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Thursday, December 18, 2014

काकोरी के शहीदों की याद में : काकोरी के शहीदों को सलाम !


     काकोरी के शहीदो के याद में आज भगत सिंह छात्र मोर्चा ने एक श्रद्धांजली  सभा और परिचर्चा का आयोजन बी एच यू के एम्पीथिएटर मैदान में किया.जिसमे पहले शहीदो के याद में दो मिनट का मौन रखा गया.इसके बाद कार्यकर्म की शुरुआत करते हुए संग़ठन के सहसचिव विनोद शंकर ने काकोरी के शहीदो को याद करते हुए भारतीय क्रांति में उनके योगदान को सभा में रखा और उपस्थित लोगो से निवेदन किया की सभी उन पर और आज के समय में उनकी प्रासंगिता पर अपनी बात रखे । इसके बाद सभा में उपस्थित संगठन के पदाधिकारी, सदस्यों और छात्रों ने अपनी -अपनी बाते रखी.जिसमे साथी रोहित ने कहा की हम जहा है वही अपने जनवादी अधिकारों के लिए लड़े और हमारे आस-पास जो जनता अपने अधिकारों और हको के लिए लड़ रही है तो हम उनके साथ खड़े हो। आज काकोरी की शहीदो को हमारी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी । इसके बाद अध्यक्ष शैलेश ने कहा की काकोरी के शहीद जिस सपने के लिए लड़े थे जिस शोषण और उत्पीड़न को वो ख़त्म कर देना चाहते थे । आज वो पहले से भी ज्यादा तेज गति से हो रहा है.इसलिए आज के समय में काकोरी के शहीदो को याद करना उन सपनो और संघर्षो को याद करना है जिसके लिए वो शहीद हो गए.और उसे पूरा करना ही हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए। इसके बाद साथी धीरज और आरती ने आओ साथियो हमे इंकलाब लानी है.हम आजाद है कहा हमें आजादी लानी है.गीत गा कर शहीदो को अपनी श्रद्धांजलि दी.इसके बाद पटना से आये हमारे वरिष्ठ साथी राज किशोर जी ने काफी विस्तार से काकोरी के शहीदो पर अपनी बात रखते हुए क्रांतिकारी राजनीती की धारा पर बात की । जो अपने देश में बहुत पहले से रही है.काकोरी के शहीदो को याद करना सिर्फ एक घटना और कुछ शहीदो की शहादत को याद करना नहीं बल्कि क्रांतिकारी राजनीती की पूरी धारा को याद करना है.जो इस देश में आज भी बढ़ रही है.जिसके नेतृृत्व में आज भी देश की व्यापक जनता इस शोषणकरी राज्य व्यवस्था से लड़ रही है.इसके बाद उपस्थित साथियो को धन्यवाद देते हुए विनोद शंकर ने परिचर्चा का समापन कर दिया गया..

    साथियो, 
            आज ही के दिन १९ दिसंबर १९२७ को वीर क्रांतिकारियों रोशन सिंह ,अशफ़ाक़ उल्ला खां,रामप्रसाद बिस्मिल को अंग्रेजों ने फंसी दी थी | राजिन्द्र लाहिरी को दो दिन पहले ही १७ दिसंबर को गोंडा में फांसी दे दी गयी थी | राजिन्द्र लाहिरी हमारे कशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एमए. के छात्र थे |  जिनकी उम्र उस समय २४ वर्ष थी | हमारे क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के शोषण -उत्पीड़न से जनता की मुक्ति की लड़ाई लड़ी | और अंग्रेजों द्वारा हमारे देश से लूट कर ले जा रहे खजाने को छीना | जिसे क्रन्तिकारी पार्टी के लिए चंदे के रूप में प्रयोग किया | यही वजह थी कि अंग्रेजों ने इन लोगों को फांसी कि सजा दी |
अशफ़ाक़ उल्ला खां 

  लेकिन अपने आस-पास नजर डालकर देखिये कि क्या जनता का शोषण-उत्पीड़न बंद हो गया ? क्या प्राकृतिक खनिज सम्पदाओं की लूट ख़त्म हो गयी ? क्या जनता की मुक्ति की लड़ाई ख़त्म हो गयी ? क्या जनता पर दमन बंद हो गया ? नहीं ! कतई नहीं !वह सब आज भी जारी है |
रामप्रसाद बिस्मिल 

दोस्तों , 
         आज जब गोरो के साथ समझौता हो गया है | काले अंग्रेज "ईस्ट इंडिया कंपनी" के तर्ज पर विदेशों में जाकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देश को लूटने का न्योता दे रहे है | उसका नाम दे रहा है "मेक इन इंडिया" |
राजिन्द्र लाहिड़ी 

 देश भर में रेलवे,बिजली,रक्षा व अन्य सभी विभागों को निजी हाथों में सौपा जा रहा है | उसमें साम्राज्यी पूंजी का निवेश किया जा रहा है | जल-जंगल-जमीन व प्राकृतिक खनिज सम्पदाओं को हथियारों के दम पर साम्राज्यवादी कंपनियों को कौड़ियों के भाव बेचा जा रहा है | इसमे सभी संसदीय राजनितिक पार्टिया शामिल है | जो जनता इसके खिलाफ मुक्ति की लड़ाई लड़ रही है उस पर "आपरेशन ग्रीन हंट" के तहत फौजी दमन चलाया जा रहा है | और उन्हीं पुराने कानूनों के तहत देशद्रोह का मुक़दमा लगाकर लगातार जेलों में ठूसा जा रहा है | हमारा देश और हमारा भविष्य खतरे में है | अब जब छात्रों-नौजवानो का दायित्व बढ़ गया है तब हम क्रांतिकारियों की शहादत को बेकार नहीं जाने देंगे ! 

Tuesday, December 9, 2014

अपनी मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे आदिवासी !


      उत्तर प्रदेश में चंदौली जिले के चकिया तहशील के महात्मा गांधी पार्क में आदिवासी-वनवासी जनजाति अधिकार मंच के तहत कुछ स्थानीय आदिवासी अपनी मांगों को लेकर २६-११-२०१४ से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे है | लेकिन अभी तक कोई स्थानीय अधिकारी उनसे बात करने नहीं आया  और न ही प्रदेश सरकार ने उनकी समस्याओं  को जानने की कोशिश की | फिर भी इस कपकपाती शर्दी में खुले मैदान में वे इस संकल्प के साथ  भूख हड़ताल पर बैठे है कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं हो जाती है, तब तक वे इस भूख हड़ताल को जारी रखेंगे | भले ही इस ठण्ड में दो-चार लोगों कि जान ही क्यों न चली जाये |

  
        जब हमने उनके बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि वे चंदौली जिला के चकिया थाना के चौबीसहां  बैराठ फॉर्म के रहने वाले है | जहाँ कि जमीन पर उनके पूर्वज काशीराज के वलिनीकरण के समय से ही खेती करते आ रहे है | पहले ये जमीन डा० विभूतिनारायण सिंह पूर्व काशी नरेश को वन विभाग ने दिया था जो उस समय जंगल था | जिसका पूरा क्षेत्रफल एक हजार बीघा है | जिसको आस-पास के आदिवासियों से पेड़,झाड़ी कटवा कर उन्ही को अधिया,शिकमी देकर राजा ने खेती करना शुरू किया, लेकिन उक्त बैराठ फॉर्म राजस्व अभिलेखो में दर्ज नहीं हुआ | इसलिए जमींदारी कानून लागू होने के बाद भी उक्त भूमि जोतने वाले जोतदारों (आदिवासियों) को अपना लाभ नहीं मिला तथा अधिकतम जोत अधिनियम लागू होने के बाद बैराठ फॉर्म की कुल भूमि बचत भूमि घोषित कर दी गयी | इसके बावजूद जोतदार राजा को गल्ला देते रहे | लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि ये जमीन उनकी नहीं सरकार की है तब से उन्होंने पूर्व राजा को गल्ला देना बंद कर दिया और तब से सभी जोतदार खेती करते चले आ रहे है लेकिन जब से प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेतृृत्व में सरकार बनी है उसके कार्यकर्ता,समर्थक और बैराठ फार्म के पड़ोस के गांव के ग्राम प्रधान कल्लू यादव और उनके साथी बैराठ फार्म में आबाद और काबिज आदिवासियों को उजाड़ कर कब्ज़ा करने की नियत से फार्म में घुस कर मड़ईया  लगाना शुरू कर दिए है.
            इसके पहले भी इस प्रधान ने सरकार द्वारा आवास बनाने की योजना के  अंतर्गत आदिवासियों के मकान बनाने के लिए आया पैसा धोखे से आवास स्वीकृत  करा कर उसका पैसा हड़प लिया |  जिससे आवास का निर्माण नहीं हो सका जिसकी जांच व आवश्यक कार्यवाही के लिए आदिवासियों दवारा प्रखंड कार्यालय में कई बार प्राथर्ना पत्र दिया गया, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुयी |


बैराठ फार्म के विवाद के चलते प्रशासन ने इन्हे उस भूमि पर से भी खेती करने से मना कर दिया है | जिस पर बैराठ फार्म की १००० बीघा भूमि में से सीलिंग जमींदारी उन्मूलन कानून लागू होने से पहले सिचाई विभाग ने ४४७ बीघा भूमि अधिग्रहण करके उसमे मोकरम बंधी बनाया और उक्त बंधी के अंतर्गत जितनी भूमि में पानी नहीं रहता उस भूमि पर भी आदिवासी शुरू से खेती करते आ रहे है और शिकमीदार के रूप में पूर्व राजा को लगान भी गल्ला देते रहे है, लेकिन सन १९९५ ई०  से जब यह पता चला की उक्त बंधे की भूमि सिचाई विभाग की है तो राजा को गल्ला देना बंद कर दिया | तब उक्त भूमि के कब्जे के सवाल को लेकर राजा और आदिवासियों के बीच धारा १४५ जमींदारी-फौजदारी का मुकदमा चला जो बाद में वापस ले लिया गया और राजा ने अपना दावा छोड़ दिया | तब से आदिवासी मोकरम बंधी की स्वतंत्र रूप से जोतते चले आ रहे है |

१ . उनकी मांग है कि उन मड़ईयों को तत्काल हटाकर आदिवासियों के कब्जे में दखल देने वाले कल्लू प्रधान व उनके साथियों के खिलाफ क़ानूनी कार्यवाई कि जाये |
२. ग्राम सभा लठिया अंतर्गत अावास निर्माण में धन कि हेरा-फेरी व घपलेबाजी कि जांच कराकर आदिवासियों का आवास निर्माण पूरा कराया जाए और दोषी प्रधान के खिलाफ कार्यवाही करते हुए पैसा वशूल किया जाए |
३, पूर्व से काबिज और मुकरम बंधी में आबाद आदिवासियों द्वारा जोतने-बोने में कोई हस्तक्षेप न किया जाये और जो कोई अन्य हस्तक्षेप करे तो उसके खिलाफ क़ानूनी कार्यवाही कि जाये |

         कहने को तो प्रदेश में समाजवादी पार्टी कि सरकार है पर ये समाजवाद उनके पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थक के लिए है जो कमजोर तबको के शोषण करने में आगे है | भगत सिंह छात्र मोर्चा इनकी मांगों का समर्थन करता है और इनके संघर्ष में साथ देने का वादा करता है |

Saturday, December 6, 2014

बाबा साहेब डा० भीमराव अम्बेडकर के ५८ वें परिनिर्वाण दिवस पर उनके कुछ विचार :

आज जब दलित आंदोलन कमजोर स्तिथि में है, अम्बेडकर के विचारों कि सबसे ज्यादा प्रासंगिकता है और उनके नाम पर अवसरवादी राजनीति करने वालों का पर्दाफास हो चूका है, तब हमें उनके विचारों को फिर से संघर्षों द्वारा स्थापित करने कि जरुरत है न कि आरएसएस-भाजपा,अवसरवादी राजनीतिक पार्टियों व अन्य दलित ब्राम्हणवादियों-पूंजीपतियों द्वारा दिवस मानाने की है |आज भी रिपब्लिकन पैंथर और कबीर कला मंच जैसे संगठनों से दलित आंदोलन व आंबेडकर के सपनों की उम्मीद बची हुयी है । इसी कड़ी में .......

कबीर कला मंच के सांस्कृतिक कलाकार

" इस देश के दो दुश्मनो से कामगारों को निपटना होगा यह ब्राम्हणवाद और पूंजीवाद हैं | "

" ब्राम्हणवाद से आशय स्वतंत्रता ,समता व भाईचारे की भवना के निषेध से है | ब्राम्हण इसके जनक है लेकिन यह सभी जातियों में घुसी हुयी है | "

" जाति एक बंद वर्ग है, बिना सामाजिक क्रांति के आर्थिक क्रांति नहीं हो सकती " -(जातियों का उन्मूलन से ....)

" अगर संविधान का पालन नहीं हुआ तो मै पहला व्यक्ति होऊंगा इसे बीच चौराहे पर जलाने वाला | "

" हर नई पीढ़ी के लिए नए संविधान की जरुरत होती है | "

" आरक्षण कुछ वर्षों में खत्म कर देना होगा | "

" हमारे पढ़े-लिखे लोगों ने हमें धोखा दिया | "

" पहला कदम उन्हें जमीन दिलवाना,गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलवाना होगा और स्वास्थ सेवाएं मुहैया करवाना होगा, दूसरा संघर्ष में आस्था की वैचारिकता बहाली का होगा और तीसरा अन्य जातियों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम करना होगा | " - (मुक्ति कौन पथे लेख से ....)

