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Thursday, August 14, 2014

पंद्रह अगस्त पर कविआत्मा की इक कविता और महेंद्र मिहोनवीं की इक ग़ज़ल |

कविआत्मा जी की एक कविता :


         पंद्रह अगस्त 

चौक चौराहों पर पुलिस की गस्त है,
पंद्रह अगस्त भाई पंद्रह अगस्त है |

सर पे टोपी तिरंगा नेताजी के हस्त है,
पंद्रह अगस्त भाई पंद्रह अगस्त है |

अनहोनी आशंका से दिल बड़ा त्रस्त है, 
पंद्रह अगस्त भाई पंद्रह अगस्त है |

गांवों में आज़ादी का सूरज अस्त है, 
पंद्रह अगस्त भाई पंद्रह अगस्त है |

कुछ लोग काला दिवस मना रहे ,
नकली आज़ादी समझौता परस्त है |

आधी रात अँधेरे में नकली आज़ादी मिली, 
नेहरू - एडविना प्रेम में मस्त है  |

कौन आज़ाद हुआ कौन गुलाम रहा,
बहस मुहाबसे में सारा देश व्यस्त है |

असली आज़ादी तो क्रांति द्वारा ही मिलती है, 
खोखली आज़ादी का देश अभ्यस्त है |

                                           - कविआत्मा 


जनग़ज़लकार महेंद्र मिहोनवीं जी की इक ग़ज़ल :


               आज़ादी 

ये आज़ादी इसीलिए लगती नहीं हमें,
जैसा की तुमको छूट है वैसी नहीं हमें |

कैसे कहें की हम रहते है बाग़ में,
इक पंखुड़ी भी फूल की मिलती नहीं हमें |

तुम कहते हो आसमां में किस्मत लिखी गई,
कुछ भी कहे मगर ये बात जंचती नहीं हमें |

इसकी वजह भी पूछना संगीन जुर्म है,
मेहनत के बाद भी क्यूँ रोटी नहीं हमें |

तिरे निज़ाम में कभी इंशाफ़ भी हुआ,
तारीख तो ऐसी याद आती नहीं हमें |

                            - महेंद्र मिहोनवीं



Wednesday, August 6, 2014

News: ( BSO-A ) Kolwah zone staged a rally for BSO-Azad Chairman Zahid Baloch

पाकिस्तानी राज्य द्वारा बलोच छात्र संगठन (आज़ाद) के अध्यक्ष ज़ाहिद बलोच का अपहरण कर लिया गया | जिसको लेकर विभिन्न  छात्र संगठनो,मानवाधिकार संगठनों एवं अन्य जनवादी संगठनों द्वारा ज़ाहिद बलोच की रिहाई की मांग को लेकर प्रदर्शन किये जा रहे है | बलोच छात्र संगठन (आज़ाद) हमेसा से अमेरिकी साम्राज्यवाद,पाकिस्तानी राज्य और स्थानीय सामंतो के गठजोड़ का पर्दाफास करता रहा है | और बलोचिस्तान पर किये जा रहे ड्रोन हमले का विरोध करता है | जिसकी वजह से इन्हे दमन झेलना पड़ता है |



A protest rally was organized against abduction of BSO-Azad Chairman Zahid Baloch, where slogans of "Release Zahid Baloch" , "Zahid Baloch abducted and silence of UN strange" were chanted.The protesters were carrying placards with strong messages written.

The participating leaders of BSO-Azad in their speeches stated that abduction of BSO-Azad Chairman Zahid Baloch along with thousand other Balochs is state barbarism and a Baloch genocide.Zahid Baloch's abduction is an act of terrorism from the Pakistani state. Further said that we continue such kind of protest for our leaders. We have attracted the attention of the world on such cases of enforced abduction and terrorism. Human rights abuses have been taking place here(Balochistan) for the past 66 years and we have been trying to tell the world the atrocities Pakistan has committed. Recent years, Balochistan has witnessed 20000 enforced missing cases and two thousand tortured dead bodies have been recovered.

