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Monday, June 2, 2014

गुंडों की सल्तनत का महापर्व: आनंद तेलतुंबड़े

                                                                     -  हाशिया से साभार



आनंद तेलतुंबड़े का यह लेख दलितों की जिंदगी के एक ऐसे सफर पर ले चलता है, जहां हिंसक उत्पीड़नों, हत्याओं और बलात्कारों को उनकी रोजमर्रा की जिंदगी बना दिया गया है. अनुवाद रेयाज उल हक.

एक तरफ जब मीडिया में लोकतंत्र के महापर्व की चकाचौंध तेज हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ देश के 20.1 करोड़ दलितों को अपने अस्तित्व के एक और रसातल से गुजरने का अनुभव हुआ. उन्होंने शैतानों और गुंडों की सल्तनत का महापर्व देखा. बहरहाल, उनके लिए लोकतंत्र बहुत दूर की बात रही है. इस अजनबी तमाशे में वे यह सोचते रहे कि क्या उन्हें इस देश को अब भी अपना देश कहना चाहिएॽ

‘हरेक घंटे दो दलितों पर हमले होते हैं, हरेक दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, दो दलितों की हत्या होती है, दो दलितों के घर जलाए जाते हैं,’ यह बात तब से लोगों का तकिया कलाम बन गई है जब 11 साल पहले हिलेरी माएल ने पहली बार नेशनल ज्योग्राफिक में इसे लिखा था. अब इन आंकड़ों में सुधार किए जाने की जरूरत है, मिसाल के लिए दलित महिलाओं के बलात्कार की दर हिलेरी के 3 से बढ़कर 4.3 हो गई है, यानी इसमें 43 फीसदी की भारी बढ़ोतरी हुई है. ऐसे में जो बात परेशान करती है वह देश की समझदार आबादी का दोमुहांपन है. यह वो तबका है जिसने डेढ़ साल पहले नोएडा की एक लड़की के क्रूर बलात्कार पर तूफान मचा दिया था, और इसकी तारीफ की जानी चाहिए, लेकिन उसने हरियाणा के जाटलैंड में चार नाबालिग दलित लड़कियों के बलात्कार पर या फिर ‘फुले-आंबेडकर’ के महाराष्ट्र में एक दलित स्कूली छात्र की इज्जत के नाम पर हत्या पर चुप्पी साध रखी है. इस चुप्पी की अकेली वजह जाति है, इसके अलावा इसे किसी और तरह से नहीं समझा जा सकता. अगर देश के उस छोटे से तबके की यह हालत है, जिसे संवेदनशील कहा जा सकता है, तब दलित जनता बेवकूफी और उन्माद के उस समुद्र से क्या उम्मीद कर सकती है, जिसमें जाति और संप्रदाय का जहर घुला हुआ हैॽ