" हर जाति एक राष्ट्र है | "

" यह मान कर अपने आपको भुलावा दे रहें है कि हम एक राष्ट्र है जब हम हजारों जातियों में विभाजित है तो एक राष्ट्र कैसे हो सकते है ,जाति राष्ट्र विरोधी है | "

" आप बेहतर सडकों ,रेलवें ,सिचाई कि नहरों ,स्थाई प्रशासन देने और अंदरुनी शांति कायम करने के लिए बैठकर अंग्रेजी नौकरशाही कि तारीफ के पुल नहीं बांधते नहीं रह सकते | मै इस बात पर सहमत होने वाला पहला व्यक्ति होऊंगा कि अंग्रेजों कि तारीफ फ़ौरन दूर हो जाएगी अगर हम जमींदारों और पूंजीपतियों द्वारा इस देश के गरीबों और आम जनता से मुनाफे कि जबरन वशूली को देखे | "



  • इसी से सम्बंधित कुछ अन्य विचार :



" अम्बेडकर के तथाकथित शिष्य ही जाति उन्मूलन के उनके इस सपने को दफ़नाने में सबसे आगे रहे जिन्होंने अपने-अपने पहचान के झंडे को उनकी कब्र पर गाड़ दिए है | " - आनंद तेलतुम्बडे 

" अछूतों ! उठो सोये हुए शेरों तुम्ही देश के असली सर्वहारा हो ,तुम्हे ही क्रांति करनी है लेकिन नौकरशाही से दूर रहना | " -भगत सिंह (अछूत समस्या लेख से ....)

भगत सिंह  

" बलिस्थान में जब तक शूद्र ,अतिशूद्र, भील , कोली आदि शिक्षित होकर एक नहीं होते तब तक वे एक राष्ट्र नहीं बन सकते | " - फूले  

ज्योतिबा फुले

" बथानी नरसंहार व अन्य पर संविधान को देखे तो अभी तक का अनुभव कहता यह नई मनुस्मृति साबित हुआ है , नई मनुस्मृति को जला दो ! " - रिपब्लिकन पैंथर

सुधीर धावले (विद्रोही पत्रिका के संपादक व रिपब्लिकन पैंथर पार्टी के संस्थापक)


" इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजसत्ता में भागीदारी कि रणनीति से दलितों को उल्लेखनीय फायदे हुए शिक्षा,रोजगार और राजनीति में आरक्षण के चलते बहुत से दलित ऐसे पदों पर पहुंच चुके है जहां वे पहुचने कि सोच भी नहीं सकते थे लेकिन इन उपलब्धियों के साथ हमेशा समझौता जुड़ा हुआ था | " - आनंद तेलतुम्बडे

आनंद तेलतुम्बडे  (डॉ  आंबेडकर के सम्बन्धी  , सामाजिक कार्यकर्ता  व  दलित विचारक )

" इस सच्चाई को नाकारा नहीं जा सकता कि इस प्रक्रिया से दलित राजनीतिक रूप से शक्तिहीन हुए और उनमें लाभार्थियों के ऐसे अलग वर्ग का उदय हुआ जिसका सामान्य दलित जनता से बहुत कमजोर रिश्ता था इस ने दलित मुक्ति कि विचारधारा को पूरी तरह तोड़-मरोड़ दिया , स्थानीय सर्वहारा वर्ग के तौर पर दलितों का उत्थान जेल में कुछ उपहार बाँट कर नहीं किया जा सकता यह आज़ादी तभी संभव है जब इस जेल को ही बारूद से उदा दिया जाये और इसकी जगह उनकी जरुरत के मुताबिक नए आसरे का निर्माण किया जाये | " - आनंद तेलतुम्बडे

" हमें नहीं चाहिए ब्राम्हण गलियारों  में छोटी सी जगह हमें पुरे मुल्क की  हुकूमत चाहिए ह्रदय परिवर्तन उदार शिक्षा हमारे शोषण को ख़त्म नहीं कर सकती जब हम इंकलाबी अवाम को इकठ्ठा कर लेंगे जागरूक करेंगे तब इस विशाल संघर्ष के बीच से इंकलाब कि लहर आगे बढ़ेगी दलितों के खिलाफ जारी नाईंसाफी को ख़त्म करने के लिए जरुरी है कि वह खुद हुक्मरान बने यही जनता का जनतंत्र है | " - दलित पैंथर 

" बहुत सारी गलतफहमियां दलित आंदोलन के पेट्टी बुर्जुआ (निम्न मध्यमवर्गीय नियंत्रण ) से पैदा हुई है , निहित स्वार्थों ने आंबेडकर के इधर-उधर विखरे विचारों का इस्तेमाल कम्युनिस्म को निचा दिखने के लिए किया गया | " - आनंद तेलतुम्बडे



Thursday, December 4, 2014

भगत सिंह छात्र मोर्चा राजस्थान यूनिवर्सिटी में प्रदर्शनकारी छात्र-छात्राओं पर पुलिस के बर्बरपूर्ण तरीके से लाठी चार्ज का कड़े शब्दों में निंदा करता है !




बनारस से लेकर राजस्थान यूनिवर्सिटी तक छात्र आंदोलनों को पुलिस की लाठी और संघी गुंडों के सहारे दबाने की भाजपाई कोशिश को नाकाम करें !
झूठ और नफरत की राजनीति करने वाली भाजपा सरकार शायद सत्ता के नशे में भूल गयी है की छात्र आंदोलनों को लाठी-गोली के दम पर ना ही इतिहास मे दवाया जा सका है और ना ही वर्तमान व भविष्य में दवाया जा सकेगा.

Saturday, November 22, 2014

बीएचयू में छात्रसंघ आंदोलन

छात्र  एकता  ज़िंदाबाद  !           मुकम्मल छात्रसंघ बहाल करो !!
  • गिरफ्तार छात्रों को तत्काल रिहा करो !
  • बीएचयू में छात्रसंघ आंदोलन पर पुलिसिया दमन का विरोध करें  !!
  • विश्वविद्यालय प्रशासन व गुंडा तत्वों के मिलीभगत से छात्रसंघ आंदोलन को बदनाम करने व छात्र एकता को तोड़ने की शाजिस का पर्दाफास करें  !!!
  • विश्वविद्यालय परिसर से पुलिस व पीएसी को तत्काल बहार निकालो !!!!
  • निकाले गए छात्रों की हॉस्टल  व्यवस्था को तत्काल बहाल करो !!!!!

साथियों ,
             बीएचयू में पिछले कई दिनों से छात्र परिषद के बहिष्कार व मुकम्मल छात्रसंघ की बहाली के लिए चल रहा आंदोलन अब एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गया है ।  धरना, प्रदर्शन व भूख हड़ताल से होते हुए यह आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से आगे बढ़ रहा था | लेकिन छात्रों के तमान विरोधो व आंदोलनों के बावजूद वि०वि० प्रशासन ने छात्र परिषद चुनाव कराने की तिथि घोषित कर दी | प्रशासन के इस निर्णय ने आग में घी डालने का काम किया | इस तरह से बेहद शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा आंदोलन उग्र रूप लेने लगा | छात्रों ने कक्षा बहिष्कार शुरू कर दिया और   वि०वि० से लगे गेटो को बंद कर दिया | 


          स्थिति तब बहुत ज्यादा बिगड़ गयी जब प्रशासन के निर्देश पर पुलिस व पीएसीने आन्दोलनरत छात्रों पर लाठीचार्ज कर दिया | इस घटना से छात्र उग्र हो गए और पुरे वि०वि में छात्रों व पुलिस के बीच गुरिल्ला संघर्ष छिड़ गया | इस संघर्ष में बिरला ,राजाराम व लाल बहादुर शास्त्री  आदि छात्रावासों के छात्रों की अग्रणी भूमिका रही | संघर्ष को उग्र रूप लेता  देख कुलपति ने छात्र परिषद चुनाव को रद्द करने की घोषणा कर दी | लेकिन जैसा की हमेशा से होता आ रहा है प्रशासन ने एक बार फिर बांटो और राज करो की नीति को अपनाया | वि०वि० प्रशासन ने कुछ गुंडा तत्वों व सत्ताधारी राजनितिक पार्टियों के दलालों की मिलीभगत से एक बार फिर छात्र एकता को तोड़ने व  छात्रसंघ को बदनाम करने की साजिश शुरू कर दी | और अगले ही दिन यानी २१ नवम्बर को वि०वि० में छात्रसंघ बहाली के लिए चल रहा आंदोलन बिरला बनाम ब्रोचा छात्रावास व साईंस बनाम आर्ट्स के आपसी मुठभेड़  का शिकार हो गया |

        इस स्थिति का फायदा उठाते हुए वि०वि० प्रशासन व जिला प्रशासन ने कैम्पस को पुलिस छावनी में बदल दिया | सैकड़ो -हजारो की संख्या में पुलिस व पीएसी के जवान कैम्पस में गश्त करने लगे | छात्रों को बेरहमी से पीटा गया |  बिरला ,राजाराम व लाल बहादुर शाश्त्री छात्रावास को बलपूर्वक खली करा दिया गया | इसके लिए हॉस्टल वार्डेन को सूचित करना भी जरुरी  नहीं समझा गया | सैकड़ो की तादात में छात्रों को गिरफ्तार कर जेल में भेज दिया गया | हॉस्टल कर्मचारियों और वार्डेन को भी नहीं बख्शा गया |करीब डेढ़ दर्जन छात्रों पर गंभीर धाराए लगायी गयी हैं  | 

बीसीएम छात्रसंघ बहाली जैसे बुनियादी व लोकतांत्रिक माँगो के पुलिसिया दमन का तीखा विरोध करता है तथा प्रशासन से तत्काल सभी छात्रों को रिहा करने व उनकी हॉस्टल व्यवस्था को बहाल करने की मांग करता है | तथा छात्रों से अपील करता है कि वह आपसी एकता व एकजुटता को बनाये रखे व छात्रसंघ बहाली के आंदोलन को जारी रखें |

Friday, November 21, 2014

भगत सिंह छात्र मोर्चा का दूसरा सम्मलेन सफलतापूर्वक सम्पन्न


      भगत सिंह छात्र मोर्चा का दूसरा एकदिवसीय सम्मलेन १५ नवम्बर २०१४ को सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया | जिसमे बीसीएम ने अपनी पुरानी १३ सदस्यीय कार्यकारिणी को भंगा किया और ११ सदस्यीय नई कार्यकारिणी कागठन किया | इसके आलावा कुछ नए पदाधिकारियों का चुनाव सर्वसम्मति से किया गया | जिससे की संगठन के काम-काज को और विस्तार दिया जा सके तथा आगे बढ़ाया जा सके | 

           भगत सिंह छात्र मोर्चा
                                             का
                दूसरा सम्मलेन
                    15 nov 2014

       इससे पहले सम्मलेन का शुरुआत करते हुए अध्यक्ष शैलेश ने अपने स्वागत भाषण में सम्मलेन में उपस्थित हुए अपने पुराने और नए सदस्यों का क्रन्तिकारी अभिवादन करते हुए संगठन के वर्तमान स्तिथि के बारे में सबको बताया | देश और कैम्पस के वर्तमान हालत पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि आज विकास के नाम पर भारत के दलाल शासक वर्ग देश के प्राकृतिक संसाधनो और शहरों को भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियो के हवाले कर रहा है | पहले तो हमें एक ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमें गुलाम बनाया आज बहुत सारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमें गुलाम बनाने आ रही है | ऐसे समय में हमारे जैसे संगठनो कि जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है | कि होम शासक वर्ग कि नीतिओं का पर्दाफास करे छात्रों और आम जनता को राजनीतिक रूप से सचेत ,जागरूक और संगठित करे तभी हम अपने देश को बचा सकते है और शहीद भगत सिंह के सपनो का भारत बना सकते है |

         सम्मलेन के पहले सत्र शुरू होने से पहले मशाल सांस्कृतिक मंच के साथियों ने गीत गाकर सदस्यों का अभिवादन किया | इसके बाद इलाहबाद से आये आईसीएम के पूर्वअध्यक्ष व सामाजिक कार्यकर्ता विश्वविजय ने उद्घाटन भाषण दिया उन्होंने विकास के माडल पर अपनी बात रखते हुए मोदी सरकार के मेक इन इंडिया कि नीतियों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि देश एक दूसरी गुलामी में प्रवेश करने जा रहा है | आज देश में जनविरोधी नीतियों के खिलाफ पुरे देश में जनता आंदोलित हो रही है | जिन्हे सरकार विकास विरोधी और देशद्रोही बता कर दमन कर रही है | हमें इन सब को भी छात्रों और बुद्धिजीवियों को बताना चाहिए | छात्रों और शिक्षको को जनता के बीच ले जाने की कोशिश बीसीएम को करना चाहिए |

       सम्मलेन के पहले सत्र में साथी विनोद शंकर ने कार्यकारिणी की तरफ से बीसीएम की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट पढ़ कर सुनाया | जिस पर सदस्यों ने अपनी बात रखते हुए कुछ कमियों और उपलब्धियों को बताया | इसके बाद घोषणापत्र-संविधान , मांगे व कार्यक्रम सदस्यों के बीच पढ़ा गया जिसे बहुमत से पास किया गया और सम्मलेन की अवधि को १ वर्ष से बढाकर दो वष कर दिया गया है | इसी बीच विभिन्न कारणों से संगठन छोड़कर जानेवाले सदस्यों और पदाधिकारियों का त्यागपत्र भी पढ़ कर सम्मलेन में सुनाया गया | दूसरे सत्र में नई कार्यकारिणी और नए पदाधिकारियों का चयन सर्वसम्मति से किया गया | जिसमें शैलेश (अध्यक्ष),आरती(उपाध्यक्ष),रितेश(सचिव),विनोद(सहसचिव),दिवेश(कोषाध्यक्ष),मनीष,धीरज,रोहित,शुशील,दुर्गेश,संतोष है |