 BSO-Azad has always protested against such crimes. We appeal to the international community to come and investigate that what is happening to the Baloch's. Till now several BSO-Azad students along with thousands of other Baloch youth have been abducted and killed by the Pakistani brutal regime. But this has made us more stronger and we will continue to fight for safe recovery of our leaders till last breath. We will continue this process of protesting, the oppression and injustice Baloch are facing might be taking place somewhere else too in other part of world but over here the oppressor has crossed all limits. We are very much worried about the well being of Chairman Zahid Baloch, therefore all humanitarians and activists please play their part on recovering him(Zahid Baloch).

We on this occasion appeal to the UN, Amnesty International, international media and all the justice providing institutions that without any delay please take notice of this severe case of Baloch genocide and help save the life of Zahid Baloch. Because any delay can further create a human crisis in Balochistan.

एक दीक्षांत संबोधन: आनंद तेलतुंबड़े

कर्नाटक स्टेट ओपेन यूनिवर्सिटी, मैसूर में 14वें दीक्षांत समारोह में दिया गया दीक्षांत संबोधन

आनंद तेलतुंबड़े
10 मई 2014

कर्नाटक के महामहिम राज्यपाल और कर्नाटक स्टेट ओपेन यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति डॉ. हंसराज भारद्वाज, बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट एंड एकेडमिक काउंसिल के सदस्यो, विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. ए.जी. रामकृष्णन, और प्रतिष्ठित शिक्षाविदो, सामाजिक हस्तियो, फैकल्टी के सदस्य और प्यारे छात्रो

मेरे लिए यह बेहद सम्मान की बात है कि इत्तेफाक से मुझे कर्नाटक स्टेट ओपेन यूनिवर्सिटी के 14वें दीक्षांत में दीक्षांत संबोधन देने की जिम्मेदारी मिली है. शायद यह इतिहास में एक अनोखा मौका होगा जब कोई डिग्री हासिल करने वाला व्यक्ति ही दीक्षांत भाषण भी देगा.

दोस्तो, आईआईटी प्रोफेसर की मेरी नई पहचान एक संयोग है, क्योंकि मैंने अपनी ज्यादातर जिंदगी कॉरपोरेट दुनिया में बिताई है, जो विश्वविद्यालयों से निकलनेवाले छात्रों का मुख्य उपभोक्ता है. और हम एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जिसे नवउदारवादी दौर कहा जाता है. यह महज कॉरपोरेट केंद्रित दुनिया को दिया गया एक अच्छा सा नाम भर है. यहां होने वाली हर चीज के पीछे पूंजी का तर्क काम करता है, और यह पूंजी पुराने जमाने की पूंजी नहीं है, बल्कि यह इसका सबसे घिनौना रूप है – वैश्विक पूंजी. शिक्षा के सिलसिले में पूंजी का तर्क ये है कि यह लोगों में लगने वाली वह लागत है, जिसकी मदद से वे खुद को ‘मानव संसाधन’ में बदलते हैं, ताकि उन्हें वैश्विक पूंजीवाद की सबकुछ को हड़प लेने वाली बड़ी चक्की उन्हें निगल सके. ऐसे में, शायद मैं अनोखे रूप से इससे संबंधित आपूर्ति शृंखला का प्रतिनिधित्व करता हूं, जिसमें आज मैं शिक्षा उद्योग में आपूर्तिकर्ता की भूमिका निभा रहा हूं और पहले के अपने कॉरपोरेट अवतार में एक ग्राहक की भूमिका निभा चुका हूं.