भगाना की असली निर्भयाएं

भगाना हरियाणा में हिसार से महज 13 किमी दूर एक गांव है जो राष्ट्रीय राजधानी से मुश्किल से तीन घंटे की दूरी पर है. 23 मार्च को यह गांव उन बदनाम जगहों की लंबी फेहरिश्त में शामिल हो गया, जहां दलितों पर भयानक उत्पीड़न हुए हैं. उस दिन शाम को जब चार दलित स्कूली छात्राएं – मंजू (13), रीमा (17), आशा (17) और रजनी (18) – अपने घरों के पास खेत में पेशाब करने गई थीं तो प्रभुत्वशाली जाट जाति के पांच लोगों ने उन्हें पकड़ लिया. उन्होंने उन लड़कियों को नशीली दवा खिला कर खेतों में उनके साथ बलात्कार किया और फिर उन्हें कार में उठा कर ले गए. शायद उनके साथ रात भर बलात्कार हुआ और फिर उन्हें सीमा पार पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन के बाहर झाड़ियों में छोड़ दिया गया. जब उनके परिजनों ने गांव के सरपंच राकेश कुमार पंगल से संपर्क किया, जो अपराधियों का रिश्तेदार भी है, तो वह उन्हें बता सकता था कि लड़कियां भटिंडा में हैं और उन्हें अगले दिन ले आया जा सकता था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. भारी नशीली दवाओं के असर में और गहरी वेदना के साथ लड़कियां अगली सुबह झाड़ियों में जगीं और मदद के लिए स्टेशन तक गईं, लेकिन उन्हें दोपहर बाद 2.30 बजे तक इसके लिए इंतजार करना पड़ा जब राकेश और उसके चाचा वीरेंदर लड़कियों के परिजनों के साथ वहां पहुंचे. लौटते वक्त परिजनों को ट्रेन से भेज दिया गया और लड़कियों को कार में बिठा कर भगाना तक लाया गया. रास्ते में राकेश ने उनके साथ गाली-गलौज और बदसलूकी की, उन्हें पीटा और धमकाते हुए मुंह बंद रखने को कहा. जब वे गांव पहुंचे तो दलित लड़को ने कार को घेर लिया और लड़कियों को सरपंच के चंगुल से निकाला. अगले दिन लड़कियों को मेडिकल जांच के लिए हिसार के सदर अस्पताल ले जाया गया. वहां सुबह से दोपहर बाद डेढ़ बजे तक जांच चली, जो समझ में न आने वाली बात थी. लड़कियों ने बताया कि डॉक्टरों ने कौमार्य की जांच के लिए टू फिंगर टेस्ट जैसा अपमानजनक तरीक अपनाया जिसकी इतनी आलोचना हुई है और सरकार ने बलात्कार के मामले में इसका इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा रखा है. 200 से ज्यादा दलित कार्यकर्ताओं के दबाव और मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि होने के बाद सदर हिसार पुलिस थाना ने (एससी/एसटी) उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम के तहत प्राथमिकी दर्ज की. हालांकि लड़कियों द्वारा दिए गए बयान में राकेश और वीरेंदर का नाम होने के बावजूद उनको इससे बाहर रखा.

ऐसा हिला देने वाला अपराध भी पुलिस को कार्रवाई करने के लिए कदम उठाने में नाकाम रहा. खैरलांजी की तरह, जब हिसार मिनी सेक्रेटेरिएट पर 120 से ज्यादा दलित जुटे और जनता का गुस्सा भड़क उठा तथा शिकायतकर्ता लड़कियों के साथ भगाना के 90 दलित परिवार दिल्ली में जंतर मंतर पर 16 अप्रैल से धरना पर बैठे तब हरियाणा पुलिस हरकत में आई और उसने 29 अप्रैल को पांच बलात्कारियों – ललित, सुमित, संदीप, परिमल और धरमवीर – को गिरफ्तार किया. दलित परिवार इंसाफ मांगने के मकसद से दिल्ली आए हैं, लेकिन इसके साथ साथ एक और वजह है. वे गांव नहीं लौट सकते क्योंकि उन्हें डर है कि बर्बर जाट उनकी हत्या कर देंगे. इन दलित मांगों को सुनने और न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने के बजाए हिसार जिला अदालत अपराधियों को रिहा करने के मामले को देख रही है. हालांकि ये बहादुर लड़कियां, असली निर्भयाएं, खुद अपनी आपबीती जनता के सामने रख रही हैं, लेकिन दिलचस्प रूप से मीडिया ने बलात्कार से गुजरने वाली महिलाओं की पहचान को सार्वजनिक नहीं करने के कायदे का पालन नहीं किया, जैसा कि उसने गैर दलित ‘निर्भयाओं’ के साथ बेहद सतर्कता के साथ किया था. राजनेताओं के बकवास बयानों से तिल का ताड़ बनाने में जुटे मीडिया ने इन परिवारों द्वारा किए जा रहे विरोध की खबर को दिखाने के लायक तक नहीं समझा – एक अभियान शुरू करने की तो बात ही छोड़ दीजिए, जैसा उसने उन ज्यादातर बलात्कार मामलों में किया है, जिनमें बलात्कार की शिकार कोई गैर दलित होती है. ऐसी भाषा में बात करने से नफरत होती है, लेकिन उनका व्यवहार इसी भाषा की मांग करता है.