          अन्त में सम्मलेन ने कुछ राजनीतिक प्रस्ताव पास किया जिसमे मुख्यतः मुनाफा केंद्रित विकास के मॉडल का पर्दाफास करना और मानव केंद्रित विकास के मॉडल के लिए संघर्ष करना है,छात्र परिषद का पूर्णतः बहिष्कार करना और लिंगदोह के खिलाफ व मुकम्मल छात्रसंघ के लिए संघर्ष करना आदि प्रस्ताव लिए गए |

Thursday, November 6, 2014

जेल से रिहा होने के बाद आईआईटी बीएचयू के छात्रों को प्रशांत राही का सम्बोधन :

   सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता व पत्रकार प्रशांत राही जिन्होंने IIT,BHU से ही बीटेक ,एमटेक और रिसर्च किया | प्रशांत राही अपने इस करियर की सुरुआत बीएचयू की शुरुआती दिनों अर्थात बीटेक के समय से ही की थी | तब परिसर में एक संगठन गतिविधि विचार मंच कार्य करता था जिसमें मुख्य रूप से सुभाष गाताड़े आदि लोग काम कर रहे थे | उसमें प्रशांत राही ने सक्रियता से भाग लिया और सामाजिक कार्यों में इतना व्यस्त होने की वजह से रिसर्च को बीच में ही छोड़ दिया |  बाद में उत्तराखंड में अलग राज्य की मांग व बांधों के विरोध में चल रहे आंदोलनों सक्रियता से भाग लिया | फिर सामाजिक-राजनीतिक  जीवन के दौरान जेल जीवन के बारे में प्रशांत राही ने अपने अनुभव साझा किया |

 प्रशांत राही की रिहाई के लिए व UAPA,124A जैसे काले कानूनों के खिलाफ संदीप पाण्डेय के नेतृत्व में आईआईटी बीएचयू के छात्रों व भगत सिंह छात्र मोर्चा ने संयुक्त रूप से एक आंदोलन चलाया था | जिसके फलस्वरूप आज प्रशांत राही हमारे सामने है | LT-1 NEW LECTURE BUILDING IIT,BHU में चल रहे "प्रशांत राही से बातचीत" कार्यक्रम में सैकड़ों छात्र-छात्राओं,बुद्धिजीवियों ने भागीदारी की |

प्रशांत राही के रिसर्च गाइड रहे प्रोफ़ेसर ए.एन त्रिपाठी ने भी अपनी बात रखते हुए कहा कि मुझे बहुत ख़ुशी है कि प्रशांत आज हम लोगों के सामने लेक्चर दे रहा है | प्रशांत जब भी जेल से छूटता है तो मुझसे जरूर मिलाने आता है | अगर छात्र इंसानियत-समाज के बारे  में नहीं सोचेगा केवल वह स्वार्थी होता चला जायेगा तो इस पढाई का कोई मतलब नहीं |

 इसके बाद प्रश्नोत्तर का दौर चला  जिसमे कई छात्र-छात्राओं ने UAPA,नक्सलवाद ,हिंसा ,पूंजीवाद और आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी से सम्बंधित सवाल पूछे  |
 प्रश्नोत्तर हो जाने के बाद प्रो ० असीम मुखर्जी ,सुनील सहस्त्रबुद्धे ,संदीप पाण्डेय और प्रो० आर.के.मंडल ने भी अपनी बात रखी | कार्यक्रम का संचालन  निखिल जैन ने किया |

Sunday, November 2, 2014

नागपुर सेन्ट्रल जेल से हेम मिश्रा का पत्र

दोस्तो,  
        पिछले महीने अगस्त की 20 तारीख को महाराष्ट्र की पुलिस द्वारा मेरी गिरफ्तारी किए एक साल पूरा हो गया है। एक संस्कृतिकर्मी और दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र रहने के बावजूद मुझ पर यूएपीए (गैर कानूनी गतिविधि निवारण कानून) की विभिन्न धाराएं लगाई गई हैं। और नागपुर सेंट्रल जेल के अति सुरक्षा विभाग (High Security Cell) ”अंडा सेल” की तनहाइयों में रखा गया है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली सत्र न्यायालय (Session Court) ने 6 सितंबर 2014 को मेरी जमानत की अर्जी भी खारिज कर दी है। नागपुर सेंट्रल जेल की इन बंद दीवारों के बीच मुझे न्यायालय से न्याय की किरण फूट पड़ने की उम्मीद थी। लेकिन, न्यायालय ने मेरी जमानत याचिका खारिज कर मेरी इन उम्मीदों पर विराम लगा दिया है। न्यायालय का यह आदेश प्रकृति द्वारा मुझे दिए गए खुली हवा में जीने के अधिकार के खिलाफ जाता है। आज जनवाद व न्यायपसंद लोगों के संघर्षों की बदौलत सत्ता के शिकार जेलों में बंद हजारों हजार लोगाें की जमानत जल्द से जल्द सुनिश्चित किए जाने के अधिकार का सवाल एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। जिसके चलते सर्वोच्च न्यायालय भी इसी नतीजे पर पहुंची है कि सभी न्यायाधीन बंदियों की जमानत के इस अधिकार को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। और समय समय पर अपने अधीन न्यायालयों को इस संबंध में दिशा निर्देश भी देते रही है। इसके बावजूद भी सत्र न्यायालय ने मुझेे जमानत देने से इनकार कर मुझसे यह अधिकार छीन लिया है। और मुझ जैसे संस्कृति कर्मी को जेल की इन बंद दीवारों के बीच तनहाइयों में रहने को विवश कर दिया है ।