बीते हुए दौर में शिक्षा एक सम्मानजनक चीज हुआ करती थी. हमारी एशियाई संस्कृति में यह ईश्वर की पूजा के बराबर थी. लेकिन पश्विमी दुनिया में भी यह बहुत अलग नहीं थी. बीसवी सदी के सबसे प्रभावशाली दार्शनिकों में से एक जॉन डुई का एक मशहूर कथन है, ‘शिक्षा जीवन के लिए तैयारी नहीं नहीं है, शिक्षा अपने आप में जीवन है.’ जॉन डुई कोलंबिया यूनिवर्सिटी में बाबासाहेब आंबेडकर के प्रोफेसरों में से एक थे और बाबासाहेब उनसे इतने प्रभावित थे कि 1953 में उन्होंने कहा कि वे अपने पूरे बौद्धिक जीवन के लिए जॉन डुई के एहसानमंद हैं. यह बात बाबासाहेब ने तब कही थी, जब वे खुद सदी के महानतम व्यक्तियों में से एक के रूप में स्थापित हो चुके थे. बाबासाहेब आंबेडकर ने डुई के दर्शन को विरासत में हासिल किया जिसमें शिक्षा को एक मुख्य साधन माना गया है और इसे दलितों के लिए मुक्ति के मुख्य साधन के रूप में देखा. मशहूर व्यक्तियों में वे शायद अकेले थे, जिन्होंने उच्च शिक्षा पर खास तौर से जोर दिया. वरना शिक्षा को लेकर सारी बयानबाजियां साक्षरता पर ही जोर देती थीं, लेकिन जैसा कि हम जानते हैं, साक्षरता इंसान का कोई भला नहीं करती सिवाए इसके कि वह उसे बाजार की गतिविधियों के दायरे में ले आती है. साक्षर होकर वह विज्ञापनों को पढ़ सकता है और बाजार में आने वाले उत्पादों का उपभोक्ता बन सकता है. लेकिन हकीकत में जो बदलाव आता है, वह उच्च शिक्षा के जरिए आता है, जो आपको सोचने में सक्षम बनाती है, आपकी जिंदगी पर असर डालने वाली प्रक्रियों को सोचने के लायक बनाती है और इसके बारे में कुछ करने के लिए प्रेरित करती है. सोच का यह पूरा ढांचा ही एकदम बदल गया है और शिक्षा आज एक ऐसा उत्पाद हो गई है, जो शैक्षिक बाजार में छात्रों द्वारा खरीदी जाती है ताकि वे कॉरपोरेट दुनिया की जरूरतों के हिसाब से खुद को तैयार कर सकें. अफसोस की बात यह है कि उत्पादन प्रक्रिया से श्रम को बेदखल करने की तकनीकी चमत्कारों के चलते आज यह दुनिया उन सबका उपयोग कर पाने के काबिल नहीं है और इसके बजाए वह हमारे विश्वविद्यालयों के स्नातकों की ज्यादातर तादाद को रोजगार के नाकाबिल बता कर बेरोजगारों की एक फौज खड़ी कर रही है, जिसे मुहावरे की भाषा में बेरोजगारों की ‘आरक्षित फौज’ कहा जाता है.