दिसंबर 2012 में जारी की गई पीयूडीआर की जांच रिपोर्ट इसके काफी संकेत देती है कि भगाना बलात्कार महज अमानवीय यौन अपराध भर नहीं है बल्कि ये दलितों को सबक सिखाने के उपाय के बतौर इस्तेमाल किया गया है. वहां दलित परिवार जाटों द्वारा अपनी जमीन, पानी और श्मशान भूमि पर कब्जा कर लेने और अलग अलग तरीकों से उन्हें उत्पीड़ित करने के खिलाफ विरोध कर रहे थे.

महाराष्ट्र के चेहरे पर एक और दाग

हरियाणा की घिनौनी खाप पंचायतों वाले जाट इज्जत के नाम पर हत्या के लिए बदनाम हैं, लेकिन फुले-शाहूजी-आंबेडकर की विरासत का दावा करने वाले सुदूर महाराष्ट्र में एक गरीब दलित परिवार से आने वाले 17 साल के स्कूली लड़के को आम चुनावों की गहमागहमी के बीच 28 अप्रैल को एक मराठा लड़की से बाद करने के लिए दिन दहाड़े बर्बर तरीके से मार डाला गया. यह दहला देने वाली घटना अहमदनगर जिले के खरडा गांव में हुई. फुले का पुणे यहां से महज 200 किमी दूर है, जहां से उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ विद्रोह की चिन्गारी सुलगाई थी. दलित अत्याचार विरोधी क्रुति समिति की एक जांच रिपोर्ट ने उस क्रूर तरीके के बारे में बताया है, जिससे गांव के सिरे पर एक टिन की झोंपड़ी में रहने वाले और एक छोटे से मिल में पत्थर तोड़ कर गुजर बसर करने वाले भूमिहीन दलित दंपती राजु और रेखा आगे से उनके बेटे को छीन लिया गया. नितिन आगे को गांव के एक संपन्न और सियासी रसूख वाले मराठा परिवार से आनेवाले सचिन गोलेकर (21) और उसके दोस्त और रिश्तेदर शेषराव येवले (42) ने पीट पीट कर मार डाला. नितिन को स्कूल में पकड़ा गया, उसके परिसर में ही उसे निर्ममता से पीटा गया, फिर उसे घसीट पर गोलेकर परिवार के ईंट भट्ठे पर ले आया गया, जहां उनकी गोद और पैंट में अंगारे रखकर उसे यातना दी गई और फिर उनकी हत्या कर दी गई. इसके बाद उसका गला घोंट दिया गया, ताकि इसे आत्महत्या के मामले की तरह दिखाया जा सके. नितिन से प्यार करने वाली गोलेकर परिवार की लड़की के बारे में खबर आई कि उसने आत्महत्या करने की कोशिश की और ऐसी आशंका जताई जा रही है उसे भी जाति की बलिवेदी पर नितिन के अंजाम तक पहुंचा दिया गया.