 पिछले साल अगस्त महीने में अपनी गिरफ्तारी से पहले मैं नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का छात्र था। विश्वविद्यालय में पढ़ाई के साथ साथ, देश दुनिया के ज्वलंत विषयों पर होने वाले सेमीनार, पब्लिक मीटिंग, चर्चाओं छात्रों के जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष व जातीय उत्पीड़न, कारखानों में मजदूरों के शोषण,भूमि अधिग्रहण कर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किए जाने, महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, जनवादी आंदोलनों पर दमन और साम्राज्यवाद द्वारा जनता पर थोपे जा रहे युद्धों के खिलाफ होने वाले संघर्षों में भागीदारी मरे छात्र जीवन का हिस्सा थी। छात्रों के इन संघर्षों में सांस्कृतिक प्रतिरोध को अनिवार्य मानते हुए एक संस्कृतिकर्मी के रूप में जनता के संघर्ष के गीतों व नाटकों के जरिए मेरी भागीदारी रहती थी। एक संस्कृतिकर्मी के रूप में मेरे इस सफर की शुरूआत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा शहर से हुई। मुझे याद है जब मैं अल्मोड़ा से तकरीबन 30 किमी दूर एक अत्यंत पिछड़े हुए अपने गांव से स्कूल की पढ़ाई के लिए इस शहर में आया था, तब पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए आंदोलन चल रहा था। आंदोलन में शामिल नौजवान अक्सर स्कूलों को भी बंद करवाकर हजारों की संख्या में स्कूली छात्रों की राज्य आंदोलन की रैलियों में भागीदारी करवाते थे। इस तरह मैं भी राज्य बनाने के लिए चल रही इस लड़ाई का अंतिम दौर में हिस्सा हो गया। उस आंदोलन में समाज के हर तबके के लोग शामिल थे। छात्र, अध्यापक, कर्मचारी, महिलाएं, मजदूर, किसान, लेखक, पत्रकार, वकील और संस्कृतिकर्मी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी कर रहे थे। विकास से कोसों दूर उत्तराखंड की महिलाओं के दर्द, युवाओं की बेरोजगारी की पीड़ा, पलायन, बराबरी पर आधारित समाज के सपने और जनवादी उत्तराखंड के निर्माण की रूपरेखा को अपने गीतों में समाये हुए मशहूर रंगकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा को हजारों हजार जनता के बीच गाते हुए देखना मुझे इन सांस्कृतिक गतिविधियों की ओर खींच लाया। स्कूली पढ़ाई के बाद जब मैं उच्च शिक्षा के लिए काॅलेज में आया मैंने देखा काॅलेज में उत्तराखंड राज्य आंदोलन से उद्वेलित कई नौजवान अपनी पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों के हकों की लड़ाई व एक जनवादी उत्तराखंड के निर्माण की लड़ाइयो में भागीदारी कर रहे थे। बराबरी पर आधारित शोषण-विहीन समाज का सपना संजोए, इन छात्रों के साथ मैं भी उन संघर्षों में भाग लेने लगा। जनगीत नाटक व अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां इन संघर्षोें का प्रमुुख हिस्सा बन गए थे। जिनके जरिए हम छात्रों को उनके अधिकारों और समाज में चारों ओर हो रहे शोषण, अन्याय व उत्पीड़न के बारे में जागरूक करते थे। पृथक राज्य बन जाने के बाद भी उत्तराखंड के पहाड़ों में कुछ भी नहीं बदला। बड़ी-बड़ी मुनाफाखोर कंपनियों द्वारा यहां के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट जनता को उनकी जमीन से बेदखल किया जाना, सरकारों द्वारा बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं पास कर नदियों को देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले कर देना, पर्यावरण के नाम पर सेंचुरी और बड़े पार्क बनाकर जनता को उनके जंगलों पर अधिकारों से वंचित किया जाना, शिक्षित-प्रशिक्षित युवाओं का बेरोजगारी के जलते पलायन, महिलाओं पर अत्याचार, जातीय उत्पीड़न, प्राइवेट कंपनियों में मजदूरों के श्रम की लूट, ये सब कुछ पहले की तरह ही जारी रहा। राज्य में बड़े-2 भूमाफिया, शराब के तस्कर, दिनों दूरनी रात चैगूनी गति से पनपने लगे। सत्ता के नशे में चूूर सरकारें जनता के दुखदर्दों से बेखबर ही रहीं। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान खटीमा, मंसूरी व मुजफ्फरनगर में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवाने वाले और महिलाओं के साथ बलात्कार करवाने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों का कुछ नहीं हुआ बल्कि उन्हें तरक्की ही दी गई। इस सबसे पैदा हुए असंतोष के कारण इन सवालों को लेकर फिर से अलग-2 आंदोलन होने लगे। मेरा भी इन आंदोलनों में हिस्सा लेना जारी रहा। इन्हीं आंदोलनों के दौरान कई छात्र साथियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, भूमिहीन किसानों मजदूरों व महिलाओं को राजद्रोह जैसे काले कानूनों में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इन साथियों की रिहाई के लिए हुए आंदोलनों में भी मैंने बराबर भागीदारी की। उत्तराखंड के कुमाऊं विश्वविद्यालय में गणित विषय के साथ स्नातक व पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीजी डिप्लोमा करने के बाद मैं वर्ष 2010 में चीनी भाषा की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली के प्रतिष्ठित संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय आ गया। जेएनयू में पढ़ाई के दौरान मुुझे मशहूर चिकित्सक डा. प्रकाश आम्टे के बारे में पता चला। महाराष्ट्र के भमरागढ़ में बेहद पिछड़े इलाकों में आदिवासियों के बीच उनके स्वास्थ के क्षेत्र में किए गए कार्यों से प्रभावित होकर मैं उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था। अपनी इसी उत्सुकता के चलते मैं 19 अगस्त 2013 को उनसे मिलने के लिए दिल्ली से चला आया। अगले दिन यानी 20 अगस्त 2013 को तकरीबन सुबह 9:30 बजे बल्लारशाह रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरने के बाद मैं भमरागढ़ के हेमलकसा में स्थित डा. आम्टे के अस्पताल जाने के लिए वाहन ढूंढने रेलवे स्टेशन से बाहर जाने ही वाला था, तभी किसी ने अचानक पीछे से आकर मुझे अपने हाथों से मजबूती से पकड़ लिया। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता कि मुझे कोई इस तरह क्यों पकड़ रहा है एक के बाद एक 10-12 और लोग आकर मुझ पर झपट पड़े। ऐसी स्थिति में अपने साथ कुछ बुरा होने वाला है सोचकर मैं जोर जोर से चिल्लाने लगा ताकि आस पास से कोई मेरी तदद के लिए आ जाए। मेरे चिल्लाने से खुद को खतरा समझ इन लोगों ने अपने हाथों से मेरा मुंह बंद कर दिया। और मुझे कुछ कदम की दूरी पर खड़ी एक टाटा सुमो नुमा वाहन में ठूंसकर वहां से ले गए। मुझे पता नहीं था कि ये लोग कौन हैं और मुझे इस तरह अपहरण कर कहां ले जा रहे हैं। कुछ ही देर में मेरी आखों सहित पूरे चेहरे को एक काले कपड़े से बांध दिया गया और उनमें से एक ने मेरे दोंनों हाथों को कसकर पकड़ लिया ताकि न तो मैं देख सकूं, कि मुझे कहां ले जाया जा रहा है। और ना ही अपने हाथों से उनके लात-घूसों से अपना बचाव कर पाऊं। चलते हुए, वाहन में मुझे इस तरह पकड़ लिए जाने और कहां ले जाया जा रहा है यह जानने की कोशिश करने पर जवाब में गालियां, धमकी और लात घूसों से मार पड़ती। इसी तरह लगभग एक घंटे बाद उनमें से किसी एक ने मेरे चेहरे से काले कपड़े को हटाकर अपना आइ कार्ड दिखाया तब मुझे मालूम चला मेरा इस तरह अपहरण करने वाले कोई और नहीं बल्कि खुद गढ़चिरौली पुलिस के स्पेशल ब्रांच के लोग थे। मुझे कहां ले जाया जा रहा है मुझे अब भी इसकी जानकारी नहीं दी गई। इसके लगभग दो घंटे बाद मुझे गाड़ी से उतारकर मेरी आंखों से काली पट्टी हटा दी गई। काली पट्टी हटा दिए जाने के बाद मैंने देखा मेरे बांयी ओर एक बड़े मैदान में एक हैलीकाॅप्टर खड़ा है और उसके आस-पास वर्दी में कुछ पुलिस के सिपाही चहलकदमी कर रहे हैं। मेरे दांयी ओर कुछ सरकारी बिल्डिंग्स और मेरे सामने की ओर भी कुछ बिल्डिंग थी। उनमें से एक बिल्डिंग की पहली मंजिल में मुझे ले जाया गया और कमरे में थोड़ी देर रखने के बाद एक अन्य कमरे में ले जाया गया। उस कमरे में ले जाते वक्त मेरी नज़र उस कमरे के बाहर लगी एक नेमप्लेट पर पड़ी। तब जाकर मुझे पता चला कि मुझे गढ़चिरौली पुलिस हैडक्वार्टर में तत्कालीन एसपी सुवैज हक के केबिन में ले जाया जा रहा है। केबिन में एक आलीशान चेयर पर बैठे सुवैज हक को मैंने अपना परिचय दिया और मुझे बिना कारण इस तरह गैर कानूनी तरीके से पकड़ लिए जाने का कारण पूछा। सुवैज हक भी खुद मुझे धमकियां देने लगे। थोड़ी ही देर बाद दो स्थानीय ग्रामीण युवकों को वहां लाया गया। दरअसल, इन युवकों को मेरी ही तरह कहीं पकड़कर यहां लाया गया था। ये वही आदिवासी युवा हैं जिन्हें पुलिस मेरे साथ गिरफ्तार किए जाने का दावा कर रही है। मेरे सामने उन युवकों के साथ जिस तरह बर्ताव किया जा रहा था उससे मैं समझ गया पुलिस द्वारा मुझे इस तरीके से पकड़ने के पीछे क्या मंसूबे हैं। इसके बाद मुझे दूसरे कमरे में ले जाया गया, जहां अगले तीन दिनों तक मुझ पर पुलिसिया उत्पीड़न के हर तरीके इस्तेमाल किए गए। बाजीराव (जिससे मारने पर शरीर में अधिकतम चोट लगती है और घाव भी नहीं दिखाई पड़ते) से मारा गया। पावों के तलवों में डण्डों से मारा गया। लात-घूंसों से मारा गया और हाथों से पूरे शरीर को नोंचा जाता। इन सब तरीकों से तीन दिनों तक बेहोशी की हालत तक हर रोज मारा जाता था। इन तीन दिनों में एक पल के लिए भी सोने नहीं दिया गया। इन क्रूर यातनाओं भरे तीन दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद मुझे दिनांक 23/08/13 को अहेरी पुलिस थाने के लाॅकअप में ला पटका। इस तरह पकडे जाने के लगभग 80 घंटों के बाद अहेरी के मजिस्ट्रेट कोर्ट में पेश किया गया। मेरे द्वारा बार-बार कहे जाने के बावजूद पुलिस ने अब तक मेरे घर में मुझे पकड़ लिए जाने की सूचना भी नहीं दी गई थी। जब मैंने कोर्ट में मजिस्ट्रेट से खुद मेरे घर में सूचना देने की बात कही तब पुलिस ने कोर्ट से ही मेरे परिचितों को सूचना देनी पड़ी। इस दिन मजिस्ट्रेट कोर्ट से मुझे 10 दिनों के लिए पुलिस हिरासत में ले लिया गया। मुझे 20 अगस्त 2013 को बल्लहारशाह रेलवे स्टेशन से पकड़कर 3 दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने कोर्ट और मीडिया ने मुझे बल्लहारशाह से लगभग 300 किमी दूर अहेरी बस स्टैंड के पास गिरफ्तार किए जाने का दावा किया। दरअसल पूरी तरीके से झूठे इस दावे का मकसद 3 दिनों तक मुझे अवैध हिरासत में रखे जाने को कोर्ट और मीडिया के जरिए दुनिया के सामने मेरी गिरफ्तारी को वैध दिखाना था। 2 सितंबर 2013 को पुलिस द्वारा कोर्ट पेशी में मजिस्ट्रेट से मेरी पुलिस हिरासत को और 14 दिनों के लिए बढ़ा लिया गया। इस तरह कुल 24 दिनों तक मुझे पुलिस हिरासत में रखा गया। इन 24 दिनों तक मुझे अहेरी पुलिस थाने के एक बहुत ही गंदे व बद्बू भर लाॅकअप में रखा गया। लाॅक-अप में मुझे केवल जिंदा भर रखने के लिए खाना दिया जाता था। पहले 10 दिनों तक न तो मुझे नहाने दिया गया और न ही ब्रश करने दिया गया। मुझसे मेरे कपड़े ब्रश, पैसे, आईकार्ड सब कुछ गिरफ्तारी के समय ही छीना जा चुका था। 2 सितम्बर की कोर्ट पेशी के दिन मेरे पिताजी और दोस्तों द्वारा कपड़े, ब्रश, साबुन और रोजाना जरूरत की चीजें दी गई तब जाकर मुझे नहाना, ब्रश करना और इतने दिनों से पसीने में भीग चुके गंदे कपड़ों को बदल पाना नसीब हुआ। पुलिस हिरासत के 24 दिनों में महाराष्ट्र पुलिस, एसटीएस, आईबी, और दिल्ली, उत्तराखंड, यूपी, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश की इंटेलीजेंस ऐजेंसियां मुझे ठीक उसी तरह शारिरिक व मानसिक यातनाएं देती रही जिस तरह तीन दिनों की अवैध हिरासत में दी गईं थी। पुलिस द्वारा मेरे फेसबुक , जीमेल, रेडिफमेल की आईडी, लेकर इनका पासवर्ड भी ट्रेक कर लिया। मुझे पूरा यकीन है पुलिस और इंटेलीजेंस ऐजेंसियां अभी भी मेरे ईमेल और फेसबुक अकाउंट का दुरूपयोग कर रही होंगी। पूरे देश और दुनिया में मेरी गिरफ्तारी का विरोध होने के बावजूद पुलिस हिरासत में मुझे यातनाएं देने का सिलसिला जारी रहा। इतना ही नहीं पुलिस की योजना में मुझे और भी ज्यादा समय तक पुलिस हिरासत में रखना था। और इसके लिए उन्होंने 16 सितम्बर 2013 को मेरी कोर्ट पेशी के दिन कोशिश भी की लेकिन कोर्ट में मेरे वकील द्वारा हस्तक्षेप करने पर कहीं जाकर इनकी यह कोशिश सफल नहीं हुई। उस दिन मजिस्ट्रेट ने मुझे इस यातना शिविर (पुलिस हिरासत) में न भेजकर न्यायिक हिरासत में सेंट्रल जेल भेज दिया। नागपुर सेंट्रल जेल पहुंचने पर मुझे जेल के बैरेक संख्या-8 में भेज दिया गया। यह वही बैरेक है जहां मेरी तरह ही देशद्रोह और यूएपीए जैसे जनविरोधी कानूनों में गिरफ्तार किए गए महाराष्ट्र के की युनिवर्सिटियों में पढ़ने वाले छात्र-कार्यकर्ताओं, दलित और लगभग 40 आदिवासी नौजवानों को रखा गया था। झूठे मामलों में फसाए गए इन आदिवासी नौजवानों की संख्या समय के साथ साथ घटते बढते रहती है। जेल में धीरे धीरे समय बीतने पर मुझे इन आदिवासी युवाओं से बातचीत के दौरान, इन्हें महीनों तक पुलिस हिरासत में अमानवीय व क्रूर तरीके से दी गईयातनओं की कहानियां सुनने को मिलीं। कानून की किताबों में जल्द गति से ट्रायल (Speedy Trial) चलाए जाने का अधिकार दिया गया है। लेकिन, इन आदिवासियों में से कोई दो तो कोई तीन और कोई पांच सालों से जेल में यातनाएं झेलने को विवश हैं। न्यूनतम 6 से लेकर अधिकतम 40 तक फर्जी मामलों में जेल में बंद किए गए इन युवाओं के लिए जमानत की उम्मीद करना तो बेईमानी होगी। कोर्ट में महीनों तक इनकी पेशी नहीं होती। कभी एक दो पेशी समय से हो भी जाएं तो अगली पेशी कब होगी इसका कुछ नहीं पता रहता। इनमें से अधिकांश युवाओं के केस गढ़चिरौली सेशन कोर्ट में चल रहे हैं। मेरा केस भी इसी कोर्ट में चल रहा है। इस कोर्ट में प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी की व्यवस्था बंद कर दी गई है। प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी के स्थान पर वीडियो कांफ्रेंस के जरिए कोर्ट पेशी की जाती है। जिसके चलते बंदियों को न तो अपने केस के संबंध में अपने वकील से बात करने का अवसर मिलता है और नहीं जज से। इस तरीके से होने वाली कोर्ट पेशी में केवल अगली कोर्ट पेशी की तारीख का पता मात्र चल पाता है। अक्सर तकनीकी ख़राबी रहने के कारण यह संभावना भी खत्म हो जाती है। वीडियो कांफ्रेंस के जरिए पेशी में निष्पक्ष ट्रायल (fair trial) संभव नहीं है। जिसके परिणाम स्वरूप् हाल ही में दो आदिवासियों को सजा भी हो गई। जेल में बंदियों के लिए अपने परिजनों व वकील से मुलाकात जाली लगी खिड़की के जरिए होती है। जेल के भीतर आकर बंदियों से मुलाकात की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण जाली लगी इस अत्यंत भीड़-भाड़ वाली खिड़की के जरिए 15-20 मिनट के समय में बंदियों की दूर-दूर से आने वाले अपने परिजनों और अपने वकील से केस के संबंध में विस्तृत बात हो पाना बिल्कुल भी संभव नहीं है। इस साल 31 जनवरी से जेल में तरह-तरह की यातनाएं झेल रहे 169 जेल बंदियों ने अपनी 4 सत्रीय मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की। इस आंदोलन में यूएपीए, मकोका, व मर्डर के आरोप में जेल में बंद न्यायाधीन बंदी शामिल थे। इस आंदोलन में यूएपीए के केस झेल रही 7 महिलाओं ने भी हिस्सा लिया। आंदोलन की मांगों, जल्द गति से ट्रायल चलाए जाने, न्यायाधीन बंदियों की प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी किए जाने, बेल के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों बेल नाॅट जेल, को लागू कर सभी न्यायाधीन बंदियों को जल्द से जल्द बेल दिए जाने जैसी मांगें शामिल थी। आंदोलन के पहले दिन आंदोलन में भाग ले रहे यूएपीए के केस वाले बंदियों को जेल के अतिसुरक्षा विभाग (High Security Cell) अंडा सेल में भेज दिया गया। जिनमें से सात बंदियों (जिनमें से एक मैं भी हूँ) को 7 महीनों से भी अधिक समय से आज तक भी अंडा सेल में ही रखा गया है। हमें जेल के अंदर अन्य बंदियों से मिलने का कोई अवसर नहीं है। अंडा सेल के अंदर बंद दीवारों के बीच बने अत्यंत छोटे-छोटे बैरेक और उनके सामने मात्र 40 मीटर घूमने की जगह ही हमारा संसार है। पिछले एक साल में पुलिस हिरासत की यातनाओं और जेल की तनहाइयों के अनुभव व अपनी तरह जेल में बंद अन्य लोगों की कहानियां जानकर मैं यह महसूस करता हूं कि वे तमाम राजनीतिक व सांस्कृतिक गतिविधियां समाज एवं मेरे ही तरह जेल में बंद अन्य बंदियों की रिहाई के लिए कितनी जरूरी हैं। मेरा आप सभी से अनुरोध है, आप मेरी और विभिन्न जेलों में हजारों की संख्या में बंद आदिवासियों, दलित, महिलाओं, गरीब मजदूर किसानों, कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए आवाज़ उठाएं। 

date . 16-09-2014 
इसी विश्वास के साथ- 
हेम मिश्रा यू.टी.न. 56, 
अतिसुरक्षा विभाग अंडा सेल, 
नागपुर सेंट्रल जेल, नागपुर महाराष्ट्र

Saturday, October 18, 2014

बीएचयू में छात्रसंघ बहाली को लेकर संयुक्त आंदोलन

    छात्रसंघ बहाली को लेकर भगत सिंह  छात्र मोर्चा ,एनएसयूआई ,समाजवादी छात्र सभा लोकतंत्र बहाली संघर्ष मोर्चा के संयुक्त बैनर तले दिनांक १२ अक्टूबर २०१४ को छात्र परिषद भवन पर अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गए । और यह अनशन लगातार पांच दिन तक चला , जिसमें ११ छात्र अनशन  थे बीसीएम से शैलेश और दिवेश थे । इन पांच दिनों के दौरान इस मोर्चे को छात्राओं ,कर्मचारियों,भूतपूर्व छात्र नेताओं ,प्रोफेसरों व अन्य विश्यविद्यलयों का भी समर्थन मिला । और दो छात्रों की हालत भी गंभीर हो गयी । 


       विश्वविद्यालय प्रशासन इस दौरान  अनशनरत छात्रों को कई बार भरमाने की कोशिश करता रहा । कभी नोटिफिकेसन में छात्र चुनाव  बात करता,कभी छात्र परिषद का नाम या उस शब्द को बदलने के लिए कहता  तो कभी कमेटी गठित की बात करता । लेकिन हमारी मांगे थी पूर्णतः अर्थात मुकम्मल छात्रसंघ जिसमें प्रत्यक्ष चुनाव हो । प्रशासन यह दुहाई देता रहा कि अगर छात्र संघ चुनाव कराया जायेगा तो उसे ईसी, वीसी से पास करना पड़ेगा और वह अभी गठित नहीं है ।  हाईकोर्ट के अनुसार समय पर चुनाव हो जाने चाहिए जिसको ध्यान में रखकर छात्र परिषद चुनाव कराया जायेगा । 