यह वैश्विक पूंजी का एक निर्मम तर्क है, जिससे बच पाने की स्थिति में शायद कोई भी देश नहीं है. इसलिए देशों की सीधी-सादी रणनीति यह है कि इसकी अपनी ताकत और कमजोरियों के हिसाब से उसका इस्तेमाल किया जाए. मैं जो कह रहा हूं, उसका मतलब वे लोग बेहतर समझ सकते हैं, जिन्होंने प्रबंधन विज्ञान में स्नातक किया है. प्राचीन समय से ही एशिया में चीन हमारा एक जोड़ीदार रहा है. इस संदर्भ में यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि कैसे चीन इस उदारवादी विचार का इस्तेमाल करते हुए एक वैश्विक औद्योगिक ताकत के रूप में उभरा है और कैसे हम लड़खड़ाते हुए अपनी उस वृद्धि दर को फिर से हासिल करने की कोशिश करते रहे हैं, जिस पर कुछ समय पहले हम इतराते फिर रहे थे. 1989 में चीन विकास के अनेक मानकों पर भारत से पीछे था. इसके पास एक बहुत बड़ी आबादी थी, जिसका इसे पेट भरना था और बेहतर जीवन की उनकी उम्मीदों को भी पूरा करना था, जो 1949 की सर्वहारा क्रांति के जरिए काफी बढ़ गई थीं. हम बस शर्मिंदगी में खुद को तसल्ली देने के लिए चीन की तरक्की को खारिज करते रहे और कहते रहे कि चीन एक तानाशाही वाला देश है और हम लोकतंत्र हैं. लेकिन हमारी इस बात ने असल में इस तथ्य को ही उजागर किया है कि लोकतंत्र और तानाशाही की हमारी समझ कितनी सतही है. हमें इस बात की तारीफ करनी होगी कि चीन एक ऐसी धरती है, जिसने एक अकेली सदी में तीन तीन महान क्रांतियां देखीं और हम ऐसे लोग हैं जिन्होंने पिछले तीन हजार सालों के लंबे अतीत में बदलने से इन्कार कर दिया है. ऐसी राज व्यवस्था के चलते चीनी लोगों को महज डंडे के जोर पर हांका जाना मुश्किल है. इसलिए चीनी शासकों ने इसकी रणनीति बनाई कि कैसे चीनी लोगों को फायदेमंद तरीके से रोजगार दिया जा सके और इसके लिए उन्होंने निर्माण उद्योग के विकास पर जोर दिया. आज उन्होंने इसकी एक ऐसी मजबूत बुनियाद बनाई है, कि इसे दुनिया की कार्यशाला के रूप में जाना जाता है. इस बुनियाद पर आज वे सेवाओं का विकास करने में सक्षम हैं. दूसरी तरफ हमने जो किया वह ठीक इसका उल्टा है. हम घोड़े को गाड़ी के पीछे जोतते हुए उन पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की अंधी नकल कर रहे हैं जिनकी आबादी हमारे सबसे छोटे राज्यों से भी कम है. ऐसा करते हुए हमने खेती के ऊपर सेवा क्षेत्र को अहमियत दी, जबकि खेती पर हमारे लोगों का 60 फीसदी हिस्सा गुजर बसर करता है. और हमने निर्माण क्षेत्र को तो पूरी तरह नजरअंदाज ही कर दिया है. यह सकल घरेलू उत्पाद की हमारी बुनावट में भी दिखता है, जिसमें खेती की महज 17 फीसदी हिस्सेदारी है जबकि इस पर 60 फीसदी के करीब लोग गुजर बसर करते हैं और सेवा क्षेत्र पर महज 25 फीसदी लोगों का गुजारा चलता है, लेकिन यह सकल घरेलू उत्पाद में 66 फीसदी योगदान देता है. जीडीपी में उद्योग महज 17 फीसदी के योगदान पर अंटका हुआ है, जिस पर लगभग इतने ही यानी 15 फीसदी लोगों का गुजारा चलता है. चीन में यह बुनावट एकदम इसके उलट है. हमारे जीडीपी से चार गुना बड़ी उनकी जीडीपी में पिछले साल के मुताबिक खेती, उद्योगों और सेवा क्षेत्र का योगदान क्रमश: 10, 45, 45 फीसदी है. इसमें से सेवा क्षेत्र का उभार पिछले दो दशकों में लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी आने के बाद एक जरूरी पूरक के रूप में हुआ है. चीन की सफलता का आधार यह बुनियादी रणनीति है. अगर कोई याद करना चाहे तो यह याद कर सकता है कि बाबासाहेब आंबेडकर ने बहुत पहले, 1918 में छोटी जोतों की समस्या के संदर्भ में भारत के लिए यह रणनीति प्रस्तावित की थी.

मैं चीन में रहा हूं और मैंने उनकी विभिन्न चीजों को बारीकी से देखा है, जिसमें उनके शैक्षणिक संस्थान भी शामिल हैं. एक तरह से, हमारे कुछ आईआईएम और आईआईटी को छोड़ दिया जाए तो हमारे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी तुलना उनके संस्थानों से की जा सके. यही वजह है कि विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग में वे हमसे कहीं आगे हैं. यह बात मैं बेहद विनम्रता से कह रहा हूं कि हमारे और उनके बीच फर्क ये है कि चीन के शासक वर्ग को अपनी जनता के प्रति आलोचनात्मक रूप से संवेदनशील होना पड़ा; जबकि अजीब सी विडंबना है कि भारत के लोकप्रियतावादी नीतियों वाले शासक वर्ग ने लोकतंत्र के नाम पर लोगों को धोखा देने में महारत हासिल की है. ऐसा नहीं है कि हमारे संस्थापक नेताओं ने एक ईमानदार और जन-केंद्रित नीतियों का नजरिया (विजन) नहीं दिया था. यह नजरिया संविधान के भाग चार में शामिल है, जिसे ‘राज्य के नीति निर्देशक तत्व’ कहा जाता है. हालांकि वे न्यायिक दायरे से परे हैं यानी किसी भी अदालत में उनकी दुहाई नहीं दी जा सकती, लेकिन उनके बारे में यह अपेक्षा की गई थी कि वे नीतियां बनाते वक्त हमारे नेताओं के ऊपर नैतिक रूप बाध्यकारी होंगे. लेकिन अब तक के पूरे दौर में हम उनकी अनदेखी करते आए हैं और इसके नतीजे के रूप में हम खुद को और भी बढ़ती हुई मात्रा में उलझी हुई परेशानियों से घिरा पा रहे हैं.