स्थानीय दलित कार्यकर्ताओं के दबाव में, अगले दिन नितिन की लाश की मेडिकल जांच के बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर लिया जिसमें उसने आरोपितों पर हत्या करने, सबूत गायब करने, गैरकानूनी जमावड़े और दंगा करने का आरोप लगाया है. यह मामला भारतीय दंड विधान के तहत और उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम की धारा 3(2)(5) और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 7 (1)(डी) के तहत भी दर्ज किया गया है. पुलिस ने सभी 12 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया है, जिसमें दोनों मुख्य अपराधी और एक नाबालिग लड़का शामिल है. लेकिन दलित अब यह जानते हैं कि दलितों के खिलाफ किए गए अपराध के लिए देश में संपन्न ऊंची जाति के किसी भी व्यक्ति को अब तक दोषी नहीं ठहराया गया है. अपनी दौलत के बूते और सबसे विवेकहीन पार्टी में – जिसका नाम राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) है – अपनी पहुंच के बूते गोलेकर परिवार को शायद जेल में बहुत दिन नहीं बिताने पड़ेंगे. आखिरकार एनसीपी के दिग्गजों के रोब-दाब वाले इस अकेले जिले में ही, हाल के बरसों में हुए खून से सने जातीय उत्पीड़न के असंख्य मामलों में क्या हुआॽ नवसा तालुका के सोनाई गांव के तीन दलित नौजवानों संदीप राजु धनवार, सचिम सोमलाल धरु और राहुल राजु कंदारे के हत्यारों का क्या हुआ, जिन्होंने ‘इज्जत’ के नाम पर उनकी हत्या की थीॽ धवलगांव की जानाबाई बोरगे के हत्यारों का क्या हुआ, जिन्होंने बोरगे को 2010 में जिंदा जला दिया थाॽ उन लोगों का क्या हुआ जिन्होंने 2010 सुमन काले का बलात्कार करने के बाद उनकी हत्या कर दी थी या फिर उनका जिन्होंने वालेकर को मार कर उनकी देह के टुकड़े कर दिए थे, या 2008 में बबन मिसाल के हत्यारों का क्या हुआॽ यह अंतहीन सूची हमें बताती है कि इनमें से हरेक उत्पीड़न में असली अपराधी कोई धनी और ताकतवर इंसान था, लेकिन दोषी ठहराया जाना तो दूर, मामले में उस नामजद तक नहीं बनाया गया.

जागने का वक्त

अपने अकेले बेटे को इस क्रूर तरीके से खो देने वाले राजू और रेखा आगे की भयावह मानवीय त्रासदी ‘हत्याओं’ की संख्या में बस एक और अंक का इजाफा करेगी और भगाना की उन लड़कियों को तोड़ कर रख देने वाला सदमा और जिंदगियों पर हमेशा के लिए बन जाने वाला घाव का निशान एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो) की ‘बलात्कारों’ की गिनती में जुड़ा बस एक और अंक बन कर रह जाएगा. इन मानवीय त्रासदियों को आंकड़ों में बदलने वाली सक्रिय सहभागिता, जिनके बगैर वे भुला दी गई होती, गुम हो गई है. ऐसी सामाजिक प्रक्रियाओं द्वारा पैदा किए गए उत्पीड़न के आंकड़े अब भी 33,000 प्रति वर्ष के निशान के ऊपर बनी हुई हैं. इन आधिकारिक गिनतियों का इस्तेमाल करते हुए कोई भी यह बात आसानी से देख सकता है कि हमारे संवैधानिक शासन के छह दशकों के दौरान 80,000 दलितों की हत्या हुई है, एक लाख से ज्यादा औरतों के बलात्कार हुए हैं और 20 लाख से ज्यादा दलित किसी न किसी तरह के जातीय अपराधों के शिकार हुए हैं. युद्ध भी इन आंकड़ों से मुकाबला नहीं कर सकते हैं. एक तरफ दलितों में यह आदत डाल दी गई है कि वे अपने संतापों के पीछे ब्राह्मणों को देखें, जबकि सच्चाई ये है कि इस शासन की ठीक ठीक धर्मनिरपेक्ष साजिशों ने ही उन शैतानों और गुंडों को जन्म दिया जो दलितों को बेधड़क पीट पीट कर मार डालते हैं और उनका बलात्कार करते हैं.