     इन  सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर मोर्चा ने यह प्रस्ताव रखा कि केवल नाम या शब्द से काम नहीं चलेगा ढाचा वाही रहेगा तो कोई मतलब नहीं  बल्कि सभी पदों पर प्रत्यक्ष चुनाव कराये जाये । और चुनाव स्पष्ट शब्दों में छात्र संघ (student union ) का हो जो अध्यक्षीय माडल पर हो । जो कमेटी गठित हो वह इसलिए नहीं की छात्रसंघ होगा कि की नहीं बल्कि इसलिए कि छात्रसंघ कैसा होगा इस पर सुझाव मांगने व विचार करने के लिए हो । और उस कमेटी में निर्णय की प्रक्रिया में छात्रों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हर छात्र संगठनों के तीन -तीन प्रतिनिधियों को शामिल किया जाये । 

      इस पर प्रशासन ने आंदोलन को बढ़ता देख कर हमारी माँगो  को मानने पर मजबूर हुआ और एक नोटिफिकेसन जारी कर यह कहा कि छत्रसंघ  चुनाव के लिए एक कमेटी गठित करेगा जिसमे छात्र संगठनो की भागीदारी होगी और यह कमेटी तीन महीने के अंदर रिपोर्ट देगी जिसे पास कराकर अगले सत्र में चुनाव कराएगी । इस सत्र में छात्र-परिषद का चुनाव  होगा । 


       मोर्चा ने इस सत्र के चुनाव को नामंजूर करते हुए संयुक्त रूप से यह सार्वजनिक घोषणा की कि इस चुनाव का बहिष्कार किया जायेगा । मोर्चा यह कहते हुए कि हमारा यह आंदोलन नहीं हो रहा है बल्कि स्थगित किया जा रहा है जब हमारी मांगे पूरी नहीं होगी तो हमारा आंदोलन फिर सुरु होगा । यह कहते हुए मोर्चा ने मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पाण्डेय के हाथों जूस पीकर अनशन तोड़ा । 

     इस दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी  परिषद नामक संगठन एक दिन पहले ही अलग से आमरण अनशन पर बैठ गया था और यह खुशफहमी पाले रखा था कि १४ को मोदी आएंगे और हम उनसे अपनी मांगे मनवाकर अनशन समाप्त करेंगे और छत्रसंघ बहाली का सारा श्रेय ले जायेंगे । लेकिन हुआ उल्टा उन्होंने मोदी के न आने पर हड़बड़ा कर छात्र परिषद पर सहमति देकर अपने अनशन की समाप्ति कर दी और प्रशासन की दलाली करते हुए हो-हल्ला मचाया कि छात्र- संघ बहाल हो गया । जबकि मोर्चे का अनशन उसके दो दिन बाद तक चला । 


    अनशनकारियों के बीच मशाल सांस्कृतिक मंच से युद्धेष बेमिशाल ने अपने गीतों-गजलों के माध्यम से माहौल को खुशनुमा और जोशीला बनाये रखा । कुछ मुख्या गीत इस तरह  है  सरफ़रोशी की तम्मना अब हमारे दिल में है,देखना है जोर कितना बाजु-ए -कातिल में है ,दरिया की कशम मौजो की कशम ये तन-बना बदलेगा ,ले मशाले चल पड़े है लोग मेरे गाँव के ,मशाले लेकर चलना कि जब तक रात बाकि है आदि । और संदीप लॉ फैकल्टी से ने अपने जोगीरा से माहौल बनाये रखा । 

    

   

Thursday, October 9, 2014

'जो खुली नजरों से ओझल है': अरुंधति रॉय से एक बातचीत

                                                       - हशियाँ ब्लॉग से साभार 

जुलाई में जानीमानी कार्यकर्ता और लेखिका अरुंधति रॉय की इस बात पर कई हलकों में गुस्से की लहर दौड़ गई थी कि गांधी की आम तौर पर स्वीकृत छवि एक झूठ है. तिरुअनंतपुरम स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ केरल में अय्यनकली मेमोरियल व्याख्यान देते हुए अरुंधति ने यह भी कहा था कि गांधी के नाम पर बने संस्थानों का नाम बदल दिया जाना चाहिए. केरल में उठे इस विवाद से, जिसमें जुलूस, गिरफ्तारी की धमकी और गुस्से से भरे बयानों का सिलसिला चला, हिंदी की वह वैचारिक दुनिया लगभग अनजान रही, जिसने इससे महज दो-तीन महीने पहले ही डॉ. बी.आर. आंबेडकर की किताब एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट की अरुंधति द्वारा लिखी प्रस्तावना पर एक लंबा विवाद देखा था. मार्च-अप्रैल के दौरान किताब की प्रस्तावना पर और फिर केरल में व्याख्यान पर हुए विवाद के दौरान जो मुद्दे उभरे, उनपर अरुंधति ने इस बातचीत में चर्चा की है. मलयाला मनोरमा ऑनलाइन के लिए लीना चंद्रन द्वारा हाल में की गई इस लंबी बातचीत को दो किस्तों में हाशिया पर पोस्ट किया जाएगा. आज पहली पहली किस्त. अनुवाद: रेयाज उल हक



मुझे लगता है कि गांधी वाला विवाद थोड़ी देर से उठा. अगर लोगों ने डॉ. बी. आर. आंबेडकर की किताब एन्नाइहिलेशन ऑफ द कास्ट के लिए आपकी लिखी गई प्रस्तावना, द डॉक्टर एंड द सेंट को गहराई से पढ़ा होता तो इस साल की शुरुआत में इसके प्रकाशन के फौरन बाद ही यह विवाद पैदा होना चाहिए था. असल में, आपने द डॉक्टर एंड द सेंट में जो विचार जाहिर किए हैं, उनकी तुलना में आपने तिरुअनंतपुरम स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ केरल के इतिहास विभाग में अय्यनकाली मेमोरियल लेक्चर में जो कुछ कहा, वह उतना भड़काऊ भी नहीं था...

मैं यह नहीं कहूंगी कि द डॉक्टर एंड द सेंट भड़काऊ है, हालांकि बेशक इस पर अनेक हलकों से अच्छी-खासी मात्रा में विवाद पैदा हुआ है. उन हलकों से भी, जिनसे इसकी उम्मीद नहीं थी. लेकिन यह सब अपेक्षित ही था, क्योंकि यह एक विवादास्पद मुद्दा है. तब भी, उसमें सोचने के पारंपरिक तरीकों पर सवाल किए गए थे, और ऐसा करने के लिए ज्यादातर गांधी के कम जाने गए लेखों का हवाला दिया गया था. यह आंबेडकर के एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट की प्रस्तावना के रूप में लिखा गया था. आंबेडकर का नजरिया स्थापित व्यवस्था को बहुत मजबूती से और गहराई में जाकर चुनौती देता है. गांधी का नस्ल और जाति को लेकर जो नजरिया था, उस पर विवाद मेरे द डॉक्टर एंड द सेंट लिखने से बहुत पहले शुरू हो गया था. आप कह सकते हैं कि यह आंबेडकर-गांधी बहस के साथ ही शुरू हो गया था. दलित राजनीति की दुनिया में बरसों से यह बहस चली आ रही है – लेकिन इसे बहुत सावधानी से और बड़ी कामयाबी के साथ सत्ता प्रतिष्ठान के विमर्शों से बाहर रखा गया. अय्यनकली मेमोरियल लेक्चर के बाद केरल के मीडिया में मची खलबली उन लोगों द्वारा किया गया शोर-शराबा है, जिन्होंने कभी आंबेडकर की एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट, या द डॉक्टर एंड द सेंट या ऐसी ही कोई चीज पढ़ने की जहमत नहीं उठाई. यहां तक कि उन्होंने गांधी का लेखन भी नहीं पढ़ा है, जिसका बचाव करने को वे इतने उत्सुक हैं. इस बहस में अनेक निहित स्वार्थ काम कर रहे हैं. उनसे बदलने की उम्मीद रखना शायद कुछ ज्यादा ही होगा. लेकिन नौजवान लोग अपना नजरिया बदलेंगे. यह तय है.


आपके ज्यादातर आलोचक कहते हैं, ‘अरुंधति हमारे गांधी के बारे में क्या जानती हैं? उन्हें क्या अधिकार है?’ माना, आप जोरदार तरीके से गांधी के लेखन में से हवाला देती हैं, लेकिन आपने इस इंसान के पूरे लेखन का कितने विस्तार से और कितनी गहराई से पड़ताल की है? आपने किस तरह का शोध किया है? क्या आप इसके बारे में थोड़े विस्तार से बताएंगी कि आपने आंबेडकर को सीखने और गांधी को भुलाने की शुरुआत कैसे की?

‘हमारे गांधी?’ और यह अरुंधति कौन है? क्या इस धरती से बाहर का कोई जीव, जिसके पास वैसे अधिकार नहीं हैं, जैसे गांधी पर ‘मिल्कियत’ जतानेवालों के पास हैंॽ क्या यही लोग, ठीक यही लोग ‘हमारे आंबेडकर’ कह सकते हैं? बल्कि इसके उलट, मुझे कहने दीजिए: द डॉक्टर एंड द सेंट न तो समग्र गांधी और न ही समग्र आंबेडकर के बारे में. यह आंबेडकर और गांधी के बीच चली बहस के बारे में है. मैंने इसे लिखने से पहले आंबेडकर और गांधी के लेखन पर महीनों तक शोध और अध्ययन किया. मैंने शुरुआत गांधी द्वारा 1936 में एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट को खारिज किए जाने से की. और फिर मैं जाति और नस्ल की उनकी हिमायत का सिरा पकड़ कर आगे बढ़ी, जो दक्षिण अफ्रीका तक जाता था. (मैंने दक्षिण अफ्रीका में कुछ समय बिताया) मैं जो पढ़ रही थी, उससे मुझे बहुत धक्का लगा था और मुझे इससे भी ज्यादा धक्का इस बात से लगा कि किस कामयाबी के साथ गांधी के ये बेहद परेशान कर देने वाले पहलू सार्वजनिक और ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ के बुद्धिजीवियों की खोजी निगाहों से अनदेखे गुजर गए. मैंने यह महसूस किया कि मैं जो करना चाहती थी, उसे करने का अकेला उपाय यही था कि जितना ज्यादा मुमकिन हो सके, खुद गांधी के शब्दों का ही उपयोग किया जाए – अपनी टिप्पणियों और विश्लेषण को कम से कम रखा जाए. बेशक इसका नतीजा यह हुआ कि यह एक लंबी, करीब-करीब किताब जैसी एक प्रस्तावना बन गई. इसमें जो कुछ भी है, वह बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है. इसलिए हर तरह की प्रतिक्रियाएं आईं- खुले दिल से अपनाने और बेहद प्यार दिखाने से लेकर, गुस्से से भरी हुई प्रतिक्रियाएं, जो अंदाजे से परे थीं. कुछ ने इस बात के लिए आलोचना की कि मैंने आंबेडकर से ज्यादा गांधी के बारे में लिखा है. यह एक जायज मुद्दा है, लेकिन इसको लेकर मेरी दलील यह है कि जब तक हम उस पर्दे को तार-तार नहीं कर देंगे, जो आंबेडकर की स्पष्टता को धुंधला बनाने के लिए गांधी ने तान रखा था, तब तक हम अंधेरे में ही टटोलते रहेंगे. यही आंबेडकर की दलील भी थी, जब उन्होंने एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट के बारे में आई सारी प्रतिक्रियाओं में से गांधी की प्रतिक्रिया को जवाब देने के लिए चुना. किताब के बारे में जो भी विवाद पैदा हुए – जिनसे बचा नहीं जा सकता था – उनमें से कुछ मेरे बारे में हैं, मेरे अपने बारे में, मेरी मंशा, मेरी प्रेरणा और राजनीतिक हमदर्दी, मेरी जाति, मेरे घर के पते के बारे में – न कि उस पर जो मैंने लिखा है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है, हालांकि इसकी पूरी संभावना थी और मैं अब ऐसी चीजों की आदी हो गई हूं. मैं एक आसान निशाना हूं – मशहूर होना दोनों पक्षों पर असर डालता है. यह मुझे और मेरे आलोचकों दोनों को ही ताकत देता है. मेरी किताबों की रॉयल्टी मुझे धनी और आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाती है – इसलिए गैरबराबरी के बारे में लिखने की मैं जुर्रत कैसे करती हूं? मैं एक ‘अच्छी औरत’ नहीं हूं, मुझे देख कर नहीं लगता कि मैंने अच्छे से दुख झेला है. मैंने पहले से चली आ रही तयशुदा तरीके की जिंदगी को अपनी मर्जी से कबूल नहीं किया है – इसलिए मुझे उन चीजों पर लिखने का क्या हक है, जिन पर मैं लिखती हूं? किस्मत से, मुझे किसी से भी कोई नैतिक चरित्र प्रमाण पत्र नहीं चाहिए. बुनियादी बात यह है कि मैंने जो लिखा है, पाठक उसे पढ़ने और उसके साथ बौद्धिक रूप से जुड़ने का विकल्प चुन सकते हैं या उसे छोड़ सकते हैं. बाकी सब बेवजह का शोर-शराबा है. 


नवयान द्वारा प्रकाशित आंबेडकर के एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट के संपादक एस. आनंद ने दस साल पहले आपसे एक प्रस्तावना का अनुरोध किया था. आप राजी हो गई थीं और आपने शोध और अध्ययन शुरू कर दिया था. क्या तब आपने महात्मा के योगदान पर पुनर्विचार शुरू किया?

