि जयललिता बरी हो जाएं? उन्होंने चाहा और वे बरी हो भी गईं, आखिर कैसे? क्या दो करोड़ की चोरी, चोरी नहीं होती? उच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष का काम सिर्फ आरोप लगाना नहीं है बल्कि लगाए गए आरोप को साबित भी करना है जबकि यहां अभियुक्त को ही कहा जा रहा है कि वह साबित करे कि लगाए गए आरोप निराधार हैं। बस इसी बात पर छोड़ दी गईं जयललिता। 




क्या उच्च न्यायालय का यह फैसला उन लोगों पर भी लागू होगा जिन्हें माओवादी कह कर उन्होंने जेल में डाल रखा है? वहां भी तो सिर्फ आरोप हैं, कोई पुष्टि नहीं और यहां भी उनसे कहा जा रहा है कि वे खुद को बेगुनाह साबित करें। यहां एक और बात है वो यह कि माओवाद एक विचार है, फिर इसमें अपराधी होने वाली क्या बात हुई? शायद इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सिर्फ माओवादी कह देने भर से कोई गुनहगार नहीं हो जाता। यह बताना होगा कि उसने किया क्या है। फिर भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग जेल में सड़ रहे हैं। अब तो वे उन्हें अदालत भी पहुंचने नहींं देते। रास्ते में ही मार गिराते हैं। कई बार तो आरोप बाद में लगाते हैं, गोलियों से पहले ही उड़ा देते हैं। आपराधिक न्याय व्यवस्था का यह कैसा लोकतंत्र है? यह क्लास इंटरेस्ट का खुला खेल नहीं तो और क्या है? सलमान खान का मामला ही देखिये- सजा हो जाने के बाद भी वे मिनट भर को जेल नहीं जाते। यह व्यक्ति विशेष का मामला भर नहीं है। सत्ता को सेलेब्रिटी चाहिए, इसलिए वह उन्हें तैयार भी करती है और बचाती भी है। उसे हर क्षेत्र से सेलेब्रिटी चाहिए। खिलाड़ी और अभिनेता से लेकर लेखक-कवि तक। इन दिनों साहित्य में सेलेब्रिटी बनाने का काम जोर-शोर से चल रहा है। बड़ी राशियों वाले पुरस्कारों की घोषणाएं और साहित्यिक उत्सवों में भारी खर्च जो इधर देखने को मिल रहा है, उसके पीछे सरकार की यही मंशा काम कर रही है। सरकार चाहती है कि अब लेखक-कवि भी उसके संरक्षण में रहें। वे बाहर टेरेस पर निकलें और हाथ उठा कर नीचे खड़ी भीड़ का अभिवादन करें।     




हिंदी के कवियों को अपनी मध्यवर्गीय मानसिकता से बाहर निकलना होगा। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों से पुरस्कार पाकर या हाथ मिलाकर खुद को धन्य समझने से ऊपर उठना होगा। उसे शासकों पर अंगुली उठाने का साहस अपने भीतर पैदा करना होगा। पिछले दिनों हिंदी के वयोवृद्ध आलोचक नामवर सिंह को ज्ञानपीठ सम्मान समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हंसते-बतियाते पाया गया। किस बात पर वे हंस रहे थे? क्या उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि आपके आने के बाद देश की एक बड़ी आबादी असहज हो गई है, किसान बड़ी संख्या में आत्महत्याएं करने लगे हैं और आप हैं कि ऐसे नाजुक समय में उन्हें ढांढस बंधाने की जगह उनकी जमीन छीनने में लगे हैं? उन्हें कहना चाहिए था कि लोगों को सच बोलने से रोका जा रहा है और फिर भी जो बोलने का हिम्मत दिखा रहे हैं आपके लोग उनकी हत्याएं तक कर दे रहे हैं? इसके बावजूद आपकी चुप्पी क्यों नहीं टूट रही है जबकि आप सबसे ज्यादा बोलने वाले प्रधानमंत्री माने जाते हैं? शिक्षा का भगवाकरण किया जा रहा है, तमाम महत्वपूर्ण पदों पर अयोग्य, बेईमान और यहां तक कि जाति प्रथा मानने वाले लोगों को बिठाया जा रहा है, कला और साहित्य से जुड़ी संस्थाओं तक को नहीं छोड़ा जा रहा है फिर भी आप कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे हैं? ऐसे ही कुछ सवाल नामवर सिंह को पूछने चाहिए थे, लेकिन अगर उन्होंने नहीं पूछे तो वहां जो दूसरे लोग उपस्थित थे वही पूछ लेते। ज्ञानपीठ वालों से तो ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे पूछते। मीडिया भी अब जड़ पर चोट करने वाले सवाल नहीं पूछता। ऐसे में साहित्यकारों की जवाबदेही और बढ़ जाती है।