इसने सामाजिक न्याय के नाम पर जातियों को बरकरार रखने की साजिश की है, इसने पुनर्वितरण के नाम पर भूमि सुधार का दिखावा किया जिसने असल में भारी आबादी वाली शूद्र जातियों से धनी किसानों के एक वर्ग को पैदा किया. वह सबको खाना मुहैया कराने के नाम पर हरित क्रांति लेकर आई, जिसने असल में व्यापक ग्रामीण बाजार को पूंजीपतियों के लिए खोल दिया. वह ऊपर से रिस कर नीचे आने के नाम पर ऐसे सुधार लेकर आई, जिन्होंने असल में सामाजिक डार्विनवादी मानसिकता थोप दी है. ये छह दशक जनता के खिलाफ ऐसी साजिशों और छल कपट से भरे पड़े हैं, जिनमें दलित केवल बलि का बकरा ही बने हैं. भारत कभी भी लोकतंत्र नहीं रहा है, जैसा इसे दिखाया जाता रहा है. यह हमेशा से धनिकों का राज रहा है, लेकिन दलितों के लिए तो यह और भी बदतर है. यह असल में उनके लिए शैतानों और गुंडों की सल्तनत रहा है.

दलित इन हकीकतों का मुकाबला करने के लिए कब जागेंगेॽ कब दलित उठ खड़े होंगे और कहेंगे कि बस बहुत हो चुका!

बौद्धिकों के बदले सुर

                                                                                                                 -  हाशिया से साभार
लाल्टू

नई सरकार बनने के बाद उदारवादी माने जाने वाले बुद्धिजीवियों में बदले हालात में खुद को ढालने की कोशिशें दिखने लगी हैं। ऐसी ही एक कोशिश हाल में अंगरेजी के ‘द हिंदू’ अखबार में छपे शिव विश्वनाथन के आलेख में दिखती है। नरेंद्र मोदी द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा और फिर उसके बाद गंगा आरती से बात शुरू होती है। टीवी पर यह दृश्य आने पर संदेश आने लगे कि बिना कमेंट्री के पूरी अर्चना दिखाई जाए। कइयों का कहना था कि इस तरह पूरी पूजा की रस्म को पहली बार टीवी पर दिखाया गया। इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की गंगा आरती पहली बार दिखाई गई। पर धार्मिक रस्म हमेशा टीवी पर दिखाई जाती रही हैं। राष्ट्रीय नेता सार्वजनिक रूप से धार्मिक रस्मों में शामिल होते रहे हैं, यह हर कोई जानता है। तो एक अध्येता को यह बड़ी बात क्यों लगी? शिव बताते हैं कि मोदीजी के होने से यह संदेश मिला कि हमें अपने धर्म से शर्माने की जरूरत नहीं है। यह पहले नहीं हो सकता था।

कौन-सा धर्म? कैसी शर्म? क्या मोदी महज एक धार्मिक रस्म निभा रहे थे? अगर ऐसा है तो इसके पहले कितनी बार उन्होंने यह आरती की?

सच में वह कोई धार्मिक काम नहीं था। वह आरती किसी भी धार्मिकता से बिल्कुल अलग, एक विशुद्ध राजनीतिक कदम थी। उसमें से उभरता संदेश यही था कि राजा आ रहा है।

तकरीबन डेढ़ महीने पहले एक और आलेख में बनारस में केजरीवाल और मोदी की भिड़ंत पर शिव ने लिखा था, ‘मोदी जिस भारत-इंडिया, हिंदू-मुसलिम फर्क को थोपना चाहते हैं, बनारस उसे खारिज करता है।’ अब मोदी के जीतने पर उनका सुर बदल गया है।