आंबेडकर ने बहुत मजबूत और गंभीर तरीके से मेरी समझदारी को और गहरा बनाया और मेरी सोच को समृद्ध किया. उन्होंने हमें वे औजार दिए हैं, जिनसे हम उस समाज को समझ सकते हैं और उसका विश्लेषण कर सकते हैं, जिसमें हम रहते हैं. वे एक रेडिकल चिंतक थे, और वे निडर थे. गांधी की शोहरत और भारी प्रभुत्व के दिनों में उन्होंने जिस तरह गांधी को आड़े हाथों लिया, वह एक परिघटना थी. उन्होंने गांधी और कांग्रेस के बारे में बहुत लिखा क्योंकि इन दोनों ने चालाक और जटिल तरीके से आंबेडकर की राह रोकने की कोशिश की थी. आंबेडकर को पढ़ते हुए मैं गांधी के बारे में उन बनी बनाई धारणाओं से आजाद हुई, जिनके साथ हममें से अनके लोग बड़े होते हैं. हालांकि अभी आंबेडकर की विरासत भारी खतरे में है. एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट, हिंदूवाद (हिंदुइज्म) का विद्वत्तापूर्वक खंडन करता है. आंबेडकर चाहते थे कि उनके लोग हिंदूवाद को नकारें. लेकिन आज, बड़ी तेजी से दलितों का ‘हिंदूकरण’ और ‘संस्कृतीकरण’ किया जा रहा है. यह नई सरकार आंबेडकर का दुस्वप्न रही होती. ‘अशुद्धों’ को हिंदू घेरे में लाने के लिए एक नए शुद्धि आंदोलन का ऐलान किया गया है. आरएसएस प्रमुख ने घोषणा की है कि सारे भारतीय हिंदू हैं. यह बहुत परेशान करने वाला है.


क्या गांधी पर ‘पुनर्विचार’ करने में आपकी मूर्तिभंजक मां मेरी रॉय का कोई असर रहा है? मैं यह बात खास तौर से पूछ रही हूं, क्योंकि हम जिन बातों को सीखते हुए बड़े होते हैं, उनको बदलना हमेशा ही खासा मुश्किल होता है.

मेरी मूर्तिभंजक मां हमेशा से ही गांधी की बड़ी प्रशंसक रही हैं. इसलिए द डॉक्टर एंड द सेंट लिखने में उनकी कोई भूमिका नहीं है. मैं अपनी कहूं तो अभी मैंने जो कुछ पढ़ा, उसके पहले मैं सोचती थी कि गांधी एक चालाक, लेकिन मंजे हुए और कल्पनाशील राजनेता थे. उनके बारे में दो बातों ने मुझे हमेशा गहराई से परेशान किया – उनमें से एक बात थी, औरतों और सेक्स को लेकर उनका रवैया, जिस पर अलग से एक पूरी किताब लिखी जाने लायक है और दूसरी बात थी दलितों को ‘हरिजन’ कहना, जो मुझे घिनौनी और सरपरस्ती से भरी बात लगती थी.


लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि गांधी ने आपको पूरी तरह निराश किया? क्या गांधी में ऐसी एक भी खूबी नहीं है जिसकी आप तारीफ करती हों?

गांधी एक आकर्षक किरदार थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में लोगों की कल्पना को अपने वश में कर लिया था और अभी भी जनता को सम्मोहित करते हुए लगते हैं. मैं नहीं सोचती कि जिन्होंने द डॉक्टर एंड द सेंट पढ़ा है वे यह नतीजा निकालेंगे कि यह आंबेडकर के बारे में एक गैर आलोचनात्मक और भक्ति-भाव से लिखी गई कोई जीवनी है और गांधी की कठोर आलोचना है. हैरानी की बात यह है कि कुछ हलकों में, गांधी की तारीफ करने के लिए मेरी आलोचना की गई – हालांकि ऐसा लगता है कि उन्होंने भी किताब नहीं पढ़ी है. वे कहते हैं कि मैंने गांधी को संत कहा है, वे इसमें छुपी हुई विडंबना को पकड़ नहीं पाए, जिसे इस बात के जरिए जाहिर करने की मेरी मंशा थी. उनसे यह बात भी पकड़ में नहीं आई कि आंबेडकर अक्सर गांधी को व्यंग्य से संत कहते थे. फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं – और गौर कीजिए कि सिर्फ दलित ही नहीं, कुछ ब्राह्मण भी – जो यह मानते हैं कि आंबेडकर की किसी रचना की प्रस्तावना लिखने का अधिकार किसी भी गैर-दलित को नहीं है. वे इसे प्रभुत्वशाली जाति से आने वाले किसी इंसान द्वारा आंबेडकर को ‘हड़पे जाने’ के रूप में देखते हैं. लेकिन अगर व्यापक रूप से देखा जाए तो कुल मिलाकर, तो यह सारी बहस, सारे इल्जाम और इशारों-इशारों में कही गई बातें, यहां तक कि केरल में फूट पड़ा गुस्सा, गिरफ्तारी की धमकियां, जुलूस, यह आखिरकार एक अच्छी चीज है – हालांकि कभी कभी इससे दुख होता है. हम सभी में हजारों बरसों के संस्थागत पूर्वाग्रह भरे हुए हैं. उन्हें बाहर निकालना ही होगा, और यह प्रक्रिया खूबसूरत नहीं होगी. हममें से कोई भी शुद्ध नहीं है, हममें से कोई परिपूर्ण नहीं है, कोई भी पाठ (रचना) पूरी तरह सही या आलोचना से परे नहीं है. हमारे पास विकल्प यह है कि हम एक अपूर्ण राजनीतिक एकजुटता के लिए एक दूसरे के साथ मिलकर खड़े हों या फिर अपने को अपनी अपनी खंदकों में बंद करते हुए एक दूसरे से अलग-थलग कर लें, और खुद के श्रेष्ठ और सही होने की अपनी ही रची हुई धारणा में सिमट कर जाएं.


इस पर गौर करना दिलचस्प है कि आपने स्वामी विवेकानंद को भी नहीं छोड़ा. द डॉक्टर एंड द सेंट में आपने खुद उनकी बात का हवाला दिया है, जिसमें उन्होंने अछूतों के धर्मांतरण को हतोत्साहित किया था. लेकिन क्या यह हवाला संदर्भ से बाहर जाकर नहीं दिया गया थाॽ

नहीं. ऐसा नहीं था. स्वामी विवेकानद ने जो कहा था, वह आबादी की बनावट के बारे में प्रभुत्वशाली जाति की बेचैनी की राजनीति का हिस्सा था, जो तब बदलनी शुरू हुई थी. यह उस बात की पैदाइश थी, जिसे आज हम हिंदुत्व की शक्ल में जानते हैं.


लेकिन गांधी और केरल में अछूतों के नेता अय्यनकली के बीच उनके योगदानों के आधार पर तुलना कितनी व्यावहारिक हैॽ अय्यनकली का काम और उनका प्रभाव एक क्षेत्रीय परिघटना थी.

उनकी तुलना क्यों नहीं की जाएॽ यह इतना अपवित्र क्यों हैॽ अय्यनकली ने 1904 में पुलय बच्चों के स्कूल में पढ़ने के अधिकार की लड़ाई लड़ी थी. उन्होंने पहली खेतिहर हड़ताल की थी और वह कामयाब रही थी – यह बात रूसी क्रांति से भी पहले की बात है. उन्हीं दिनों गांधी दक्षिण अफ्रीका में काले अफ्रीकियों और दबा कर रखी गई जातियों के भारतीय मजदूरों के बारे में सबसे आपराधिक बयान दे रहे थे. त्रिवेंद्रम में मैंने यह कहा कि कैसे गांधी जाति व्यवस्था में यकीन रखते थे. मैंने 1936 के उनके एक असाधारण निबंध ‘द आयडियल भंगी’ में से हवाला दिया, जिसमें वे खानदानी और परंपरागत काम-धंधों की खूबी के बारे में अपने नजरिए पर रोशनी डालते हैं. निजी तौर पर, मैं सोचती हूं कि यह गंभीर किस्म की हिंसा है. मैंने इसके बारे में कहा कि हमें इस पर सोचना चाहिए कि हमें इन दो तरह के लोगों में से किसके नाम पर विश्वविद्यालयों के नाम रखने चाहिए. क्या यह गलत हैॽ


‘यथास्थिति का संत’, ‘सबसे मशहूर भारतीय’, ‘अब तक आधुनिक दुनिया द्वारा जाना गया सबसे मंजा हुआ राजनेता’...आपने महात्मापन पर सवाल खड़े किए. लेकिन अगर हम यह बारीकी से देखें कि कैसे कई दशकों के दौरान गांधी का विकास हुआ, तो क्या उनमें सुधार की प्रक्रिया नहीं दिखतीॽ क्या आप ये कहना चाहती हैं कि वह सब एक भव्य छलावा थाॽ आपके आलोचकों ने इस तरफ ध्यान दिलाया है कि गांधी की शुरुआती जिंदगी में कही गई बातों का हवाला देना एक भारी नाइंसाफी है, जब महात्मा कम महात्मा थे.

मेरे आलोचकों ने जो सवाल मेरे सामने रखे हैं, लिखने से पहले मैंने अपने सामने उन सवालों रखा था. क्या गांधी बदलेॽ क्या उनमें कोई विकास हुआॽ क्या उन्होंने जाति पर अपने नजरिए और अपने कामों को छोड़ाॽ इस मुद्दे के साथ इंसाफ करने के लिए ही मैंने उनकी पूरी वयस्क जिंदगी में शुरू से लेकर अंत तक के लेखों और भाषणों का हवाला दिया– 1890 के दशक की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका पहुंचने से लेकर 1946 तक जब वे एक बुजुर्ग इंसान थे. केरल यूनिवर्सिटी की अपनी बातचीत तक में मैंने 1894 में कही गई उनकी बात और फिर 40 साल के बाद 1936 में कही गई उनकी बात का हवाला दिया, जब उन्होंने ‘द आयडियल भंगी’ लिखी थी – तब वे करीब 70 साल के थे.

अगला इल्जाम ये है कि गलत संदर्भ में हवाले दिए गए हैं. मैं यह जानना चाहूंगी कि किस संदर्भ में काले अफ्रीकियों को गंदे ‘जंगली’ कहना और दबा कर रखी गई जातियों के भारतीय मजदूरों को, जिनका ‘नैतिक स्वभाव नष्ट हो गया है,’ जन्मजात झूठा कहना कबूल किए जाने लायक हैॽ किस संदर्भ में यह कहना कबूल किया जा सकता है कि मैला साफ करने वालों की आने वाली पीढ़ियों को भी मैला साफ करते रहना चाहिएॽ आप पूछती हैं कि क्या गांधी एक भव्य छलावा हैंॽ गांधी का सारा लेखन सार्वजनिक रूप से संकलित और उपलब्ध है. उनको संपादित नहीं किया गया या उनसे छेड़छाड़ नहीं की गई है. इसलिए उस मोर्चे पर कोई छलावा नहीं है. लेकिन हां, जिस तरह गांधी की विरासत को सार्वजनिक खपत के लिए तैयार करके परोसा गया है, उसमें भारी बेईमानी की गई है. जिन चीजों को निखार कर पेश किया गया है और जो चीजें छुपा दी गई हैं, वे विचलित करने वाली हैं और यह सोची-समझी बेईमानी भरी राजनीति है.

गांधी के बचाव में तीसरी बात यह कही जा रही है कि वे ‘अपने समय के इंसान’ थे और हम राजनीति और सामाजिक न्याय की अपनी समकालीन समझ को एक ऐसे इंसान पर नहीं थोप सकते जो एक सदी से भी ज्यादा पहले हुआ हो. मैंने द डॉक्टर एंड द सेंट में इसका भी जवाब दिया है और मैंने पाठकों का ध्यान पंडिता रमाबाई, जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले जैसे लोगों के कामों की तरफ दिलाया है, जो गांधी से भी पहले हुए थे. फिर पेरियार, अय्यनकली, श्री नारायण गुरु और दूसरे देशों में उनके समकालीनों का कहना ही क्या.

'जो खुली नजरों से ओझल है': अरुंधति से बातचीत की दूसरी किस्त








आपने लीना चंद्रन के साथ मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय की लंबी बातचीत की पहली किस्त पढ़ी. पेश है बातचीत का दूसरा और बाकी का पूरा हिस्सा. अनुवाद: रेयाज उल हक.
गांधी ने पुलय राजा के नाम से मशहूर पुलय अछूतों के नेता अय्यनकली से मिलने के लिए 14 जनवरी 1937 को तिरुअनंतपुरम के वेंगनुर का दौरा किया था. उन्होंने अछूत नौजवानों के साथ थोड़ी देर बातचीत भी की थी. उनमें से एक के. आर. वेलायुधन भी थे, जो भारत के पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के बड़े भाई थे. वेलायुधन ने गांधी से पूछा था कि स्वराज में वे पुलयों को क्या ओहदा देंगे. गांधी ने जवाब दिया कि वे एक हरिजन को भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त करेंगे. 


गांधी हमेशा बड़े मजे से ‘हरिजनों’ की सरपरस्ती करते और उन्हें मुफ्त की सलाह देते थे. रेवरेंड जॉन मॉट के साथ 1936 में एक मशहूर बातचीत में, जिसमें उन्होंने ‘हरिजनों’ के बीच रेवरेंड के मिशनरी काम पर आपत्ति जताई थी, गांधी ने कहा, ‘डॉ. मॉट क्या आप शुभ संदेश को एक गाय को सुनाना पसंद करेंगेॽ खैर, समझदारी के मामले में इन अछूतों में से कुछ तो गायों से भी बदतर हैं. मेरा मतलब है कि वे इस्लाम, हिंदूवाद और ईसाइयत में उससे ज्यादा फर्क नहीं कर सकते, जितनी एक गाय कर सकती है.’