मिसाल के लिए, संविधान बनाने वालों ने देश के शासकों को यह जिम्मेदारी दी कि वे संविधान को अपनाए जाने के 10 साल के भीतर 14 साल तक के सभी बच्चों को सार्वभौमिक और मुफ्त शिक्षा मुहैया कराएं. इस मामले के महत्व को इस तथ्य के जरिए देखा जा सकता है कि यह अकेला अनुच्छेद है, जिसमें इसे लागू किए जाने के लिए एक निश्चित समय सीमा तय की गई. लेकिन चार दशकों तक किसी के कानों पर जूं तक न रेंगी. हमारे शासकों की नींद तब टूटी जब 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने मोहिनी जैन और उन्नीकृष्णन के मामले में – जिसका इस विषय से कोई संबंध नहीं था – यह टिप्पणी की कि शिक्षा का अधिकार जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है. लेकिन अब भी शासक वर्ग ने चालबाजी से काम लिया और संविधान में संशोधन करते हुए अन्य बातों के साथ साथ 0-6 आयु वर्ग को इससे बाहर कर दिया तथा राज्य के बजाए इसे अभिभावकों की बुनियादी जिम्मेदारी बना दिया. यह प्रक्रिया आखिरकार 2009 में तथाकथित शिक्षा का अधिकार के साथ अपने अंजाम को पहुंची. इस अधिनियम ने किया यह कि इसने बड़े ही कारगर तरीके से देश में विकसित अनेक परतों वाली शिक्षा व्यवस्था को कानूनी जामा पहना दिया. इसने यह बंदोबस्त की कि बच्चों को अपने अभिभावकों की जाति और वर्ग के मुताबिक शिक्षा हासिल हो, इस बात में और मनु के घिनौने आदेशों में बहुत फर्क नहीं है. उन्होंने लोगों को फिर से धोखा देने के लिए गरीबों के लिए 25 फीसदी आरक्षण का प्रावधान रख दिया, जिसके तहत वे अपने चुने हुए किसी भी स्कूल में नामांकन ले सकते हैं. संविधान ने जो जिम्मेदारी कायम की थी, उसकी मंशा को आसानी से देखा जा सकता है. हालांकि उसे बहुत विस्तार से नहीं लिखा गया है, लेकिन वह इसे यकीनी बनाता है कि अपने अभिभावक के आधार पर कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित नहीं रहेगा. सार्वभौमिक रूप से इस व्यवस्था को मुहल्ले या पड़ोस में स्थित स्कूलों के जरिए मुफ्त, अनिवार्य और सार्वभौम शिक्षा के रूप में जाना जाता रहा है. इसका मतलब यह है कि सभी बच्चे अपने मुहल्ले या पड़ोस के सार्वजनिक रूप से चलाए जाने वाले स्कूलों में समान शिक्षा हासिल करेंगे, चाहे उनका वर्ग या जाति कोई भी हो. मैं इससे भी आगे जाऊंगा और इस प्रावधान की मंशा को देखते हुए मैं कहूंगा कि यह सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि हरेक बच्चा जब दुनिया में अपने कदम रखे तो उस पर अपने अभिभावकों की गरीबी का ठप्पा न हो और वह कुदरती तौर पर सबके बराबर हो. इसका मतलब ये है कि जब एक मां गर्भधारण करे तो एक स्वस्थ बच्चे को जन्म देने से पहले की मां की सारी देख रेख और पोषण की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी राज्य की होनी चाहिए. अगर एक स्वस्थ बच्चे को समान शिक्षा मिले तो जाति तथा वर्ग के जुड़ी तकलीफदेह गैरबराबरी का भार कम हो जाएगा.