आगे वे किसी दोस्त को उद्धृत कर बिल्कुल निशाने पर मार करते हैं, अंगरेजी बोलने वाले सेक्यूलरिस्ट लोगों ने बहुसंख्यकों को अपना स्वाभाविक जीवन जीने में परेशान कर दिया। इंग्लिश वालों की दयनीय स्थिति पर मैं पहले लिख चुका हूं, पर स्वाभाविक क्या है, इस पर मेरी और शिव की समझ में फर्क है। आगे वे लिखते हैं कि वामपंथी घबरा गए हैं कि अब धर-पकड़ शुरू होगी। वैसे सही है कि इकतीस फीसद मतदाताओं ने ही भाजपा को बहुमत दिलाया है। ऐसा नहीं कि सारा मुल्क तानाशाह के साथ है। अगर मतदान में शामिल न हुए लोगों को गिनें, तो जनसंख्या का पांचवां हिस्सा भी भाजपा के साथ नहीं होगा।

घबराने की कोई बात सचमुच नहीं है। पर क्या हम भूल जाएं कि पिछली बार के भाजपा शासन के दौरान किताबें कैसे लिखी गर्इं। आज हम सब वामपंथी दिखते हैं, पर डेढ़ महीने पहले यह डर उन्हें भी था कि मोदी हिंदू-मुसलिम फर्क को थोपना चाहते हैं। एनसीइआरटी की एक किताब में भारत विभाजन पर अनिल सेठी का लिखा एक अद्भुत अध्याय है, जिसमें दोनों ओर आम नागरिकों को विभाजन से एक जैसा पीड़ित दिखाया गया है। यह वाजिब चिंता है कि इस अध्याय को अब हटा दिया जा सकता है। यह सब जानते हैं कि दक्षिणपंथियों के आने से इतिहास की नई व्याख्या की जाएगी।

शिव का मानना है कि उदारवादी इस बात को नहीं समझ पाए कि मध्यवर्ग के लोग तनाव-ग्रस्त हैं और मोदी ने इसे गहराई से समझा। पहले इन तनावों की वाम की समझ के साथ शिव सहमत थे, पर अब उन्हें वाम एक गिरोह दिखता है, जिसने धर्म को जीने का सूत्र नहीं, बल्कि एक अंधविश्वास ही माना। यह पचास साल पुरानी बहस है कि मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा या कि उसे उत्पीड़ितों की आह माना। आगे वे वाम को एक शैतान की तरह दिखाते हैं, जिसने संविधान में वैज्ञानिक चेतना की धारणा डाली ताकि धर्म की कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति मिले। रोचक बात यह है कि अंत में वे दलाई लामा को अपना प्रिय वैज्ञानिक कहते हैं। तो क्या वैज्ञानिक में ‘वैज्ञानिक चेतना’ की भ्रष्ट धारणा नहीं होती!

उनके मुताबिक यह धारणा एक शून्य पैदा करती और धर्मनिरपेक्षता बढ़ाती है, जिससे ऐसा दमन का माहौल बनता है, जहां आम धार्मिक लोगों को नीची नजर से देखा जाता है। बेशक, विज्ञान को सामाजिक मूल्यों और सत्ता-समीकरणों से अलग नहीं कर सकते, पर यह मानना कि जाति, लिंगभेद आदि संस्थाएं, जिन्हें धार्मिक आस्था से अलग करना आसान नहीं, विज्ञान उनसे भी अधिक दमनकारी है, गलत है। शिव धर्मनिरपेक्षता को विक्षोभ पैदा करने वाला औजार मानते हैं। उनके अनुसार पिछली सरकार ने चुनावों के मद्देनजर लघुसंख्यकों की तुष्टि की और इससे बहुसंख्यकों को लगा कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। तो वह तुष्टि क्या है?