यहां तक कि आज भी लोग अय्यनकली को गांधी द्वारा ‘पुलय राजा’ कहे जाने को बड़े आराम से कबूल कर लेते हैं. इसी तरह डॉ. आंबेडकर को अक्सर ‘अछूतों का नेता’ कहा जाता है, लेकिन तब क्या हो अगर अय्यनकली या आंबेडकर या कोई भी दूसरा व्यक्ति गांधी को आज एक बनिया महात्मा कहेॽ जुलूस निकलेंगे, पुलिस में मुकदमे किए जाएंगे. दलितों को महज प्रतीकात्मक राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के बजाए दलितों द्वारा खुद अपना प्रतिनिधि चुनने के सवाल पर गांधी के असली नजरिए और कामों की कहानी जानने के लिए एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट पढ़िए. और साथ में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान गांधी और आंबेडकर के बीच आमने-सामने हुई पहली बहस को भी पढ़िए.


जब भारत के पहले दलित राष्ट्रपति के. आर. नारायणन 25 साल के थे और द टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता हुआ करते थे, वे गांधी से बंबई में मिले थे. उनके पास गांधी के लिए एक सवाल था: ‘जब इंग्लैंड में मुझसे भारत में अस्पृश्यता के मुद्दे के बारे में पूछा जाए तो क्या मुझे एक हरिजन के बतौर जवाब देना चाहिए या एक भारतीय के रूप में जवाब देना चाहिएॽ’ और गांधी ने फौरन जवाब दिया: ‘जब आप विदेश में हों तो आप कहेंगे कि यह हमारा आंतरिक मामला है, जिसे एक बार ब्रिटिश भारत को छोड़ दें तो हम सुलझा लेंगे.’

इसीलिए गांधी आंबेडकर के इतने खिलाफ थे- क्योंकि उन्होंने आजादी हासिल होने तक जाति के सवाल पर चुप रहने से इन्कार कर दिया था. गोलमेज सम्मेलन में उनके बीच में इसी को लेकर टकराव हुआ था. यह बात है कि जब सत्ताधारी या ताकतवर लोग जैसे ही कहें कि ‘यह एक आंतरिक मामला है’ तो हमें इसको एक अपशगुन के रूप में लेना चाहिए. इसका अगला कदम होता है ‘बाहरी’ लोगों को सारी राजनीतिक अशांति का दोषी बताया जाना. इसके बाद वे हमें बताते हैं कि कौन ‘बाहरी’ है और कौन ‘भीतरी’, कौन ‘असली’ भारतीय है और कौन नहीं, कौन ‘असली’ हिंदू और कौन नहीं, कौन ‘असली’ मुसलमान है और कौन नहीं और आपके पता लगने से पहले ही धार्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तथा हर तरह की हठधर्मिता, झगड़ते हुए प्रेतों की तरह, आपके दरवाजे पर बैठी भीतर आने देने की गुहार कर रही होगी.


आशीष नंदी की किताब इंटिमेट एनेमी: लॉस एंड रिकवरी ऑफ सेल्फ अंडर कोलोनियलिज्म आपकी द डॉक्टर एंड द सेंट के संदर्भ ग्रंथों की सूची में शामिल है. हाल में एक मलयाली साप्ताहिक में दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने गांधी पर आपकी राय से अपनी असहमति जताई है. उन्होंने कहा: ‘अरुंधति मेरी दोस्त हैं. वे एक अच्छी लेखक हैं. लेकिन मैं उनकी टिप्पणियों को गंभीरता से नहीं लेता. एक बार उन्होंने नक्सलवादियों को बंदूकधारी गांधीवादी बताया था. देखते हैं कि वे गांधी पर अपनी राय को बदलती हैं या नहीं. गांधी ने जाति व्यवस्था को काम और कर्तव्य पर आधारित व्यवस्था बनाने की कोशिश की. अस्पृश्यता जैसे व्यवहारों के बारे में उनका एक यथार्थवादी रवैया था. गांधी को ढेर सारी आलोचनाएं हासिल हुई हैं. लेकिन यह कहना बकवास है कि उनका काम साजिश का हिस्सा था.’

मुझे उम्मीद है कि आप उन्हें सही सही उद्धृत कर रही हैं. मेरे लिए इस पर यकीन करना मुश्किल है कि उन्होंने यह सब कहा है, हालांकि उन्होंने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दलितों के लिए जो कुछ कहा था उस पर यकीन करना भी मुश्किल था. आशीष नंदी एक वरिष्ठ प्रोफेसर और एक हैसियत रखने वाले सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं. इसलिए मैं इस पर बाल की खाल नहीं निकालूंगी कि उनका लहजा सरपरस्ती भरा है या मैंने जो लिखा है, उसे पढ़े बिना ही उन्होंने बिना किसी संकोच के उस पर टिप्पणी की है (उन्होंने नयनतारा सहगल पर, उनकी नई किताब के हाल में ही हुए विमोचन के मौके पर ऐसी ही मेहरबानी की है). मैं मान लेती हूं कि उन्होंने यह सब कुछ कहा है, और तब आइए हम बस कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं.

पहला: मैंने कभी भी नक्सलवादियों को ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ नहीं कहा है. मैं उतनी बेवकूफ नहीं हूं. यह आउटलुक के कॉपी एडिटर द्वारा लगाया गया फोटो कैप्शन था. मैं इस विद्वान प्रोफेसर से यह उम्मीद करूंगी कि लापरवाही में ऐसे ही टिप्पणी करने से पहले वे मेरे लिखे को – इस मामले में मेरे निबंध ‘वॉकिंग विद द कॉमरेड्स’ को – सावधानी के साथ पढ़ने की मेहरबानी करें.

दूसरा: गांधी ने ‘जाति व्यवस्था को काम और कर्तव्य पर आधारित व्यवस्था बनाने की कोशिश’ नहीं की. गांधी से कुछ हजार साल पहले से जो जाति व्यवस्था चली आ रही थी, वह काम और कर्तव्य पर आधारित व्यवस्था थी. इसमें लोगों को परंपरागत और खानदानी पेशे सौंपे गए थे और उन्हें कर्तव्यों और हकदारियों के एक दर्जावार खांचे में बंद कर दिया गया था. जाति के खिलाफ पूरा संघर्ष इसी के बारे में है!

तीसरा: मुझे यह पक्का पता नहीं कि ‘अस्पृश्यता जैसे व्यवहारों के बारे में एक यथार्थवादी रवैए’ का क्या मतलब है. सच में, इसका क्या मतलब हैॽ

चौथा: मैंने कभी नहीं कहा कि गांधी का काम किसी साजिश का हिस्सा था.

पांचवा: मैं गांधी के बारे में अपनी राय नहीं बदलूंगी.

वैसे लोग यह क्यों कहते हैं कि ‘वह एक महान लेखिका है॒ और फिर मेरे नाम के साथ ऐसी बेवकूफी भरी बातें जोड़ देते हैं, जो मैंने कभी नहीं कहींॽ मैं कभी कभी सोचती हूं कि क्या यह कोई मर्दानगी का मामला हैॽ सबसे पहले तो इस मामले में यह बात कोई मायने नहीं रखती कि मैं एक महान लेखिका हूं या एक महान बेवकूफ. क्यों नहीं सिर्फ उस पर बात की जाए, जो मैंने लिखा हैॽ या अगर इसमें बड़ी मेहनत लगनी है, तो क्यों नहीं सिर्फ उन बातों पर बात की जाए जो गांधी ने कही थींॽ उन्हें खारिज कीजिए, उनका खंडन कीजिए, उनसे बहस कीजिए. कहिए कि मैंने उन्हें अपने से गढ़ा है. कहिए कि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा (गांधी वांग्मय) फर्जी है. किसी के बचाव का यह कैसा तरीका हैॽ


एक मशहूर इतिहासकार एम.जी.एस. नारायण ने आपके नजरिए की आलोचना करते हुए एक लेख लिखा है: ‘एक अच्छे उपन्यासकार के बतौर अरुंधति की हैसियत उन्हें इसके लायक नहीं बनाती कि वे इतिहास और राजनीति पर टिप्पणियां करें...उन्हें डॉ. बी.आर. आंबेडकर, अय्यनकली और मार्क्सवादियों को खुश करने के लिए हमारे राष्ट्रपिता का अपमान करने के बजाए कोई दूसरा उपाय खोजना चाहिए था...’
मुझे यह बात अच्छी लगी कि वे ऐसा सोचते हैं कि मैं लोगों को खुश करने की कोशिश कर रही हूं – यह तो मेरी कायापलट ही है! लेकिन इतिहास की अपनी समझ से एम.जी.एस. नारायण को यह पता होना चाहिए था कि आंबेडकरियों और मार्क्सवादियों को एक ही साथ खुश करना असल में नामुमकिन है. जो भी हो, यहां भी हमें फिर से वही बात मिलती है - ‘एक अच्छे उपन्यासकार के बतौर अरुंधति की हैसियत उन्हें इसका अधिकार नहीं देती...’ ! अरुंधति रॉय के अधिकारों और कर्तव्यों का वही मुद्दा. वही मर्दानगीॽ या फिर यह जाति का वही धोखेबाज चेहरा हैॽ एक अच्छा (अच्छी) उपन्यासकार किन किन विषयों पर टिप्पणी कर सकती हैॽ इतिहास नहीं, राजनीति नहीं, तो फिर क्याॽ बेबी फैशनॽ चमड़ी की देखभालॽ क्या कोई सूची बनाई गई हैॽ क्या अच्छे (अच्छी) उपन्यासकारों को कम से कम, राष्ट्रपिता को उद्धृत करने की इजाजत हैॽ या फिर हमें इसके लिए तीन प्रतियों में अपनी अर्जी पेश करनी होगीॽ क्या हमें सिर्फ जाने-माने इतिहासकारों द्वारा प्रमाणित चुने हुए उद्धरणों का ही इस्तेमाल करना होगाॽ


गांधी को उद्धृत करने के सवाल पर तिरुअनंतपुरम में एक यूथ कॉन्ग्रेस सेमिनार में बोलते हुए शशि थरूर ने इसकी तरफ ध्यान दिलाया कि गांधी ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया था, वे इतिहास के उस खास दौर से ताल्लुक रखते थे और उनके आधार पर कोई उनकी आलोचना नहीं कर सकती. उन्होंने यह भी कहा कि गांधी का नजरिया 21वीं सदी के भी अनुकूल है और उनके संदेश पूरी तरह ट्वीट करने लायक हैं. उन्होंने यह भी कहा कि गांधी-विरोधी विवादास्पद टिप्पणियां उस महापुरुष के बारे में आपकी गलत समझ का नतीजा हैं.


आह, मैं बेचारी-भ्रमित, चीजों को समझने में नाकाबिल, मैंने सबकुछ गलत समझा-शायद मुझे कोचिंग क्लासेज की जरूरत है. देखिए, मैंने गांधी विरोधी विवादास्पद टिप्पणियां नहीं की हैं. मैंने गांधी द्वारा कही गईं कुछ बेहद विवादास्पद बातों को उद्धृत किया है. अगर एक सांसद और जानेमाने लेखक शशि थरूर मानते हैं कि गांधी का काम और उनका बयान – काले अफ्रीकियों को ‘काफिर’ और ‘जंगली’ कहना, दक्षिण अफ्रीका में औपनिवेशिक युद्ध में ब्रिटिशों का साझीदार बनना और यह कहना कि ‘अछूत’ गायों से कम समझदार हैं – गांधी के दिनों में कबूल करने लायक थे और 21वीं सदी के लिए भी जायज हैं, तब यह बात थरूर के बारे में काफी कुछ बता देती है. यह बताती है कि जाति और नस्ल के बारे में उनका क्या नजरिया है, इतिहास की उनकी क्या जानकारी है – गांधी के पैदा होने के भी काफी पहले से भारत में दूसरे लोग जो कर रहे थे, कह रहे थे और लिख रहे थे इसके बारे में उनकी क्या जानकारी है.


बुजुर्ग मलयाली कवि और कार्यकर्ता सुगताकुमारी ने भी आपकी इस टिप्पणी पर आपकी खिंचाई की है कि गांधी की आम तौर पर स्वीकृत सार्वजनिक छवि पूरी तरह झूठ थी. उन्होंने आप पर गांधी के प्रति और महात्मा शब्द के प्रति नफरत से भरे होने का आरोप लगाया है.
जहां तक सुगताकुमारी के गुस्से की बात है – मुझे यह कहने दीजिए कि झूठ सिर्फ वही नहीं होता, जो आप किसी को बताते हैं, बल्कि झूठ वह भी होता है जिसे बिना कहे छोड़ दिया जाता है. मैंने यह जो बात कही कि पाठ्यपुस्तकों में जिस गांधी को परोसा गया है वह झूठ है, उसके पीछे की वजह यह है कि उनके जीवन और समय और लेखन के बारे में बहुत ही परेशान कर देने वाली बातें छोड़ दी गई हैं. जो चीज छोड़ दी गई है और जो चीज रखी गई है, इस चुनाव के पीछे एक पैटर्न है और राजनीति है जो चीजों को गंभीर तरीके से झूठ बनाती है.

गांधी के इन पहलुओं से निबटने की तो छोड़ ही दीजिए, उनका सामना करने की नाकाबिलियत उनका बचाव करने वालों की छवि को धूमिल कर रही है. मुझे ऐसा लगता है कि वे मुझ पर गांधी को न पढ़े होने का जो इल्जाम लगा रहे हैं, वे खुद इसके दोषी है. और अगर सचमुच उन्होंने गांधी को पढ़ रखा है, तब तो मैं चीजों तो जितना सोच रही हूं, वे उससे भी खतरनाक हैं. आप गांधी को उन पूर्वाग्रहों से - जिन्हें गांधी खुद सार्वजनिक रूप से खुशी खुशी कबूल करते थे - दोषमुक्त दिखाने के लिए द आयडियल भंगी की व्याख्या कितनी भी घुमा फिरा कर करें, यह रचना आधी सदी में पसरे एक राजनीतिक सफरनामे की सिर्फ एक कृति है. जाति के सवाल पर गांधी का नजरिया और उनका काम एक ही जैसे बने रहे. मैं इन नजरियों के प्रति नफरत से नहीं भरी हूं, नहीं. मैं उनके बारे में जो महसूस करती हूं, उसे बताने के लिए ‘नफरत’ एक बहुत ही हल्का और अधूरा शब्द है.