इस ठोस आधार पर शिक्षा, माध्यमिक और उच्च शिक्षा, का पूरी ऊपरी ढांचा खड़ा किया जाना चाहिए. हम इन मामलों में इतने संवेदनहीन हैं कि तादाद में तेजी से बढ़ती हुई हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था पर असुविधाजनक सवाल खड़े हो रहे हैं. हमने शिक्षा की इस पवित्र मिट्टी में शैक्षणिक जागीरदारों की एक जहरीली फसल उगने दी है. हम अपने आंकड़ों को बेहतर बनाने के लिए बस संस्थानों की तादाद बढ़ाते गए हैं. आज 500 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं तथा और भी अभी बन रहे हैं. आईआईटी और आईआईएम की तादाद भी कई गुणा बढ़ी है, लेकिन लंबे समय से निर्मित हुई उनकी पहचान धूमिल पड़ी है. संख्याओं में इजाफा करते हुए हमने गुणवत्ता की तरफ से पूरी तरह से आंखें मूंद लीं.

आज शिक्षा व्यवस्था कई तरह की समस्याओं का सामना कर रही है. इसमें से सबसे बड़ी और सबसे आपराधिक समस्या यह है कि पूरे के पूरे ग्रामीण इलाके को गुणवत्तापरक शिक्षा से काट दिया गया है. हमारी आजादी के शुरुआती दशकों में गांवों ने इस राष्ट्र को प्रतिभाशाली लोग दिए. ज्यादातर राजनेता और ऊंचे पद हासिल करने वाले लोग गांवों से आए थे जिसकी वजह गुणवत्ता परक शिक्षा और मेहनत पर आधारित ग्रामीण जीवन की विशेषताएं थीं. मेरे सहित इस मंच पर मौजूद लोगों में से अनेक इसी ग्रामीण शिक्षा की उपज हैं. लेकिन आज, गांव से आने वाले किसी लड़के या लड़की के लिए सैद्धांतिक रूप से यह असंभव है कि वह गांव से उच्च शिक्षा के किसी प्रतिष्ठित संस्थान तक पहुंच सके. और यह याद रखिए कि इन गांवों में अभी भी करीब 70 फीसदी लोग रहते हैं. आरक्षण की सारी बातें अब बेमतलब हो गई हैं क्योंकि उन पर शहरों में रह रहे और अब तक उनका लाभ उठाते आए वर्ग ने कब्जा कर लिया है और देहाती इलाकों के असली जरूरतमंदों के लिए कुछ भी नहीं छोड़ा है.

इस स्थिति को सुधारने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है. उम्मीद की जा सकती है कि हमारे शासकों की आंखें खुलेंगी और हालात को उस बिंदू पर पहुंचने से पहले ही सुधार लेंगे, जिसके बाद इसे सुधारना मुमकिन नहीं रह जाएगा. पिछले दो दशकों के दौरान उच्च शिक्षा में निजीकरण और व्यावसायीकरण का एक साफ रुझान रहा है. बड़े जोर शोर से लोगों को यह बताया जा रहा है कि निजी संस्थान बेहतर तरीके से चलते हैं, वे गुणवत्तापरक शिक्षा मुहैया कराते हैं. यह सौ फीसदी झूठ है. निजी संस्थान बरसों से चल रहे हैं लेकिन उनमें से एक भी कोई आईआईएम अहमदाबाद या एक आईआईटी या एक जेएनयू नहीं पैदा कर सका है. शिक्षा व्यवस्था में नवउदारवादी तौर-तरीके बड़े पैमाने पर हावी हो गए हैं जो समाज के निचले तबके से आने वाले गरीबों के हितों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. भारत में उच्च शिक्षा को 50 अरब डॉलर का उद्योग बताया जा रहा है और स्वाभाविक रूप से वैश्विक पूंजी की नजर इस पर है. सरकार ने हमेशा की तरह संसाधनों की कमी का बहाना बनाते हुए शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे खोल दिए हैं. इसे जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए संसद में अनेक विधेयक लंबित हैं, जो हमारी उच्च शिक्षा को और भी नुकसान पहुंचाएंगे. इससे संकेत मिल रहे हैं कि चीजें और बदतर होंगी. ऐसे में सिर्फ यह उम्मीद ही की जा सकती है कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को एक समय जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के बारे में अंदाजा होगा और वे हालात को सुधारने के लिए कदम उठाएंगे.