शाहबानो का मामला, पर्सनल लॉ, कश्मीर के लिए धारा 370, कांग्रेस या दूसरे दलों के चुनावी मुद्दे तो ये नहीं हैं, हालांकि संघ परिवार के लिए ये संघर्ष के मुद्दे हैं। चुनाव के मुद्दों में आरक्षण भी है। पैसा, शराब, मादक पदार्थ, हिंसा, क्या नहीं चलता। जातिवाद और सांप्रदायिकता भी।

सवाल है कि कहां तक गिरना ठीक है। संघ ने खासतौर पर उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों और दलितों में झूठी बहुसंख्यक अस्मिता का अहसास पैदा किया और फिर उनमें गुस्सा पैदा किया कि तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है। दूसरी ओर अगर लघुसंख्यकों को कुछ सुविधाएं दी जाएं तो क्या वह हमारे पारंपरिक मूल्यों के खिलाफ है? अगर नहीं तो सच्चर समिति की रिपोर्ट जैसे दस्तावेजों से उजागर लघुसंख्यकों के बुरे हालात के मद्देनजर अगर उनकी तरफ अधिक ध्यान दिया गया तो इससे एक बुद्धिजीवी को क्या तकलीफ?

बिना विस्तार में गए सिर्फ इस अहसास को बढ़ाना कि लघुसंख्यकों का तुष्टीकरण होता है, एक गैर-जिम्मेदाराना रवैया है। होना यह चाहिए कि हम सोचें कि देश में लघुसंख्यकों का

हाल इतना बुरा क्यों है कि उनका चुनावों के दौरान फायदा उठाना संभव होता है। उनकी माली और तालीमी हालत इतनी बुरी क्यों है कि उनके बीच से उठने वाली तरक्की-पसंद आवाजें दब जाती हैं।

यह एक नजरिया हो सकता है कि बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्षता को खोखला दमनकारी विचार मानते हैं। पर यह भी देखना चाहिए कि गरीबी और रोजाना मुसीबतों से परेशान लोग बहुसंख्यक अस्मिता से जुड़े राष्ट्र की संकीर्ण धारणा के शिकार हो जाते हैं, यह ऐसा विचार है, जिसके मुताबिक अपने ही अंदर दुश्मन ढूंढ़ा जाता है, जैसे जर्मनी में यहूदी, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू और भारत में मुसलमान। इसी असुरक्षा को मोदी और संघ ने पकड़ा। इसके साथ रोजाना जिंदगी में धर्म और अध्यात्म का संबंध ढूंढ़ना गलत होगा। धर्मनिरपेक्षता बहुसंख्यकों पर कोई कहर नहीं ढाती। इसके विपरीत होता यह है कि संघ परिवार जैसी ताकतों के भेदभाव वाले प्रचार से इंसान की बुनियादी प्रेम और भलमनसाहत की प्रवृत्तियां दब जाती हैं।

शिव बताते हैं कि हमारे धर्मों में हमेशा ही संवाद की परंपरा रही है। पर इतना कहना काफी नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज में धर्म की भूमिका बड़े तबकों को क्रूरता से मनुष्येतर रखने की रही। हमारे चिकित्सा-विज्ञान की परंपरा में बहुत-सी अच्छी बातें हैं, वहीं लाशों के साथ काम करने वालों को अस्पृश्य मानना भी इसी परंपरा का हिस्सा है। एक ओर यह सही है कि हमारे लोगों के लिए धर्म पश्चिम की तरह महज रस्मी बात नहीं, वहीं यह भी सही है कि हर धार्मिक रस्म आध्यात्मिक उत्थान से नहीं जुड़ी है। इस देश के किसी भी हिस्से में सुबह उठते हुए इस बात को समझा जा सकता है, जब मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारों से सुबह की कुदरती शांति को चीरती लाउडस्पीकरों की कानफाड़ू आवाजें सुनाई पड़ती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे जीवन में धर्म का हस्तक्षेप अधिकतर बड़ा दुखदायी होता है।

निजी आस्था और सार्वजनिक जीवन में फर्क करने वाली धर्मनिरपेक्षता का सेहरा वाम को चढ़ाना भी गलत होगा। ऐसी खबरों की संख्या कम नहीं, जब वाम नेता पूजा मंडपों का उद्घाटन करते देखे गए थे। जिस वाम को लेकर जैसी बहस शिव या दीगर बुद्धिजीवी कर रहे हैं, वह सिर्फ अकादमिक संस्थानों के घेरे में है।

आज ऐसी बहस को पढ़ कर लगता है मानो नई सरकार क्या बनी, भारत से स्टालिन का शासन खत्म हुआ!