   

मोदी सरकार के एक साल पूरे हो रहे हैं। उन्होंने घोषणा करते हुए कहा था कि वे हर रोज एक कानून खत्म करेंगे और इस तरह 1700 कानूनों को वे अपने इस कार्यकाल में समाप्त करेंगे लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि वे किस तरह के कानून को समाप्त करने जा रहे हैं? कहीं उन कानूनों को तो खत्म नहीं किया जा रहा है जो धनकुबेरों, लुटेरों और ताकतवरों के खतरनाक इरादों पर थोड़ा बहुत ही सही लेकिन अंकुश लगाते रहे हैं? वे कानून जो कमजोरों और वंचितों को घनघोर अभावों के बीच जीने के लिए कुछ स्पेस देते हैं? जब ऐसे कानून ही नहीं रहेंगे तो अदालतें भी उन्हें कैसे बचा पाएंगी? क्या संवैधानिक समाज को जंगल राज में बदल देने की योजना पर उन्होंने काम शुरू कर दिया है? देखने में तो यही आ रहा है कि मगरमच्छों से मासूम जान को बचाने वाले जो भी छोटे-मोटे प्रावधान हैं उनको रोज एक-एक कर वे खत्म करते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे नित ऐसे नए कानून बनाने में लगे हैं जिससे कॉर्पोरेट घरानों को मुफ्त में करोड़ों का मुनाफा हो जाए। टेलिकाॅम मंत्रालय ने जो नई लाइसेंसिंग व्यवस्था तैयार की है उससे मुकेश अंबानी की रिलायंस जिओ कंपनी को कैग के अनुसार 3,367.29 करोड़ का मुनाफा होगा, वहीं जिस सलवा जुड़ूम को 2011 में सर्वोच्च न्यायालय अवैध और असंवैधानिक ठहरा चुका है उसी सलवा जुड़ूम को 26 मई से फिर शुरू करने की घोषणा कर दी गयी है ताकि आदिवासियों की जान पर बन आए। एक तरफ वे काॅर्पोरेट घरानों को टैक्स में छूट देकर देश पर 62 हजार करोड़ रुपए का बोझ डाल देते हैं और दूसरी तरफ भूमि हथियाने का षडयंत्र रच कर गरीब आदमी का जीना दूभर कर देते हैं।



इस भूमि अधिग्रहण कानून के बहाने स्थितियों की परत दर परत व्याख्या जरूरी है ताकि समझा जा सके कि आखिर इन सबका अभिप्राय क्या है क्योंकि दुश्मन भले ही सामने साफ दिखायी दे, लेकिन लड़ाई उसी तरह सीधी और साफ नहीं है। सूचना अधिकार कार्यकर्ता वेंकटेश नायक के आवेदन पर वित्‍त मंत्रालय ने जवाब दिया कि फरवरी 2015 तक प्राप्त आंकड़े के अनुसार कुल 804 परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं जिसका सिर्फ आठ प्रतिशत यानि कि कुल 804 रुकी पड़ी परियोजनाओं में से सिर्फ 66 परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण समस्या के कारण रुकी पड़ी हैं। बाकी के रुके पड़े रहने की वजहें कुछ और हैं। जैसे कि 39 प्रतिशत परियोजनाएं इसलिए रुकी पड़ी हैं क्योंकि या तो फंड की कमी है या कच्‍चा माल उपलब्ध नहीं है। 4.2 प्रतिशत पर्यावरण विभाग से हरी झंडी नहीं मिलने की वजह से रुकी हुई हैं। 34 प्रतिशत क्यों रुकी हैं, यह वित्‍त मंत्रालय को भी नहीं मालूम। सोचिये, इसके बावजूद सरकार सिर्फ इस बात पर जोर दे रही है कि उपयुक्त भूमि अधिग्रहण कानून के न होने के कारण देश आगे नहीं बढ़ रहा है। इसी सरकार के वित्‍त मंत्रालय ने आरटीआई आवेदन पर जो जवाब दिया है क्या उसके बाद कोई यह मानेगा कि भूमि अधिग्रहण कानून को बनने से जो रोक रहे हैं वे विकास के बाधक हैं? नहीं, कोई नहीं मानेगा। फिर विकास के बहाने भूमि अधिग्रहण का यह खेल क्या है? क्या इस बहाने सरकार तमाम प्राकृतिक संसाघनों पर पूंजीपतियों का कब्जा चाहती है? क्या सरकार जनता को दो धड़े में बांटने के लिए यह रास्ता अख्तियार की हुई है?  