साहित्यिक आलोचक और कालीकट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रहे एम.एन. कारासरी ने एक लेख में आपकी हिमायत करते हुए कुछ दिलचस्प बातें कही हैं: ‘इन पागलपन भरे विवादों के बीच, यह बात बार बार स्थापित की जा रही है कि गांधी पवित्र हैं. लेकिन राजनीतिक नेताओं को इस पर गौर करना चाहिए कि इस जमीन पर पवित्र कही जाने वाली कोई चीज नहीं है. उसे होना भी नहीं चाहिए. यहां हर चीज धर्मनिरपेक्ष है. अगर कुछ ‘पवित्र’ है तो वह कहने की आजादी की राह में रोड़ा है और हमारे संविधान के खिलाफ है.’
ऐसी समझदारी और साफगोई के लिए बहुत आभार महसूस होता है. लेकिन इस देश के बारे में यही बात शानदार है. पागलपन भरी हठधर्मी और पूर्वाग्रहों के बावजूद, कुछ लोग हमेशा ऐसे होते हैं जो उसके सामने उठ खड़े होते हैं. केरल में अनेक लोग हैं, केरल विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग भी इसमें शामिल है, जिसने मुझे बुलाया था.


जब मार्क्सवादी सिद्धांतकार और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद ने धार्मिक कट्टरपंथ के लिए गांधी की आलोचना की थी, तो मशहूर लेखक और राजनीतिक कार्टूनिस्ट ओ.वी. विजयन ने जवाब में लिखा था कि गांधी लिबरेशन थियोलॉजिस्ट थे.
गांधी किसी भी तरह से लिबरेशन थियोलॉजिस्ट नहीं थे. किसी भी तरह से नहीं.


हालांकि काले अफ्रीकी लोगों के बीच गांधी की हैरान कर देने वाली प्रतिष्ठा है. क्या आपकी गांधी-विरोधी टिप्पणियों पर कोई अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया आई हैॽ
यह एक रहस्य ही है कि गांधी की प्रशंसा वही लोग करें, जिनका उन्होंने अक्सर इतने दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से वर्णन किया है. ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ अभी भारत के बाहर प्रकाशित नहीं हुई है. 


‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ में आपने इसका जिक्र किया है कि गांधी ने जॉर्ज जोसेफ को वायकोम सत्याग्रह के दौरान हिंदुओं के ‘आंतरिक मामले’ में दखल देने से रोक दिया था. उन्हें भूख हड़ताल पर जाने की इजाजत नहीं दी गई. इस पर अपने दादा के बारे में खूब लिखने वाले, गांधी के पोते तथा देवदास और लक्ष्मी गांधी के बेटे गोपालकृष्ण गांधी की टिप्पणी दिलचस्प है: ‘लेकिन वायकोम में वे विरोध के तरीके के बतौर जोसेफ या किसी और के भूख हड़ताल करने के पक्ष में नहीं थे. क्योंॽ मुझे लगता है कि भोजन को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के बारे में उनके इस विरोधाभास की वजह भूख हड़ताल और उपवास के बीच फर्क में निहित है, और इस कार्यवाही से जुड़ी संभावित धमकी में निहित है. एक भूख हड़ताल दबाव डालने की सीधी-सरल तरकीब है, यह उपवास से नैतिक रूप से कमतर है. और अगर इसमें बल है भी, तब भी इसमें सम्मान नहीं है. जबकि उपवास में प्रायश्चित, आत्म-शुद्धि और विचारों, शब्दों और कार्यों की संपूर्ण अहिंसा है और इन सबके साथ यह अपनी बात मनवाने का ऐसा तरीका है, जिसको सिर्फ एक माहिर व्यक्ति ही कर सकता है और इसलिए इसका इस्तेमाल केवल सत्ता पर ही नहीं, बल्कि समान रूप से समाज पर भी होता है. गांधी इसी तरह आगे चल कर केलप्पन को भी रोकने वाले थे.’ (केरला एंड गांधी, इंडियन लिटरेचर, जुलाई/अगस्त 2012.) 


येरवदा जेल में गांधी को जबरदस्ती करने और हर मुमकिन अनुचित तरीके से दबाव डालने की तरकीब के रूप में भूख हड़ताल/आमरण अनशन का – आप इसे जो भी कहें – इस्तेमाल करने में तो कोई हिचक नहीं हुई. तब आंबेडकर को सार्वजनिक दबाव के कारण और इस डर से पूना समझौते पर दस्तखत करना पड़ा कि अगर वे नहीं झुके तो अछूत समुदाय को भारी हिंसा का सामना करना पड़ेगा और उसे गांधी की मौत जिम्मेदार ठहराया जाएगा. रैम्से मैक्डोनॉल्ड का कम्युनल अवार्ड रद्द कर दिया गया, जो दलितों को अपना खुद का निर्वाचन मंडल बनाने का अधिकार देता था और आंबेडकर बरसों से इसके लिए लड़ते आए थे. आंबेडकर ने बाद में आमरण अनशन को ‘एक बेईमान और गलीज कार्रवाई’ कहा था. इन सबके विस्तार में जाने की यह जगह नहीं है – लेकिन दलित अब भी पूना समझौते के बुरे असर को झेल रहे हैं. चाहे तो इसके बारे में मायावती से पूछ लीजिए.


प्रधानमंत्री 8 सितंबर को नई दिल्ली में अय्यनकली जयंती समारोह का उद्घाटन करेंगे. मैं बस सोच रही हूं कि क्या वे तिरुअनंतपुरम में आपके विवादास्पद भाषण पर टिप्पणी करेंगेॽ
मैं नहीं कह सकती कि मैं इस बारे में सोच सोच कर अपनी रातों की नींद हराम कर रही हूं.


ऐसा क्यों होता है कि जब आप दलितों के बारे में बात करती हैं तो लोग पागल हो जाते हैं. मुझे याद है कि दिल्ली गैंग रेप के बाद आपकी टिप्पणियों पर भी इसी तरह की आलोचनाएं हुई थीं. आप उन घिनौने, गुमनाम अपराधों की तरफ ध्यान खींच रही थीं, जो दलित औरतों के खिलाफ किए जाते हैं.
यह बात आपको उन्हीं से पूछनी पड़ेगी [जो आलोचना करते हैं]. लेकिन एक बात है: दिल्ली गैंग रेप (किसी वजह से ज्यादातर लोग इसका जिक्र करना भूल गए कि उस लड़की की हत्या भी की गई थी, मानो यह कोई छोटी-सी बात हो) वाले साल 2012 में, एनसीआरबी के मुताबिक 1500 दलित औरतों का ‘छूत मर्दों’ द्वारा बलात्कार किया गया था. ऐसा नहीं है कि वे विरोध प्रदर्शन महत्वपूर्ण नहीं थे, उनकी वजह से हमें बलात्कार के खिलाफ एक ज्यादा कठोर कानून हासिल हुआ. लेकिन हमें एक ठोस नजरिए की जरूरत है, नहींॽ 2002 में गुजरात में सैकड़ों मुसलमान औरतों का बलात्कार हुआ, लेकिन हमसे उम्मीद की जाती है कि हम उससे ‘आगे बढ़’ जाएं, नहींॽ अगर आप उनके बारे में या कुनन पोशपुरा में फौज द्वारा कश्मीरी औरतों के सामूहिक बलात्कार की बात करें तो लोग चिल्ला कर आपकी जुबान बंद कर देंगे.


तथाकथित अछूतों के लिए आपकी चिंता द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स की बुनियादी पृष्ठभूमि भी है.
मैं इसे ‘तथाकथित अछूतों के लिए चिंता’ नहीं कहूंगी. उस तरह की मिशनरी भावना को हम गांधीवादियों के लिए छोड़ देंगे. बाकी बातों के साथ-साथ द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स हमारे समाज की बीमारी के बारे में है. जब जाति की बात आती है, तो हमें तथाकथित ‘ऊंची जातियों’, मम्माचियों, बेबी कोचम्माओं और कॉमरेड पिल्लइयों के बारे में चिंता करनी चाहिए. बीमार लोग वे हैं, वेलुता नहीं. उसे उनकी बीमारी का एक बड़े भयानक और त्रासदीपूर्ण तरीके से खामियाजा भुगतना पड़ता है.


एक लेखक होने के नाते, एक ऐसा इंसान होने के नाते जो धारा के साथ बह नहीं जाता, बल्कि उन मुद्दों को उठाता है जिसे बहुत कम लोग उठाने का साहस कर पाते हैं, एक ऐसी शख्सियत होने के नाते जो गर्मागर्म राजनीतिक, पर्यावरणीय मुद्दों/विवादों के केंद्र में है...आपको अपना जीवन कितना जोखिमभरा लगता है? क्या आपकी मां समेत आपके प्रियजन आपकी सुरक्षा को लेकर चिंतित नहीं होतेॽ
इस देश की जनता मुझसे कहीं ज्यादा मुश्किल लड़ाइयां लड़ रही है और उससे कहीं ज्यादा बड़े खतरे उठा रही है. हरेक 16 मिनट में एक दलित के खिलाफ एक अपराध किया जाता है. 2012 में जातीय उत्पीड़नों में 650 दलितों की हत्या कर दी गई. अभी, जिस समय हम बात कर रहे हैं, हजारों मुसलमान शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं, जबकि हत्यारे फरसे और तलवारें चमकाते हुए दसियों हजार की तादाद में महासभाएं कर रहे हैं, वे और भी अधिक हिंसा का ऐलान कर रहे हैं. मैं उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर की बात कर रही हूं. कश्मीर में, मणिपुर में लोग मारे जा रहे हैं. पूरे देश में हजारों लोग जेल में हैं, जिसमें मेरे करीबी दोस्त भी शामिल हैं. जहां तक मेरी मां के फिक्र करने की बात है, वो उस तरह की मां नहीं हैं. वे एक मजबूत दमखम वाली महिला हैं.


अंधभक्ति के अंधड़ में आपने बड़े साहस के साथ उन लोगों के लिए एक चिराग जलाया है, जो गांधी के कुछ पहलुओं से निराश हैं. आपको इससे किस तरह के नतीजे की उम्मीद हैॽ आप इस बहस से किस तरह के सकारात्मक नतीजे की उम्मीद करती हैंॽ
नतीजा सिर्फ सकारात्मक ही हो सकता है. एक छुपा कर रखी गई बात को उजागर करना – या कम से कम उन चीजों की तरफ इशारा करना, जिन्हें खुली नजरों से ओझल रखा गया है, सिर्फ एक अच्छी बात ही हो सकती है. भले ही वह शुरू में थोड़ा दुख पहुंचाए. लेकिन मुझे यह बात पूरी तरह साफ कर देने दीजिए: मैंने आग नहीं जलाई है. इसका श्रेय अनेक अनेक लोगों को जाता है. मैं उनमें से सिर्फ एक हूं.


गांधी के पड़पोते आनंद गोकनी ने टिप्पणी की है कि आप ‘बराबरी में यकीन करनेवाले गांधी के बारे में ऐसे गलत बयान देने के लिए पछताएंगी और अफसोस करेंगी’. उन्होंने जो कहा वो इस तरह है: ‘रॉय ने किसी को खुश करने के लिए चलताऊ बयान दिया है. यह गांधी के बारे में उनकी अपनी राय है और उन्हें ऐसा करने का हक है. लेकिन गांधी के बारे में लिखी गई किताबें पढ़ने वाला हर इंसान उनके बारे में सच्चाई को जानता है. वे एक लेखक और कार्यकर्ता हो सकती हैं, लेकिन उसके परे, उस गांधी के बारे में चलताऊ बयान देना अच्छी बात नहीं है-जो कि एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती हैं. इसीलिए अनेक हलकों से उनके बयान के खिलाफ आलोचनाएं उभरीं...’


‘वो लेखिका और कार्यकर्ता हो सकती हैं लेकिन...’ लेकिन, लेकिन, लेकिन, लेकिन. मैंने भविष्य का पता लगा लिया है और मुझे दूर दूर तक इसको लेकर कोई पछतावा या अफसोस नहीं दिखता...देखिए, गांधी अपने परिवार की धरोहर भर नहीं है. वे भारत के विचार की बुनियाद में लगे मुख्य पत्थरों में से एक हैं. गांधीवाद एक उद्योग बन गया है – इसमें बहुमत का शेयर (मेजर स्टेक्स), पैसा, रियल एस्टेट और राजनीतिक तथा अकादमिक संस्थान शामिल हैं. लापरवाही से इसकी आलोचना नहीं की जा सकती है. लेकिन बिल्ली कुछ समय से थैले से बाहर आने के लिए पंजे मार रही थी – अब यह आजाद घूम रही है, गलियारों में दौड़ती फिर रही है. जाहिर है, कुछ बिलौटे भी होंगे और बिलौटों के बिलौटे भी (नाती-पोते). वे अब थैले में वापस नहीं जाएंगे. बात तो निकल पड़ी है. पुलिस किसी काम न आएगी. न ही जेलें. और न ही राजनेताओं की धमियां किसी काम आएंगी.  कुछ समय तक यह थोड़ा मुश्किल होगा, लेकिन आखिर में यह हम सबके लिए अच्छा होगा. एक लंबे दौर को अपनी निगाह में रखें तो थोड़ी ईमानदारी कभी किसी का नुकसान नहीं करती.

[अनुवादक की टिप्पणी: यह साक्षात्कार तब लिया गया था, जब किताब भारत के बाहर प्रकाशित नहीं हुई थी.]