धर्मनिरपेक्षता की बात करते हुए ईसाई धर्म और विज्ञान की लड़ाई को ले आना शायद यह बताता है कि धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धारणा है। पर क्या आधुनिक राज्य-सत्ता की धारणा भारतीय है? सरसंघ चालकों का प्रेरक हिटलर क्या भारतीय था?

इसमें कोई शक नहीं कि कई लोग इस बात से सही कारणों से परेशान होते हैं कि पेशेदार वैज्ञानिक अपनी धार्मिक आस्थाओं और विज्ञान-कर्म को अक्सर अलग नहीं कर पाते। पर इसका व्यापक समाज में चल रही प्रक्रियाओं पर कोई असर नहीं पड़ता। वैसे ही हमारे वैज्ञानिकों में नास्तिकों की संख्या बड़ी कम है। और अधिकतर व्यवस्था-परस्त हैं। किसी भी राष्ट्रीय सम्मेलन में चले जाएं तो पाएंगे कि अधिकतर वैज्ञानिक इसी चर्चा में मशगूल हैं कि गुजरात में क्या गजब का विकास हुआ है।

सभ्यताओं को पूरब, पश्चिम में बांट कर देखना कितना सही है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। पिछली सदी की मान्यताओं के विपरीत अब यह जानकारी आम है कि पिछले दो हजार सालों में पर्यटकों और ज्ञानान्वेषियों के जरिए धरती के एक से दूसरी ओर ज्ञान का प्रवाह व्यापक स्तर पर होता रहा है।

यह सरासर गलत है कि हिंदुत्व को बुरा मानते हुए भी धर्मनिरपेक्ष लोग दूसरे धर्मों में मूलवाद को नर्मदिली से देखते रहे। ऐसा कहना न केवल झूठ है, बल्कि  इससे कहने वाले के निहित स्वार्थों पर सवाल उठते हैं। धर्मनिरपेक्षता में वह शैतान मत ढूंढ़िए, जिसे मध्यवर्ग के लोगों ने उखाड़ फेंका हो। सच यह है कि हममें से हरेक में एक नरेंद्र मोदी बैठा है। हमारे सांप्रदायिक सोच का फायदा उठाया जा सकता है। इकतीस फीसद मतदाताओं के अधिकतर के साथ को मोदी और संघ परिवार यही करने में सफल हुआ है। बाकी काम दस हजार करोड़ रुपयों से हुआ, जिसमें मीडिया के अधिकतर को खरीदा जाना भी शामिल है। यह तो होना ही है कि जब ‘हिंदू’ नाम का राजनीतिक समूह विशाल बहुसंख्या में मौजूद है, तो हिंदुत्व पर नजर ज्यादा पड़ेगी, जैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश में उदारवादी इस्लामी मूलवाद पर ज्यादा गौर करेंगे।

यह सचमुच तकलीफदेह है कि मोदी के विरोध को शिव जैसे बुद्धिजीवी विज्ञान और आधुनिकता से जोड़ रहे हैं। वैसे यह एक तरह से विज्ञान के पक्ष में ही जाता है। आखिर 2002 से पहले मोदी के बयानों को कौन भूल सकता है। मुसलमानों के लिए उनके बयान असभ्य और अक्सर आक्रामक होते थे। ‘हम पांच हमारे पचीस’ उनका तकियाकलाम था। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे सावधान हो गए, फिर भी कभी-कभार जबान चल ही पड़ती है। यह सबको पता है। अगर विज्ञान हमें इस मानव-विरोधी कट्टरता से टक्कर लेने की ताकत देता है, तो जय विज्ञान।

(24 मई के जनसत्ता में प्रकाशित)