जिनके पास कुछ नहीं है, उनको भी वाजिब हिस्सा पृथ्वी पर मिले ऐसी लड़ाई अब कहां है? हर तरफ बचाने की लड़ाई चल रही है यानि कि वे लड़ रहे हैं जिनके पास थोड़ा-बहुत कुछ है और जिसे वे बचाना चाहते हैं। फिर इस लड़ाई में वे क्यों शामिल होंगे जिनके पास कुछ नहीं है बचाने को? क्या करेंगे वे इस बचाने की लड़ाई में शामिल होकर? क्या यह हाशिये पर पड़े लगभग एक ही स्थिति में जी रहे दो लोगों को एक-दूसरे से अलगा कर उन्हें कमजोर करने की साजिश नहीं है जिसे भूमि अधिग्रहण के जरिये सरकार रच रही है? क्या इस तरह यह सरकार लोगों को टुकड़ों में बांट कर संघर्ष को कमजोर नहीं कर रही है? क्या इसके पीछे यह मंशा नहीं है कि जनता आपस में बंट कर कमजोर बने और दूसरी ओर तमाम संसाधनों के मालिक बनकर पूंजीपति मजबूत बनें? यह सरकार का पुराना खेल है। बेहद खतरनाक दौर से गुजर रहा है हमारा समय। कई स्तरों पर बंट जाते हैं हम अनजाने ही। जिनके पेट में भात के दो-चार दाने हैं वे अगर भूखों की लड़ाई को अपने खिलाफ मानेंगे तो जो भूखे हैं वे कैसे अपनी लड़ाई जीत सकते हैं? जमीन की लड़ाई में उन्हें भी शामिल होना होगा जिनके पास अपनी कोई जमीन नहीं है। उर्दू और हिंदी जब तक दो नदियों की तरह मिल कर नहीं बहेंगी वे अपनी लडाई कभी जीत नहीं सकतीं। दलित का सवाल जब तक सिर्फ दलित उठाते रहेंगे तब तक उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। हो सकता है एक समुदाय के रूप में और अपने समुदाय के भीतर वे मजबूत दिखें लेकिन बाहर उनकी स्थिति नगण्य ही रहेगी। जैसे कि जब यह कहा जाता है कि अमुक दलित कवि श्रेष्ठ हैं तो इसका मतलब सीधा यही होता है कि दलित कवियों में वो श्रेष्ठ हैं। यहीं उनकी सीमा तय हो जाती है। आप जिस भाषा में लिखते हैं, आपको उस भाषा का श्रेष्ठ कवि होना है तो इसके लिए जरूरी है कि आप सबसे पहले खुद को उस भाषा का कवि कहें।




आज की तारीख में रचनाकारों का सबसे बड़ा दायित्व है कि वह लोगों को बताए कि इन सरकारों को ध्वस्त करने का एक ही तरीका है कि वे आपस के सारे भेदभाव भूलकर एकजुट हों क्योंकि ये सारे भेदभाव थोपे हुए हैं और तमाम सरकारों के खिलाफ युद्ध का एलान कर दें। रचनाकार न सिर्फ युद्ध का एलान करने की बात करे बल्कि वह खुद उनके हाथ में झंडा बन कर, उनकी जुबान पर नारा बन कर, उनकी दृष्टि में कविता बन कर दमक उठे और हवा में लहराए उनकी मुट्ठियां बन कर।

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