मैं आपके सामने इन कड़वे तथ्यों को रखने से बच नहीं सकता था. वे सुनने में नकारात्मक लग सकते हैं लेकिन यह असल में खतरे की घंटी है. इसमें सुधार के लिए उम्मीद हम सिर्फ तभी कर सकते हैं जब एक व्यापक जन जागरुकता पैदा की जाए.

जहां तक केएसओयू की बात है, मैंने पाया कि यहां अच्छा काम किया जा रहा है. यहां एक खूबसूरत कैंपस आकार ले रहा है. यह विश्वविद्यालय खास तौर से समाज के गरीब तबकों को लेकर चलती है, जो नियमित विश्वविद्यालयी शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकते. दूरस्थ शिक्षा देने के लिए वर्चुअल क्लास रूम तैयार करने के अनेक तकनीकी साधन हैं. अगर विश्वविद्यालय चाहे तो मैं इस सिलसिले में कुछ तकनीकी विचारों से मदद कर सकता हूं. मैं उम्मीद करता हूं कि समय बीतने के साथ साथ यह विश्वविद्यालय दूसरे विश्वविद्यालयों जैसी अच्छी शिक्षा देने के लिए रचनात्मक तरीके अपनाएगा. बाजार के साथ तालमेल बैठाते हुए रचनात्मक रूप से पाठ्यक्रम तैयार करने की काफी गुंजाइश है. आखिरकार, हमें रणनीतिक होना होगा. इन छात्रों को नौकरियां चाहिए. विश्वविद्यालय की शिक्षा वह अकेली चीज है, जिसमें एक बेहतर जीवन की उम्मीद के लिए उनके पास जो भी थोड़ा बहुत संसाधन है, उसका निवेश कर सकते हैं. अगर समय के साथ केएसओयू इस दिशा में एक योजना लेकर आ सके जो देश की ऐसे अनेक खुले विश्वविद्यालयों (ओपन यूनिवर्सिटीज) के लिए एक मॉडल का काम करेगा.

आखिर में, मैं आज अपनी योग्यतम डिग्रियां हासिल करने वाले सब लोगों को बधाई देता हूं, और यह कामना करता हूं कि वे जीवन में खूब तरक्की करें. शुक्रिया

अनुवाद: रेयाज उल हक

Tuesday, August 5, 2014

क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच (कसम) की अखिल भारतीय बैठक

 रायपुर, 26-27 जुलाई 2014 में पारित प्रस्ताव

गाजा पट्टी में फिलीस्तीनी जनता के खिलाफ इजरायल के साम्राज्यवादी आक्रमण के खिलाफ

       एक सार्वभौम देश के रूप में फिलीस्तीनी जनता के अधिकार का समर्थन करो क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच (आर.सी.एफ.) की अखिल भारतीय कमिटी की बैठक रायपुर में आयोजित हुई। बैठक में गाजा पट्टी पर यहूदीवादी इजरायल द्वारा किए गए बर्बर हमले तथा बड़े पैमाने पर मारे जा रहे मासूमों की मौत पर गहन चिंता व्यक्त की गई।
यह एक इतिहास का परिहास है कि फिलीस्तीनियों को उनकी शताब्दियों प्राचीन मातृभूमि से बेदखल कर इजरायल राष्ट्र की स्थापना की गई। 1948 में इजरायल की स्थापना, संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से हुई। यहूदियों का केवल यही दावा है कि इजरायल, बाइबल में वर्णित उनकी मातृभूमि है और इसे, खुदा ने उसे नवाजा है। इतिहास यह बताता है कि यहूदियों को इस इलाके से अरबों ने नहीं बल्कि रोमनों ने निकाल बाहर किया। इसवी प्रथम सदी में, यहूदियों को इजरायल से बड़ी संख्या में निकाला गया और 1948 तक बड़ी संख्या में यहूदी, उनके तथाकथित मातृभूमि से बाहर निवास करते थे।
पश्चिमी एशिया को अपने नियंत्रण में रखने के लिए साम्राज्यवादियों विशेषकर अमरीका व ब्रिटेन ने यहूदीवादी (जिओनवादी) मांग को स्वीकार कर एक यहूदीवादी इजरायल की स्थापना की। जन्म के समय से ही यह एक धार्मिक राज्य है जहां यहूदियों को प्राथमिकता दी जाती है, तथाकथित ’’वापस लौटने के कानून’’ के द्वारा, कोई भी, जो एक यहूदी है या किसी यहूदी से शादी हुई है का इजरायल में लौटने का या बसने का अधिकार है। 1947 के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के अनुसार फिलीस्तीन के 55 प्रतिशत भूभाग पर यहूदियों के अधिकार को मान लिया गया (जबकि उस समय 7 प्रतिशत भूमि पर उनका अधिकार था)। लेकिन इजरायल द्वारा युद्ध के प्रथम दौर के बाद, 418 अरब गांवों को ध्वस्त कर 77 प्रतिशत भूभाग पर कब्जा कर लिया गया। 1967 के युद्ध के बाद, फिलीस्तीन के अधिकांश भूभाग पर उनका नियंत्रण हो गया तथा अधिकांश फिलीस्तीनी शरणार्थी बन गए।


    Revolutionary Cultural Front ~


                           A Political Cultural Organization 

  बहरहाल, शांतिपूर्ण आंदोलनों के असफल होने के बाद फिलीस्तीनी मुक्ति आंदोलन कई बार हिंसक हो गया, लेकिन योजनाबद्ध और बर्बर यहूदीवादी हिंसा की तुलना फिलीस्तीनी प्रतिरोध से कतई नहीं की जा सकती। हम सभी यहूदीयों का विरोध और निंदा नहीं करते बल्कि केवल यहूदीवाद और यहूदीवादी राज्य का विरोध करते हैं। गाजा की जनता को आज एकताबद्ध प्रतिरोध की जरूरत है। भारत में जहां इजरायल समर्थक ताकतों का स्वागत किया जाता है और वहीं फिलीस्तीन के समर्थन में किए गए प्रदर्शनों को पुलिस द्वारा दमन किया जाता है। अभी जो कुछ भी घट रहा है वह सोच से परे है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी प्रस्तावों का उल्लंघन कर, इजरायल, अमरीका के नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी ताकतों के खुले समर्थन से गाजा पर बमबारी कर रहा है, नागरिक ठिकानों पर मिसाइल, मॉर्टर से हमले कर बेगुनाह पुरूष, महिला तथा बच्चों की हत्या कर रहा है। इजरायल द्वारा क्रूर बमबारी तथा जमीनी हमले में आज की तारीख में मरने वालों की संख्या गाजा में 1100 से भी अधिक हो चुकी है, 5000 से अधिक लोग घायल हैं तथा दसियों हजार लोग बेघर हो चुके हैं।
   
  हम विश्व के सारे शांतिकामी जनता से अपील करते हैं कि वे इस यहूदीवादी ताकत के खिलाफ एकताबद्ध हों और उसे बाध्य करें कि वह अपनी सेना को वापस बुलाए और फिलीस्तीनी जनता की हत्या करना बंद करे। हम भारत सरकार से मांग करते हैं कि वह इजरायल की तीव्र निंदा करे तथा उसके साथ समस्त राजनैतिक, कूटनैतिक और सामरिक संबंध तोड़ दे। हम, भाजपा सरकार द्वारा इजरायल के बर्बर आक्रमण की तुलना हमास के क्रियाकलापों से करने के कृत्य की, जिसमें यह कहा जा रहा है कि भारत के इजरायल से मैत्री संबंध हैं, न तो इजरायल की निंदा की जा रही है और न ही फिलीस्तीन का समर्थन किया जा रहा है कि तीव्र निंदा करते हैं। यह असल में अमरीका-इजरायल धुरी की सेवा करने वाला प्रतिक्रियावादी अवस्थान है।
क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच - मजदूरों, महिलाओं, नौजवानों, तमाम उत्पीड़ित वर्ग तथा शांतिकामी जनता से आह्वान करती है कि वे इजरायली आक्रमण उनके साम्राज्यवादी समर्थक तथा तमाम साम्राज्यवादी दलालों के खिलाफ प्रतिरोध तेज करें। गाजा पटट्ी पर इजरायली हमले को रोकें। फिलीस्तीनी जनता के साथ अंतर्राष्ट्रीय एकता जिंदाबाद।